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ब्रिटिश हुकुमत की हैवानियत को बेनकाब करने के साथ मानवता को भी शर्मसार करता है जघन्य जलियांवाला बाग नरसंहार

प्यारा उतराखण्ड डाट काम
बैशाखी के पावन पर्व  १३ अप्रैल १९१९ को अमृतसर के  जलियाँवाला बाग में ब्रिटिश हुकुमत ने जो जघन्य नरसंहार कर हजारों लोगों की जो निर्मम हत्या की उसके संताप्त से भले ही आज ब्रिटेन ही हुकुमत भी शर्मसार हो पर 130 करोड़ भारतीय आज भी इस जघन्य काण्ड के दंश से मर्माहित है। इस जघन्य नरसंहार ने जहां भारतीय स्वतंत्रता संग्राम पर गहरा प्रभाव डाला  वहीं पूरे विश्व में इस निर्मम सामुहिक नरसंहार से पूरे विश्व में ब्रिटिश सम्राज्य का क्रूरत्तम व हैवानी चेहरा बेनकाब हो गया। इस जघन्य हत्याकाण्ड से भारत में ब्रितानी हुकुमत की चूलें हिल गयी।
जालियाँवाला बाग हत्याकांड भारत के पंजाब प्रान्त के अमृतसर में स्वर्ण मन्दिर के निकट जलियाँवाला बाग में १३ अप्रैल १९१९ (बैसाखी के दिन) हुआ था। रौलेट एक्ट का विरोध करने के लिए एक सभा हो रही थी जिसमें जनरल डायर नामक एक हैवान अँग्रेज ऑफिसर ने सत्तांध हो कर उस सभा में उपस्थित निर्दोष लोगों पर गोलियाँ चलवा दीं जिसमें हजारों लोग मारे गये और २००० से अधिक घायल हुए। हालांकि  अमृतसर के तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर कार्यालय में 484 शहीदों की सूची है, जबकि जलियांवाला बाग में कुल 388 शहीदों की सूची है। ब्रिटिश राज के अभिलेख इस घटना में 200 लोगों के घायल होने और 379 लोगों के शहीद होने की बात स्वीकार करते है जिनमें से 337 पुरुष, 41 नाबालिग लड़के और एक 6-सप्ताह का बच्चा था।
हालांकि भारत से चले जाने के बाद अंग्रेजों ने फिरंगी दमन से धधक रहे भारतीयों पर मरहम लगाने के लिए इस प्रकरण को अपने अधिकारियों की भूल बता कर कई बार संवेदना प्रकट की। १९९७ स्वयं ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ ने  जलियांवाले बाग के स्मारक पर मृतकों को श्रद्धांजलि दी थी।  यही नहीं २०१३ में ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरॉन भी इस स्मारक पर आए थे। दर्शक पुस्तक में उन्होंनें लिखा कि ब्रिटिश इतिहास की यह एक शर्मनाक घटना थी।
मानवता को शर्मसार करने वाली घटना पर प्रकाश डालते हुए मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया के अनुसार 13 अप्रैल 1919 को बैसाखी का दिन था। बैसाखी वैसे तो पूरे भारत का एक प्रमुख त्योहार है  विशेषकर पंजाब और हरियाणा के किसान सर्दियों की रबी की फसल काट लेने के बाद नए साल की खुशियाँ मनाते हैं। इसी दिन, 13 अप्रैल 1699 को दसवें और अंतिम गुरु गोविंद सिंह ने खालसा पंथ की स्थापना की थी। इसीलिए बैसाखी पंजाब और आस-पास के प्रदेशों का सबसे बड़ा त्योहार है और सिख इसे सामूहिक जन्मदिवस के रूप में मनाते हैं। अमृतसर में उस दिन एक मेला सैकड़ों साल से लगता चला आ रहा था जिसमें उस दिन भी हजारों लोग दूर-दूर से आए थे।
प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) में भारतीय नेताओं और जनता ने खुल कर ब्रिटिशों का साथ दिया था। 13 लाख भारतीय सैनिक और सेवक यूरोप, अफ्रीका और मिडल ईस्ट में ब्रिटिशों की तरफ से तैनात किए गए थे।  जिनमें से 43,000 भारतीय सैनिक युद्ध में शहीद हुए थे। युद्ध समाप्त होने पर भारतीय नेता और जनता ब्रिटिश सरकार से सहयोग और नरमी के रवैये की आशा कर रहे थे परंतु ब्रिटिश सरकार ने मॉण्टेगू-चेम्सफोर्ड सुधार लागू कर दिए जो इस भावना के विपरीत थे।
लेकिन प्रथम विश्व युद्ध के दौरान पंजाब के क्षेत्र में ब्रिटिशों का विरोध कुछ अधिक बढ़ गया था जिसे भारत प्रतिरक्षा विधान (1915) लागू कर के कुचल दिया गया था। उसके बाद १९१८ में एक ब्रिटिश जज सिडनी रॉलेट की अध्यक्षता में एक सेडीशन समिति नियुक्त की गई थी जिसकी जिम्मेदारी ये अध्ययन करना था कि भारत में, विशेषकर पंजाब और बंगाल में ब्रिटिशों का विरोध किन विदेशी शक्तियों की सहायता से हो रहा था। इस समिति के सुझावों के अनुसार भारत प्रतिरक्षा विधान (1915) का विस्तार कर के भारत में रॉलट एक्ट लागू किया गया था, जो आजादी के लिए चल रहे आंदोलन पर रोक लगाने के लिए था, जिसके अंतर्गत ब्रिटिश सरकार को और अधिक अधिकार दिए गए थे जिससे वह प्रेस पर सेंसरशिप लगा सकती थी, नेताओं को बिना मुकदमें के जेल में रख सकती थी, लोगों को बिना वॉरण्ट के गिरफ्तार कर सकती थी, उन पर विशेष ट्रिब्यूनलों और बंद कमरों में बिना जवाबदेही दिए हुए मुकदमा चला सकती थी, आदि। इसके विरोध में पूरा भारत उठ खड़ा हुआ और देश भर में लोग गिरफ्तारियां दे रहे थे।
गांधी तब तक दक्षिण अफ्रीका से भारत आ चुके थे और धीरे-धीरे उनकी लोकप्रियता बढ़ रही थी। उन्होंने रोलेट एक्ट का विरोध करने का आह्वान किया जिसे कुचलने के लिए ब्रिटिश सरकार ने और अधिक नेताओं और जनता को रोलेट एक्ट के अंतर्गत गिरफ्तार कर लिया और कड़ी सजाएँ दीं। इससे जनता का आक्रोश बढ़ा और लोगों ने रेल और डाक-तार-संचार सेवाओं को बाधित किया। आंदोलन अप्रैल के पहले सप्ताह में अपने चरम पर पहुँच रहा था। लाहौर और अमृतसर की सड़कें लोगों से भरी रहती थीं। करीब 5,000 लोग जलियांवाला बाग में इकट्ठे थे। ब्रिटिश सरकार के कई अधिकारियों को यह 1857 के गदर की पुनरावृत्ति जैसी परिस्थिति लग रही थी जिसे न होने देने के लिए और कुचलने के लिए वो कुछ भी करने के लिए तैयार थे।
आंदोलन के दो नेताओं सत्यपाल और सैफुद्दीन किचलू को गिरफ्तार कर कालापानी की सजा दे दी गई। 10 अप्रैल 1919 को अमृतसर के उप कमिश्नर के घर पर इन दोनों नेताओं को रिहा करने की माँग पेश की गई। परंतु ब्रिटिशों ने शांतिप्रिय और सभ्य तरीके से विरोध प्रकट कर रही जनता पर गोलियाँ चलवा दीं जिससे तनाव बहुत बढ़ गया और उस दिन कई बैंकों, सरकारी भवनों, टाउन हॉल, रेलवे स्टेशन में आगजनी की गई। इस प्रकार हुई हिंसा में 5 यूरोपीय नागरिकों की हत्या हुई। इसके विरोध में ब्रिटिश सिपाही भारतीय जनता पर जहाँ-तहाँ गोलियाँ चलाते रहे जिसमें 8 से 20 भारतीयों की मृत्यु हुई। अगले दो दिनों में अमृतसर तो शाँत रहा पर हिंसा पंजाब के कई क्षेत्रों में फैल गई और 3 अन्य यूरोपीय नागरिकों की हत्या हुई। इसे कुचलने के लिए ब्रिटिशों ने पंजाब के अधिकतर भाग पर मार्शल लॉ लागू कर दिया।
बैसाखी के दिन 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर के जलियांवाला बाग में एक सभा रखी गई, जिसमें कुछ नेता भाषण देने वाले थे। शहर में कर्फ्यू लगा हुआ था, फिर भी इसमें सैंकड़ों लोग ऐसे भी थे, जो बैसाखी के मौके पर परिवार के साथ मेला देखने और शहर घूमने आए थे और सभा की खबर सुन कर वहां जा पहुंचे थे। जब नेता बाग में पड़ी रोड़ियों के ढेर पर खड़े हो कर भाषण दे रहे थे, तभी ब्रिगेडियर जनरल रेजीनॉल्ड डायर 90 ब्रिटिश सैनिकों को लेकर वहां पहुँच गया। उन सब के हाथों में भरी हुई राइफलें थीं। नेताओं ने सैनिकों को देखा, तो उन्होंने वहां मौजूद लोगों से शांत बैठे रहने के लिए कहा।

सैनिकों ने बाग को घेर कर बिना कोई चेतावनी दिए निहत्थे लोगों पर गोलियाँ चलानी शुरु कर दीं। १० मिनट में कुल 1650 राउंड गोलियां चलाई गईं। जलियांवाला बाग उस समय मकानों के पीछे पड़ा एक खाली मैदान था। वहाँ तक जाने या बाहर निकलने के लिए केवल एक संकरा रास्ता था और चारों ओर मकान थे। भागने का कोई रास्ता नहीं था। कुछ लोग जान बचाने के लिए मैदान में मौजूद एकमात्र कुएं में कूद गए, पर देखते ही देखते वह कुआं भी लाशों से पट गया। जलियांवाला बाग कभी जलली नामक आदमी की संपत्ति थी।
बाग में लगी पट्टिका पर लिखा है कि १२० शव तो सिर्फ कुए से ही मिले। शहर में कघ्र्फ्यू लगा था जिससे घायलों को इलाज के लिए भी कहीं ले जाया नहीं जा सका। लोगों ने तड़प-तड़प कर वहीं दम तोड़ दिया। अमृतसर के डिप्टी कमिश्नर कार्यालय में 484 शहीदों की सूची है, जबकि जलियांवाला बाग में कुल 388 शहीदों की सूची है। ब्रिटिश राज के अभिलेख इस घटना में 200 लोगों के घायल होने और 379 लोगों के शहीद होने की बात स्वीकार करते है जिनमें से 337 पुरुष, 41 नाबालिग लड़के और एक 6-सप्ताह का बच्चा था। अनाधिकारिक आँकड़ों के अनुसार 1000 से अधिक लोग मारे गए और 2000 से अधिक घायल हुए। आधिकारिक रूप से मरने वालों की संख्या ३७९ बताई गई जबकि पंडित मदन मोहन मालवीय के अनुसार कम से कम १३०० लोग मारे गए। स्वामी श्रद्धानंद के अनुसार मरने वालों की संख्या १५०० से अधिक थी जबकि अमृतसर के तत्कालीन सिविल सर्जन डॉक्टर स्मिथ के अनुसार मरने वालों की संख्या १८०० से अधिक थी।
मुख्यालय वापस पहुँच कर ब्रिगेडियर जनरल रेजीनॉल्ड डायर ने अपने वरिष्ठ अधिकारियों को टेलीग्राम किया कि उस पर भारतीयों की एक फौज ने हमला किया था जिससे बचने के लिए उसको गोलियाँ चलानी पड़ी। ब्रिटिश लेफ्टिनेण्ट गवर्नर मायकल ओ डायर ने इसके उत्तर में ब्रिगेडियर जनरल रेजीनॉल्ड डायर को टेलीग्राम किया कि तुमने सही कदम उठाया। मैं तुम्हारे निर्णय को अनुमोदित करता हूँ। फिर ब्रिटिश लेफ्टिनेण्ट गवर्नर मायकल ओ डायर ने अमृतसर और अन्य क्षेत्रों में मार्शल लॉ लगाने की माँग की जिसे वायसरॉय लॉर्ड चेम्सफोर्ड नें स्वीकृत कर दिया।
इस हत्याकाण्ड की विश्वव्यापी निंदा हुई जिसके दबाव में भारत के लिए सेक्रेटरी ऑफ स्टेट एडविन मॉण्टेगू ने 1919 के अंत में इसकी जाँच के लिए हंटर कमीशन नियुक्त किया। कमीशन के सामने ब्रिगेडियर जनरल रेजीनॉल्ड डायर ने स्वीकार किया कि वह गोली चला कर लोगों को मार देने का निर्णय पहले से ही ले कर वहाँ गया था और वह उन लोगों पर चलाने के लिए दो तोपें भी ले गया था जो कि उस संकरे रास्ते से नहीं जा पाई थीं। हंटर कमीशन की रिपोर्ट आने पर 1920 में ब्रिगेडियर जनरल रेजीनॉल्ड डायर को पदावनत कर के कर्नल बना दिया गया और अक्रिय सूचि में रख दिया गया। उसे भारत में पोस्ट न देने का निर्णय लिया गया और उसे स्वास्थ्य कारणों से ब्रिटेन वापस भेज दिया गया। हाउस ऑफ कॉमन्स ने उसका निंदा प्रस्ताव पारित किया परंतु हाउस ऑफ लॉर्ड ने इस हत्याकाण्ड की प्रशंसा करते हुये उसका प्रशस्ति प्रस्ताव पारित किया। विश्वव्यापी निंदा के दबाव में बाद को ब्रिटिश सरकार ने उसका निंदा प्रस्ताव पारित किया और 1920 में ब्रिगेडियर जनरल रेजीनॉल्ड डायर को इस्तीफा देना पड़ा। 1927 में प्राकृतिक कारणों से उसकी मृत्यु हुई।(उधमसिंह नगर पहले नैनीताल जिले में था। लेकिन अक्टूबर 1995 में इसे अलग जिला बना दिया गया। इस जिले का नाम स्वर्गीय उधम सिंह के नाम पर रखा गया है। उधम सिंह स्वतंत्रता सेनानी थे। जलियांवाला बाग हत्याकांड होने के पश्चात् इन्होंने ही जनरल डायर की हत्या की थी।)
गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर ने इस हत्याकाण्ड के विरोध-स्वरूप अपनी नाइटहुड को वापस कर दिया। आजादी के लिए लोगों का हौसला ऐसी भयावह घटना के बाद भी पस्त नहीं हुआ। बल्कि सच तो यह है कि इस घटना के बाद आजादी हासिल करने की चाहत लोगों में और जोर से उफान मारने लगी। हालांकि उन दिनों संचार और आपसी संवाद के वर्तमान साधनों की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी, फिर भी यह खबर पूरे देश में आग की तरह फैल गई। आजादी की चाह न केवल पंजाब, बल्कि पूरे देश के बच्चे-बच्चे के सिर चढ़ कर बोलने लगी। उस दौर के हजारों भारतीयों ने जलियांवाला बाग की मिट्टी को माथे से लगाकर देश को आजाद कराने का दृढ़ संकल्प लिया। पंजाब तब तक मुख्य भारत से कुछ अलग चला करता था परंतु इस घटना से पंजाब पूरी तरह से भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में सम्मिलित हो गया। इसके फलस्वरूप गांधी ने 1920 में असहयोग आंदोलन प्रारंभ किया।
जब जलियांवाला बाग में यह हत्याकांड हो रहा था, उस समय उधमसिंह वहीं मौजूद थे और उन्हें भी गोली लगी थी। उन्होंने तय किया कि वह इसका बदला लेंगे। 13 मार्च 1940 को उन्होंने लंदन के कैक्सटन हॉल में इस घटना के समय ब्रिटिश लेफ्टिनेण्ट गवर्नर माइकल ओ ड्वायर को गोली चला के मार डाला।  ऊधमसिंह को 31 जुलाई 1940 को फाँसी पर चढ़ा दिया गया। गांधी और जवाहरलाल नेहरू ने ऊधमसिंह द्वारा की गई इस हत्या की निंदा करी थी।
इस हत्याकांड ने तब 12 वर्ष की उम्र के भगत सिंह की सोच पर गहरा प्रभाव डाला था। इसकी सूचना मिलते ही भगत सिंह अपने स्कूल से १२ मील पैदल चलकर जालियावाला बाग पहुंच गए थे।
१०२० में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा एक प्रस्ताव पारित होने के बाद साइट पर एक स्मारक बनाने के लिए एक ट्रस्ट की स्थापना की गई थी। १९२३ में ट्रस्ट ने स्मारक परियोजना के लिए भूमि खरीदी थी। अमेरिकी वास्तुकार बेंजामिन पोल्क द्वारा डिजाइन किया गया एक स्मारक, साइट पर बनाया गया था और 13 अप्रैल १९६१ को जवाहरलाल नेहरू और अन्य नेताओं की उपस्थिति में भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने इसका उद्घाटन किया था।
आज भी दीवारों और आस-पास की इमारतों में गोलियों के निशान साफ दिखायी देते है। जिस कुएं में कई लोग कूद गए और गोलियों से खुद को बचाने की कोशिश कर रहे थे, वह पार्क के अंदर एक संरक्षित स्मारक के रूप में है।

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