सरकारों के विकास करने के दावों की राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने निकाली हवा
पलायन की समस्या का एकमात्र समाधान है राजधानी गैरसैंण
गैरसैंण के बजाय देहरादून में कुण्डली मार के बेठे हुक्मरानों की लखनवी सोच ने बर्बाद किया प्रदेश
देहरादून, (प्याउ)। 15 जून को जहां उत्तराखण्ड की सरकार, प्रदेश के सबसे अधिक गांवों तक बिजली पंहुचाने में देश में प्रथम स्थान अर्जित करने का डंका पीट कर खुद अपनी पीठ थपथपा रही थी, वहीं दूसरी तरफ राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, ने राज्य गठन के 17 सालों की तमाम सरकारों के विकास के तमाम दावों को बेनकाब करते हुए के पर्वतीय जनपदों में शिक्षा व स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधायें प्रदान न कराने के लिए कडी फटकार लगायी। आयोग ने दो टूक षब्दों में कहा कि इन बुनियादी सुविधाओं को लोगों को उपलब्ध कराने में सरकारें जब असफल रही तो लोग बेहतर सुविधाओं की खोज में अपना घर व गांव छोड़ने के लिए मजबूर हुए।
देहरादून में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की दो दिवसीय समारोह में आयोग के सदस्य न्यायमूर्ति पीसी घोष, ज्योति कालरा व डी. मुरुगेशन ने प्रदेश के अधिकारियों के साथ बैठक कर, प्रदेश के पर्वतीय जनपदों से 17 सालों में 16793 गांवों में से लगभग 3 हजार गांवों के गांव पलायन कर गये हैं। प्रदेश के करीब 250000 से अधिक घरों में ताले लगे हुए है। सबसे अधिक पलायन अल्मोड़ा जनपद में 36000 से अधिक घरों में ताले लटके हैं। वहीं दूसरे नम्बर पर पौड़ी जनपद में करीब 35 हजार से अधिक घरों पर भी ताले लटके हुए है। टिहरी में 33 हजार व पिथौरागढ़ में 22 हजार से अधिक घरों में ताले लगे है।
मानवाधिकार आयोग ने प्रदेश के अपर मुख्य सचिव रणवीर सिंह सहित अनैक वरिष्ठ अधिकारियों की उपस्थिति में उत्तराखण्ड के पूरे शासन तंत्र पर सवालिया निशान लगाते हुए अफसोस प्रकट किया कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने कहा कि पहले भी कई बार लोगों को बुनियादी सुविधायें प्रदान करने का साफ निर्देश देने के साथ इस पर की गयी कार्यवाही के बारे में आयोग को सूचित करने का भी निर्देष दिया था। परन्तु प्रदेश शासन ने इस पर कतई ध्यान नहीं दिया। इसी के फलस्वरूप प्रदेश में राज्य गठन के बाद पर्वतीय जनपदों में शिक्षा, स्वास्थ्य आदि बुनियादी सुविधाओं को उपलब्ध कराने में विफल रहने के कारण पर्वतीय जनपदों से भीषण पलायन हो रहा है। आयोग ने इस बात पर हैरानी प्रकट की कि यहां के ग्रामीण ही नहीं जिला अस्पतालों में चिकित्सक व सहायक कर्मचारियों के साथ दवाईयों की भी भारी कमी है। सरकारी अस्पतालों में कहीं जांच मशीने नहीं है तो कहीं दवाई व प्रशिक्षित कर्मचारी नहीं है। इसके अभाव में ग्रामीणों को देहरादून, दिल्ली, चण्डीगढ़ आदि सेकडों किमी दूर चिकित्सालयों में दर दर की ठोकरें खाने के लिए विवश होना पड़ता है। हालांकि प्रशासन ने राश्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को आश्वासन दिया कि शासन इस दिशा में ठोस कार्य करेगी।
भले ही राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग इस समस्या का समाधान नहीं बता पाया हो परन्तु प्रदेश की जनता व राज्य गठन आंदोलनकारियों ने राज्य गठन से पहले इस समस्या का समाधान खोज लिया था। प्रदेश गठन के ध्वजवाहकों को मालूम था कि जब तक उत्तराखण्ड जैसे पर्वतीय प्रदेश की राजधानी गैरसैंण में नहीं होगी तब तक देहरादून जैेसे शहर में रह कर प्रदेश के नेताओं व नौकरशाहों की सोच भी लखनऊ सी होगी। इसी कारण प्रदेश के हुक्मरानों ने देहरादून में लखनऊ सी सोच के कारण पर्वतीय क्षेत्रों की लखनवी सोच के हुक्मरानों से अधिक शर्मनाक उपेक्षा की। इसी कारण प्रदेष के पर्वतीय जनपदों से राज्य गठ न के बाद पर्वतीय क्षेत्रों में शिक्षा, चिकित्सा व शासन का निरंतर लोप होता रहा। पूरा तंत्र देहरादून व उसके आसपास के जनपदों में कुण्डली मार के बेठ गये। जिससे पर्वतीय जनपदों से लोगों कोे बुनियादी सुविधाओं के अभाव में पलायन करने के लिए मजबूर होना पड़ा।