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डराती है उच्चतम न्यायालय के अनुसूचित जाति जनजाति कानून पर फैसले के विरुद्ध भारत बंद और हिंसा

 

अवधेश कुमार

उच्चतम न्यायालय द्वारा अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम-1989 में संशोधन के विरुद्ध भारत बंद में जिस तरह की भयानक हिंसा हुई वह आतंकित करने वाला है। आंदोलन का मतलब है आप लोगों से अनुरोध करें कि वे आपके साथ आएं। यह फैसला उनको करने दीजिए वे आपके साथ आते हैं या नहीं। भारत बंद के दौरान ज्यादातर जगहों पर देखा गया कि लोग हिंसा के उन्माद से भरे हुए हैं। कहीं आगजनी हो रही थी तो कहीं तोड़फोड़ और कुछ तस्वीरें तो गोलियां चलाने की भी आई। ग्वालियर में बंद समर्थक बाजाब्ता बंदूक और रिवॉल्वर लेकर बंद कराने निकले थे। बसों पर कई हमले ऐसे थे मानो उसमें चलने वाले इनके दुश्मन हो। भयभीत लोग अपनी जान बचाकर भागते दिखे। बसपा प्रमुख मायावती कह रहीं हैं कि हिंसा करने वाले असामाजिक तत्व थे जो दलितों और आदिवासियों को बदनाम करना चाहते थे। एकाध जगह छोड़कर बंद कहीं भी शांतिपूर्ण नहीं था। तो क्या बंद के लिए निकली ंिहंसा करती इतनी भारी संख्या केवल असामाजिक तत्वों की ही थी? ऐसा मान लिया जाए तो इस बंद को ही असामाजिक तत्वों का बंद मानना होगा। वास्तव में ऐसे आंदोलनों के दौरान समूह में कुछ असामाजिक तत्व शामिल रहते हैं, लेकिन इस भारत बंद के दौरान तो पूरे समूह पर ही हिंसक पागलपन सवार था। इनसे पूछा जाना चाहिए कि जितनी संपत्ति का नुकसान हुआ, जो लोग मारे गए उनके लिए कौन दोषी है? जिन संगठनांे और राजनीतिक दलों ने बंद बुलाया था या इस बंद का समर्थन किया था पूरी जिम्मेवारी उनके ही सिर आएगी। त्रासदी देखिए कि इन संगठनों और राजनीतिक दलों का कोई नेता अफसोस तक प्रकट करने के लिए तैयार नहीं है। इसे क्या कहा जाए? राहुल गांधी ने ट्वीट में कहा कि हजारों दलित भाई-बहन आज सड़कों पर उतरकर मोदी सरकार से अपने अधिकारों की रक्षा की मांग कर रहे हैं। हम उनको सलाम करते हैं। क्या कांग्रेस हिंसा को भी सलाम करती है? निस्संदेह, यह उन राज्य सरकारों की भी विफलता है जिन्होंने संभावी हिंसा का आकलन कर उसे रोकने के पूर्वोपाय नहीं किए। किंतु इससे इनका दोष कम नहीं हो जाता।

इसी से यह संदेह पैदा होता है कि दलितों के नाम पर आयोजित इस बंद के पीछे राजनीतिक उद्देश्य निहित था। आप देखिए, ज्यादा हिंसा वहीं हुई जहां भाजपा की सरकारें हैं। पंजाब में सबसे ज्यादा 32 प्रतिशत दलित हैं लेकिन वहां कोई हिंसा नहीं हुई। इसका कारण क्या हो सकता है? कई जगह बंद करने वालों को यह भी पता नहीं था कि वो क्यों इसमें शामिल हो रहे हैं। यानी बंद का मुद्दा क्या है? साफ है कि कुछ शक्तियों ने बंद के पहले अंदर ही अंदर वातावरण काफी विषाक्त कर दिया था। ऐसे लोगों की तलाश की जानी चाहिए। कानून के राज में आंदोलन के नाम पर इस तरह की बर्बर हिंसा को सहन नहीं किया जा सकता। वैसे गहराई से विचार करें तो इस भारत का बंद का ठोस औचित्य दिखाई नहीं देगा। अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम-1989 के संदर्भ में फैसला उच्चतम न्यायालय ने दिया था। न्यायालय के खिलाफ यदि लोग सड़कों पर उतर कर इस तरह हिंसा से परिपूर्ण भारत बंद आयोजित करने लगे तो फिर देश का क्या होगा। न्यायालय की एक प्रक्रिया है। यदि आपको फैसले पर आपत्ति है आप उसका दरवाजा खटखटाइए, अपना पूरा पक्ष रखिए। पक्ष रखते हुए यह भी अवश्य सोचिए कि न्यायालय जो कुछ कह रहा है वह वास्तव में सच है या नहीं। किसी सूरत में न्यायालय के फैसलों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन नहीं होना चाहिए। यह भविष्य की दृष्टि से अच्छा संकेत नहीं है।

पिछले 20 मार्च को उच्चतम न्यायालय का फैसला आने के साथ उसके बारे में दुष्प्रचार आरंभ हो गया था। कई लोग तो यह कहते सुने गए कि दलितों के हक का जो कानून था उसे उच्चतम न्यायालय ने खत्म कर दिया है। न्यायालय ने अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम-1989 पर कोई प्रश्न नहीं उठाया। केवल यह सुनिश्चित करने की कोशिश की है कि इसका दुरुपयोग नहीं हो। उच्चतम न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि कोई शिकायत आने के साथ ही आरोपी को तत्काल गिरफ्तार नहीं किया जाएगा। इसके पूर्व डीएसपी स्तर के अधिकारी उसकी जांच कर सात दिनों के अंदर रिपोर्ट देंगे और उसके आधार पर प्राथमिकी दर्ज होगी एवं गिरफ्तारी भी। हां, गिरफ्तारी के लिए एसएसपी का आदेश आवश्यक होगा। सरकारी अधिकारी की गिरफ्तारी नियुक्ति प्राधिकारी की मंजूरी के बिना नहीं की जा सकती है। गैरसरकारी कर्मी की गिरफ्तारी के लिए एसएसपी की मंजूरी जरूरी होगी। ऐसी अनुमतियों के लिए कारण दर्ज किए जाएंगे जिसे गिरफ्तार व्यक्ति के साथ संबंधित अदालत में पेश किया जाना चाहिए। मजिस्ट्रेट को दर्ज कारणों पर अपना दिमाग लगाना चाहिए और आगे आरोपी को तभी हिरासत में रखा जाना चाहिए जब गिरफ्तारी के कारण वाजिब हो। यदि इन निर्देशों का उल्लंघन किया गया तो ये अनुशासानात्मक कार्रवाई के साथ साथ अवमानना कार्रवाई के तहत होगी। इसके सरकारी कर्मियों के लिए अग्रिम जमानत का प्रावधान कर दिया गया है जो पहले नहीं था।

सबलोग इस फैसले से सहमत हों आवश्यक नही। उच्चतम न्यायालय ने अपने फैसले का आधार मुख्यतः इस कानून के व्यापक दुरुपयोग को बनाया है। उसने फैसले में कहा है कि  संसद ने कानून बनाते वक्त ये नहीं सोचा था कि इसका दुरुपयोग किया जाएगा। न्यायालय ने बहस के दौरान कुछ सवाल उठाए थे। क्या इस अधिनियम के लिए प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपाय किए जा सकते हैं ताकि बाहरी तरीकों का इस्तेमाल ना हो? क्या किसी भी एकतरफा आरोप के कारण आधिकारिक क्षमता में अधिकारियों पर मुकदमा चलाया जा सकता है और यदि इस तरह के आरोपों को झूठा माना जाए तो ऐसे दुरुपयोगों के खिलाफ क्या सुरक्षा उपलब्ध है? क्या अग्रिम जमानत न होने की वर्तमान प्रक्रिया संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत उचित प्रक्रिया है? तो ये सारे प्रश्न भी फैसले के आधार हैं। लेकिन दुरुपयोग पर न्यायालय ने सबसे ज्यादा फोकस किया है। डीएसपी से आरंभिक जांच के तर्क में न्यायालय कहता है कि दुरुपयोग को रोकने के लिए यह जरूरी है। इससे पता चल सकेगा कि आरोप सही हैं या फिर किसी तरह का बदला लेने या किसी के उकसावे में ऐसा किया गया है। यदि किसी कानून का बेगुनाह लोगों को आपराधिक मामलों में फंसाने के लिए दुरुपयोग होता है तो अदालत मूकदर्शक नहीं रह सकती। जो मुकदमा न्यायालय के समक्ष आया था उसमें भी यही साबित हुआ। राष्ट्रीय अपराध रिेेकॉर्ड ब्यूरो द्वारा दिए गए आंकड़ों को देखें तो साफ हो जाएगा कि भारी संख्या में इस अधिनियम के तहत झूठे मामले दर्ज किए गए। उच्चतम न्यायालय ने अपने फैसले में ऐसे कुछ मामलों को शामिल किया है। मसलन, 2016 में जांच में अनुसूचित जाति को प्रताड़ित किए जाने के 5347 मामले झूठे पाए गए, जबकि अनुसूचित जनजाति के कुल 912 मामले झूठे पाए गए। वर्ष 2015 में इस अधिनियम के तहत न्यायालयों द्वारा कुल 15, 638 मुकदमों का निपटारा हुआ। इसमें से 11024 मामलों में आरोपी बरी हुए। इसका अर्थ साफ है। यही नहीं 495 मुकदमे वापस भी लिए गए। केवल 4119 मामलों में ही सजा हुई।

कोई विवेकशील व्यक्ति नहीं चाहेगा कि दलितों का किसी तरह उत्पीड़न हो उनके खिलाफ जातिगत अपराध किया जाए। जो ऐसा करते हैं उनको कड़ी सजा मिलनी ही चाहिए। किंतु एक समय गुजरने के बाद ऐसे कानूनों की समीक्षा आवश्यक है। इस कानून के दुरुपयोग को जगह-जगह देखा जा सकता है। इसलिए कानून तो बना रहे, लेकिन इसका दुरुपयोग रोकने के उपाय इसमें किया जाए यह समय की मांग है। हालांकि  केन्द्र सरकार ने पुनर्विचार याचिका में तर्क दिया है कि  फैसले से इस कानून के प्रावधान कमजोर हो जाएंगे। इससे लोगों में कानून का भय खत्म होगा और इस मामले में और ज्यादा कानून का उल्लंघन हो सकता है। तो देखते हैं न्यायालय अपने फैसले में संशोधन करता है या नहीं। किंतु इसके विरोध के नाम पर जो कुछ हुआ वह हर दृष्टि से निंदनीय है। यह बात भी समझ से परे है कि केन्द्र सरकार द्वारा घोषित करने के बावजूद कि वह पुनर्विचार याचिका दाखिल करेगी भारत बंद को कायम क्यों रखा गया? जाहिर है, इसके पीछे गंदी राजनीति के सिवा कुछ नहीं हो सकता।

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