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श्रीनगर उप चुनाव में हिंसा और न के बराबर मतदान भयभीत करने वाला

 

वरिष्ठ पत्रकार अवधेश कुमार

श्रीनगर लोकसभा उपचुनाव मंें हुई भयावह हिंसा और कम मतदान ने 1990 के दशक की भयावह यादें ताजा कर दीं। आतंकवाद तब उभार पर था। आतंकवादी अनेक मतदान केन्द्रों पर यह पर्ची चिपकाने में सफल हो जाते थे कि जिसको जान प्यारी न हो वो मतदान करने आए। फिर भय से लोग मतदान करने नहीं निकलते थे। आतंकवादी एवं अलगाववादी इस बार उस तरह पर्ची तो नहीं लगा पाए थे लेकिन मतदान को न होने देने के लिए जितना संभव था उन्होंने किया और परिणाम सामने है। सारे उप चुनावों में श्रीनगर में सबसे कम केवल 7.14 प्रतिशत वोट पड़े। जो खबरें हैं उनके अनुसार कई स्थानों पर सुरक्षा बलों से सीधी भीड़ंत की स्थिति थी जिसमें करीब 100 जवान घायल हुए तथा इनकी गोली से नौ उपद्रवियों की मौत हो गई। यह असह्य स्थिति है। हाल के वर्षों में चुनावी हिंसा में व्यापक पैमाने पर कमी आई है। बल्कि यह कहना सच होगा कि चुनाव हिंसा अब बीते दिनों की बातें हो गईं थीं। कश्मीर में भी पिछले दो दशकों से चुनाव हो रहे हैं। आतंकवादी उसमें बाधा डालने की कोशिश करते थे, पर सफल नहीं हो पाते थे। पिछले विधानसभा चुनाव में ही आतंकवादियों की सारी कोशिशें नाकाम हुईं एवं भारी संख्या में लोगों ने मतदान किया। जहां मतदान का बहिष्कार होता था त्राल क्षेत्र में वहां भी 20 प्रतिशत से उपर मतदान हो गया। स्थानीय पंचायतों के चुनावों में भी लोगों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। रिकॉर्ड मतदान हुए। पिछले लोकसभा चुनाव में भी ठीकठाक मतदान हुए। इस श्रीनगर में भी तमाम विरोधों, बहिष्कार के आह्वानों तथा आतंकवादी हमले के भय के बावजूद 26 प्रतिशत मतदान हो ही गया था। 2009 में भी 25.5 प्रतिशत मतदान हुआ था।

यह तो हम मानते हैं कि यह क्षेत्र कश्मीर के अत्यधिक उपद्रवग्रस्त क्षेत्र है। 1999 में भी यहां 11.93 प्रतिशत ही मतदान हुआ था जिसमें उमर अब्दुल्ला ने मेहबूबा मुुफ्ती को पराजित किया था। उसके बाद वे केन्द्र में अटलबिहारी वाजपेयी सरकार में मंत्री बने थे। लेकिन 1999 वह समय था जब वाजपेयी कश्मीर को शांत करने की कोशिश कर रहे थे। उसमें उन्हें जितनी भी सफलता मिली उसका लाभ उठाकर कश्मीर में 2002 का विधानसभा चुनाव कराया गया। उसमें भी 43.70 प्रतिशत मतदान हुआ था। 2008 में तो 61.16 प्रतिशत मतदान हुआ। 2014 के विधानसभा चुनाव में 65.52 प्रतिशत मतदान हुआ। तो देश के साथ कश्मीर भी मतदान का रिकॉर्ड बनाने लगा था। इससे ऐसा लगने लगा था कि जम्मू कश्मीर भी देश में चुनाव की मुख्य धारा से जुड़ रहा है। 2014 के लोकसभा चुनाव में भी 49.72 प्रतिशत मतदान हुआ था। यह राष्ट्रीय औसत से कम था लेकिन ऐसा नहीं था जिससे यह कहा जाए कि लोगों की मतदान में अभिरुचि नहीं थी। 2014 भी आतंकवाद के फिर से व्यापक होने का दौर था और उसमें मतदान संपन्न हुआ था। इस तरह पिछले डेढ़ दशकों के आंकड़ों को देखें और उस दौरान चुनाव की स्थितियों को याद करें तो वर्तमान उपचुनाव का हालात डरावना लगेगा। पाकिस्तान को मौका मिल गया है और उसने आलोचना आरंभ कर दिया है।

बेशक, यह चुनाव आयोग के लिए तो चिंता का विषय होना ही चाहिए। आखिर उसकी पूरी व्यवस्था ध्वस्त कैसे हो गई? उसके लिए इस प्रश्न का उत्तर तलाशना भी जरुरी हो गया है कि आखिर देश की जिन चुनावी प्रवृत्तियों के साथ जम्मू कश्मीर जुड़ रहा था वह अचानक विलग कैसे हो गया? किंतु यह अकेले चुनाव आयोग की चिंता से हल होेन वाला मसला नहीं है, देश के लिए भी आत्मचिंतन का विषय है। जो खबर है उसके अनुसार हिंसक प्रदर्शन के कारण बडगाम जिले में तकरीबन 70 प्रतिशत मतदान केंद्रों को मतदानकर्मियों ने छोड़ दिया। जब मतदानकर्मी ही मतदान केन्द्र पर नहीं होंगे तो मतदान होंगे कैसे। यह स्थिति दूसरे क्षेत्रों की भी रही होगी। कल्पना करिए, मतदानकर्मियों को किन स्थितियों में मतदान केन्द्र छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा होगा! उपद्रव इतना बढ़ गया कि भीड़ को काबू करने के लिए सुरक्षा बलों की मदद के लिए सेना को बुलाया गया। भीड़ मतदान केंद्रों पर पथराव कर रही थी और सुरक्षा बलों को उनसे मुकाबला करना पड़ रहा था। कहीं-कहीं भीड़ मतदान केन्द्र पर सीधे हमला करके तोड़फोड़ कर रही थी। मतदान केन्द्रों की इमारतों को भी ध्वस्त किया गया। मतदान केन्द्रों पर पेट्रौल बम तक फेंके गए। सुरक्षा बलों ने पहले हवा में गोलियां चलाईं किंतु भीड़ को काबू करना मुश्किल था। इसलिए कुछ जगह इनको गोलियां चलानी पड़ी और इतनी संख्या में लोग मारे गए।

सवाल है कि यह स्थिति पैदा क्यों हुई? निश्चय ही यह अलगाववादियों की योजना की तत्काल विजय है। उनको शह देेने वाले पाकिस्तान की भी सफलता है। अलगाववादियों ने चुनाव के बहिष्कार करने का आह्वान किया था जिसमें अघोषित रुप से यह भी शामिल था कि चुनाव को हर हाल में बाधित किया जाए, इस तरह का दहशत का वातावरण बनाया जाए कि भय से मतदाता मतदान के लिए निकले ही नही। हजारों की संख्या में चारों ओर पत्थरबाज यू ही नहीं आ गए थे। पेट्रोल बम अपने-आप नहीं बरसने लगे थे। किंतु कश्मीर में हालात बिगाड़े गए हैं और इसे और बिगाड़ने की साजिशें चल रहीं हैं यह चुनाव आयोग, केन्द्र एवं राज्य सरकार सभी को पता था। आखिर जो पत्थरबाज आतंकवादियों को सुरक्षा बलों के मुठभेड़ से बचाने बीच में आ जाते हैं वे आराम से चुनाव होने देंगे ऐसी कल्पना कौन कर सकता था? साफ है कि हमारी तैयारी में बड़ी चूक हुई है। इससे तत्काल ऐसी क्षति हुई है जिसका प्रभाव आने वाले समय में और दिखाई देगा। जाहिर है, इस क्षति की भरपाई का अवसर भी हमारे सामने है। वह कैसे किया जाएगा यह चुनाव के संदर्भ में चुनाव आयोग को तथा समग्र सुरक्षा व्यवस्था के संदर्भ में राज्य एवं केन्द्र सरकार को करना है। पूरा देश इसकी प्रतीक्षा करेगा।

किंतु नेशनल कांफ्रेंस के अध्यक्ष फारूक अब्दुल्ला और उनके बेटे उमर अब्दुल्ला ने शांतिपूर्ण और निष्पक्ष चुनाव कराने में नाकामी के लिए महबूबा मुफ्ती  सरकार पर जो हमला किया है उसे पूरी तरह स्वीकार करना कठिन है। सुरक्षा माहौल के अभाव की जिम्मेवारी तो सरकार के सिर जाती है। किंतु फारूक स्वयं क्या कर रहे थे? फारुख अब्दुल्ला कह रहे हैं कि लोगों ने इस वोट के लिए संघर्ष किया है और उनको इसका उपयोग करने में सक्षम होन चाहिए था। बिल्कुल होना चाहिए था। कश्मीर के वे लोग जो जनतंत्र में विश्वास करते हैं तथा जो मतदान करना चाहते थे वे भी छटपटा रहे होंगे। लेकिन कश्मीर के जो हालात बना दिए गए हैं उनमें विपक्षी नेताओं तथा उम्मीदवारों की भी कुछ जिम्मेवारियां हैं। उन्हंे ऐसे बयानों से बचना चाहिए था जिनसे अलगाववादियों, पत्थरबाजों तथा परोक्ष रुप से आतंकवादियों का हौंसला बढ़े। फारुख का रवैया ऐसा नहीं था। अपनी सभाओं में वे कभी हुर्रियत के नेताओं को कश्मीरी भाषा में कहते थे कि हमें अपना दुश्मन न समझें, हम भी कश्मीर के समाधान के लिए लड़ रहे हैं तो कभी पत्थरबाजों को वतनपरस्त कहकर उनके कारनामों को सही ठहराते थे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पत्थरबाजों से पत्थर मारना छोड़कर पत्थर तरासने को प्राथमिकता देने तथा टेररिज्म यानी आतंकवाद की जगह टूरिज्म यानी पर्यटन को बढ़ावा देने की अपील की थी। इसके जवाब मंें फारुख अब्दुल्ला ने कहा कि पत्थरबाज भूखे रहेंगे लेकिन पत्थर चलाएंगे क्योंकि वो वतनपरस्त हैं, वो कश्मीर के हल के लिए लड़ रहे हैं। तो उन्होंने चुनाव में भी अपनी वतनपरस्ती दिखा दी। उन्होंने दिखा दिया कि हमारी लड़ाई में शांतिपूर्ण चुनाव शामिल नहीं है। उन्होंने साफ कर दिया कि कश्मीर की समस्या के हमारे समाधान मंें चुनाव को बाधित करना ही शामिल है।

जाहिर है, इस भयावह दशा के लिए फारुख अब्दुल्ला जैसे नेता भी जिम्मेवार हैं। उन्होंने एक बार भी पत्थरबाजों से पत्थर मारना छोड़कर चुनाव में भागीदारी की अपील की होती तो उनको जिम्मेवारी से वंचित किया जा सकता था। फारुख के रवैये से लगता ही नहीं था कि कोई ऐसा व्यक्ति बोल रहा है जो प्रदेश का तीन बार मुख्यमंत्री तथा केन्द्र में मंत्री रह चुका है। यह आग में पेट्रौल डालना था। बहरहाल, किसी को जिम्मेवार ठहरा देने भर से इस स्थिति में बदलाव नहीं आ सकता। यह कश्मीर के भविष्य के लिए बुरा संकेत है। कुछ मतदान केन्द्रों पर दोबारा मतदान भी समस्या का समाधान नहीं है। पूरी स्थिति पर गंभीरता से विचार कर केन्द्र एवं राज्य सरकार को सुरक्षा माहौल फिर से बनाने तथा भविष्य के मतदान के लिए मतदाताओं को भय के मनोविज्ञान से बाहर निकालने की आवश्यकता है।

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