–कांग्रेसी सरकार ने 10 साल के कार्यकाल में युद्ध विमान आपूर्ति न करके देश की सुरक्षा से खिलवाड़ किया ।
-भाजपा की मोदी सरकार ने राफेल सौदा करके सही कार्य किया पर देश में राफेल विमान निर्माण की तकनीकी का अनुबंध न करके एक बड़ी भूल की।इससे भारत की अब तक रही रक्षा सौदों की आत्मनिर्भर बनने के मिशन को आघात लगा।
– देवसिंह रावत
जैसे जैसे 2019 में होने वाला लोकसभा के आम चुनाव का समय नजदीक आ रहा है वेसे वेसे भारत की राजनीति में राफेल युद्धक विमान सौदा सत्तारूढ़ भाजपा की मोदी सरकार व कांग्रेस सहित पूरे विपक्ष के बीच सियासी जंग का मुख्य मुद्दा बनता जा रहा है। कांग्रेस सहित विपक्ष जहां इस सौदे में कीमतों पर सवालिया निशान लगाते हुए इसे बडा भ्रष्टाचारी सौदा बताते हुए इसकी जांच संयुक्त संसदीय समिति से कराने की पुरजोर मांग कर रही है। इस प्रकरण पर विपक्ष जहां सडक से संसद तक मोदी सरकार पर जम कर प्रहार कर रहा है। वहीं प्रधानमंत्री मोदी सहित भाजपा का पूरा राजग गठबंधन कांग्रेस सहित विपक्ष पर देश को युद्धक विमानों से वंचित करके देश की सुरक्षा से खिलवाड करने का आरोप लगा रहे है। भले ही इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय से सरकार को पाक साफ का प्रमाण मिल चूका है। पर इसके बाबजूद कांग्रेस प्रमुख राहुल गांधी इस मामले को प्रमुखता से उठा कर न केवल इसमें बडे भ्रष्टाचार का आरोप लगा रहे हैं अपितु वे इस सौंदे में सीधे सीधे प्रधानमंत्री को चोर कहने का दुशाहस भी कर रहे है। यहीं नहीं वह आरोप लगा रहे हैं कि प्रधानमंत्री ने इस सौंदे में भारत की दशकों पुरानी विमान बनाने वाली एचएएल कम्पनी को दर किनारे करके अनुभवहीन व कर्ज में डूबे अनिल अम्बानी की कम्पनी को सौदे से जोड़ कर देश की सुरक्षा के साथ खिलवाड किया।
इस आरोप प्रत्यारोपों के चलते देश का आम जनमानस को समझ में नहीं आ रहा है कि सच्चाई क्या है? इसी पर प्रकाश डालने के लिए हम इस पर प्रकाश डालते हैं।
यह सर्वविदित है कि लम्बे समय से पाक व चीन जैसे शत्रु राष्ट्रों से घिरे भारत की सुरक्षा के लिए अत्याधुनिक युद्धक विमान की नितांत जरूरत थी। परन्तु सरकारें इस जरूरत को पूरा करने मेें दो दशक तक सफल नहीं रही। इससे देश की सुरक्षा पर सरकारों की संवेदनहीनता के कारण खतरे में पड़ गयी थी। ंइसी खतरे को भांप कर मोदी सरकार ने सत्तासीन होने के एक साल के अंदर ही विश्व के सर्वश्रेष्ठ समझे जाने वाले राफेल विमानों का सराहनीय निर्णय लिया जिसको उनकी पूर्ववर्ती कांग्रेस गठबंधन वाली सप्रंग की मनमोहनी सरकार 2007 से 2014 तक नहीं कर पायी। सबसे हैरानी की बात यह है कि क्यों सरकारों ने दो दशक तक वायुसेना की नितांत जरूरत वाले अत्याधुनिक युद्धक विमानों से वंचित करने की राष्ट्रघाती व अक्ष्मय लापरवाही की।
जैसे ही 10 अप्रैल, 2015 को भारत के प्रधानमंत्री मोदी व फ्रांस के राष्ट्रपति फ्रांसवा ओलांद के बीच फ्रांस की डसाॅल्ट एविएशन कम्पनी द्वारा निर्मित विश्व का सबसे श्रेष्ठ व अत्याधुनिक तकनीकी वाले दोहरे इंजन वाले 36 राफेल लडाकू विमान खरीदने का समझोता हुआ। वेसे ही भारत में कांग्रेस सहित पूरे विपक्ष ने इस सौदे पर ही विवाद खडा कर दिया।
विपक्ष ने सवाल उठाया कि प्रधानमंत्री ने सुरक्षा मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति की मंजूरी के बिना कैसे इस सौदे को अंतिम रूप दिया। हालांकि विवादों के बादलों में घिरे 7.87 अरब यूरो (लगभग 5 9, 000 करोड़ रुपये) के 36 राफेल विमान सौदे को मूर्त रूप 23 सितंबर, 2016 को हस्ताक्षर कर दिये गये। समझोते के अनुसार इन विमानों की आपूर्ति सितंबर 2019 से शुरू होगी।
इस प्रकरण पर विवाद को बल तब मिला जब फ्रांसीसी वेबसाइट ‘मीडियापार्ट’ में प्रकाशित एक साक्षात्कार में फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति फ्रांसुआ ओलांद का हवाला देते हुए कहा गया है कि राफेल सौदे के लिए भारत की तरफ से ही रिलायंस के नाम का प्रस्ताव किया गया था और विमान निर्माता डसॉल्ट एविएशन के पास रिलायंस के अलावा कोई विकल्प नहीं था। ओलांद ने कहा कि भारत सरकार ने डसॉल्ट के साथ आॅफसेट समझौते के लिए अनिल अंबानी की कंपनी रिलांयस डिफेंस इंडस्ट्रीज के नाम का प्रस्ताव किया था और उनकी सरकार के पास कोई दूसरा विकल्प नहीं था।
फ्रांस सरकार के प्रवक्ता ने बयान जारी कर कहा,“फ्रांस की सरकार भारतीय औद्योगिक भागीदारों के चुनाव में शामिल नहीं है, जिन्हें फ्रांसीसी कंपनियों द्वारा चुना जा रहा है या फिर चुना जाएगा।
इस विवाद में प्रश्न उठाने वाली कांग्रेस पर ही सबसे बडा आरोप यह है कि उसने मनमोहन की कांग्रेसी सरकार ( 2007 से 2014 तक) में ये विमान नहीं खरीद कर देश की सुरक्षा से खिलवाड क्यों किया।
इसे समझने के लिए इस सौदे के प्रारम्भिक काल पर एक नजर डालते है। भारत ने 2007 में 126 मीडियम मल्टी रोल कॉम्बैट एयरक्राफ्ट (एमएमआरसीए) को कांग्रेस की मनमोहनी सरकार ने खरीदने की प्रक्रिया शुरू की थी। तब मनमोहनी सरकार के तत्कालीन रक्षा मंत्री एके एंटनी ने भारतीय वायु सेना से प्रस्ताव को हरी झंडी दी थी। इस बड़े सौदे के दावेदारों में लॉकहीड मार्टिन के एफ-16, यूरोफाइटर टाइफून, रूस के मिग-35, स्वीडन के ग्रिपेन, बोइंग का एफए-18 एस और डसॉल्ट एविएशन का राफेल शामिल था।
31 जनवरी 2012 को, भारतीय रक्षा मंत्रालय ने घोषणा की कि डसॉल्ट राफेल भारतीय वायु सेना को 126 एयरक्राफ्ट की आपूर्ति करेगा इसके अथवा ६३ अतिरिक्त विमानों खरीदने का विकल्प देगा। पहले 18 विमानों को डसॉल्ट राफेल द्वारा आपूर्ति की जानी थी और शेष 108 विमानों का निर्माण हिन्दुस्तान ऐरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) द्वारा किया जाना था डेसॉल्ट से प्रौद्योगिकी के हस्तांतरण के साथ। डसॉल्ट राफेल को सबसे कम बोली लगाने वाले के आधार पे में चुना गया था।
लंबी प्रक्रिया के बाद दिसंबर 2012 में बोली लगाई गई। डसॉल्ट एविएशन सबसे कम बोली लगाने वाला निकला। मूल प्रस्ताव में 18 विमान फ्रांस में बनाए जाने थे जबकि 108 हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड के साथ मिलकर तैयार किये जाने थे। सप्रंग की मनमोहनी सरकार और फ्रंास की डसॉल्ट के बीच कीमतों और प्रौद्योगिकी के हस्तांतरण पर लंबी बातचीत हुई थी।
अंतिम वार्ता 2014 की शुरुआत तक जारी रही लेकिन सौदा नहीं हो सका। प्रति राफेल विमान की कीमत का विवरण आधिकारिक तौर पर घोषित नहीं किया गया था, लेकिन तत्कालीन यूपीए सरकार ने संकेत दिया था कि सौदा 10.2 अरब अमेरिकी डॉलर का होगा। कांग्रेस ने प्रत्येक विमान की दर एवियोनिक्स और हथियारों को शामिल करते हुए 526 करोड़ रुपये बताई थी।
इस सौदे पर सबसे बडे सवालिया निशान लगाने वाली कांग्रेस ने आरोप लगाया कि मोदी सरकार राफेल के प्रत्येक विमान 1,670 करोड़ रुपये में खरीद रही है जबकि यूपीए सरकार ने प्रति विमान 526 करोड़ रुपये कीमत तय की थी। पार्टी ने सरकार से जवाब मांगा है कि क्यों सरकारी एयरोस्पेस कंपनी एचएएल को इस सौदे में शामिल नहीं किया गया। कांग्रेस ने विमान की कीमत और कैसे प्रति विमान की कीमत 526 करोड़ रुपये से बढ़ाकर 1,670 करोड़ रुपये की गई, यह भी बताने की मांग की है। सरकार ने भारत और फ्रांस के बीच 2008 समझौते के एक प्रावधान का हवाला देते हुए विवरण साझा करने से इनकार कर दिया है। राफेल सौदे से जनता का तीस हजार करोड़ रुपये का घोटाले की भेंट चढ़ गया. उन्होने कहा कि हमारी(यूपीए) सरकार ने 136 राफेल जहाज खरीदने का सौदा किया था. तय हुआ था कि एक जहाज की कीमत 526 करोड़ होगी और यह विमान हिंदुस्तान एयरोनोटिक्स लिमिटेड (भ्।स्) से बनवाएंगे. मगर सत्ता में आने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वयं सौदे के रेट बदल दिए.526 करोड़ का हवाई जहाज 1600 करोड़ में खरीदा.राहुल गांधी ने सभा में मौजूद जनता से सवाल करते हुए कहा था कि आप पूछोगे कि भईया 526 करोड़ का जहाज 1600 करोड़ में क्यों खरीदा ? इसलिए क्योंकि एचएएल से कांट्रैक्ट छीनकर अनिल अंबानी को दिला दिया.अनिल अंबानी ने अपनी पूरी जिंदगी में कभी हवाई जहाज नहीं बनाया, मगर सरकारी कंपनी एचएएल जो 70 साल से जहाज बना रही थी , उससे अनुबंध छीनकर अंबानी को दे दिया. अनिल अंबानी ने अपनी पूरी जिंदगी में कभी हवाई जहाज नहीं बनाया, मगर सरकारी कंपनी एचएएल जो 70 साल से जहाज बना रही थी , उससे कांट्रैक्ट छीनकर अंबानी को दे दिया.
वहीं भारत सरकार ने कांग्रेस सहित विपक्ष के आरोपों को आक्रमक उतर देते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने संसद में कांग्रेस पर सीधा आरोप लगाया कि कांग्रेस नहीं चाहती है कि देश की सुरक्षा मजबूत हो, उसे राफेल जैसे विश्व के सर्वश्रेष्ठ युद्धक विमानों से युक्त सुरक्षित भारत दिखना पसंद नहीं है। इससे पूर्व भी
दो साल पहले, संसद में एक प्रश्न का उत्तर देते हुए रक्षा राज्य मंत्री ने कहा था कि प्रत्येक राफेल विमान की लागत लगभग 670 करोड़ रुपये है, लेकिन संबंधित उपकरणों, हथियार और सेवाओं की कीमतों का विवरण नहीं दिया। हालांकि बाद में, सरकार ने कीमतों के बारे में बात करने से इनकार संवेदनशील व देशहित को देखते हुए सार्वजनिक नहीं किया जा सकता।
वहीं मोदी सरकार के वित्त मंत्री अरुण जेटली ने भी दो टूक जवाब देते हुए कहा कि एनडीए सरकार द्वारा हस्ताक्षरित सौदा यूपीए सरकार के तहत 2007 में जिस सौदे के लिये सहमति बनी थी उससे बेहतर है।
भले ही भाजपा व कांग्रेस सहित विपक्ष के बीच हो रहे आरोप प्रत्यारोपों में देश का आम जनमानस ही नहीं देश के रक्षा विशेषज्ञ व राजनैतिक दल सबसे अहम सवाल प्रमुखता से उठाना भूल गये वह है मोदी सरकार ने राफेल सौदे में राफेल विमान निर्माण की तकनीकी भारत को हस्तांतरण करने व कुछ राफेल विमानों का भारत में निर्माण करने के लिए एचएएल को अनुबंधित क्यों नहीं किया। भारत सहित सभी प्रमुख देशों की यह कोशिश रहती है कि ऐसे सौदे करते समय उसके निर्माण की तकनीकी को जरूर प्राप्त की जाय। जिससे ऐसे मामलों में देश खुद आत्म निर्भर बन सके। पर नहीं क्यों ंमोदी सरकार ने इसकी उपेक्षा की और किस कारण अनिल अंबानी को इस सौदे में सम्मलित किया गया।