आला नेतृत्व देश प्रदेश हितों को देख कर मुख्यमंत्री का चयन करे न की असुरक्षा के भय से कद्दावर नेताओं को नजरांदजकर प्यादों को थोप कर देश,प्रदेश व दल को पतन के गर्त में धकेले
देवसिंह रावत
3 व 4 दिसम्बर 2023को राजस्थान, मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ, तेलंगाना व मिजोरम 5 राज्यों के चुनाव परिणामों से जहां देश की राजनीति में जहां भारी उथल पुथल मचा हुआ है वहीं देश की जनता में इस बात को जानने की भारी उत्सुकता बनी हुई है कि चुनाव परिणाम निकलने के बाबजूद 5 में से चार राज्यों में इस बात का पता जनता व देश को नहीं चल रहा है कि इन राज्यों में आखिर कौन बनेगा मुख्यमंत्री? मिजोरम का चुनाव परिणाम भले ही बाकी चार राज्यों के एक दिन बाद निकला पर वहां साफ हो गया कि जनादेश अर्जित मिजोरम में मुख्यमंत्री सेरछिप विधानसभा सीट से विजयी जोरम पीपल्स मूमेंट के प्रमुख ७३ वर्षीय भारतीय पुलिस सेवा के सेवानिवृत अधिकारी व पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के सुरक्षा अधिकारी रहे लालदुहोमा है। लालदुहोमा के दल जोरम पीपल्स मूवमेंट (जेड़पीएम) ने 4 दिसम्बर 2023 को हुई मतगणना में ४० सदस्यीय मिजोरम विधानसभा में २७ सीट जीतकर मिजो नेशनल फ्रंट (एमएनएफ) को अपदस्थ कर जनादेश अर्जित किया।
वर्तमान में कहा जा रहा है कि आगामी 2024 को जीतने के लिये इन राज्यों में मुख्यमंत्री पद पर ऐसे को आसीन किया जायेगा जिससे आदिवासी, पिछडा वर्ग व युवाओं को अपने पक्ष में लामंबद करने में सहायता मिले। इसी को देखते हुये राजस्थान में वसुंधरा राजे के अलावा दीया कुमारी, बालकनाथ, गजेंद्र सिंह शेखावत, अश्वनी वैष्णव और लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला तक के नाम की चर्चा है.। वहीं मध्य प्रदेश में शिवराज चौहान के अलावा नरेंद्र्र तोमर, प्रहलाद पटेल, विजय वर्गीय व प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष का नाम चर्चाओं में है। इसके साथ छत्तीसगढ़ में प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह के अलावा प्रदेश भाजपा अध्यक्ष अरुण साव,सरोज पांडेय, लता उसेंडी, रेणुका सिंह व ओपी चौधरी को भी मुख्यमंत्री का दावेदार के रूप में चर्चाओं में है। वहीं तेलांगना में जनादेश अर्जित किये हुई कांग्रेस भी अपने मुख्यमंत्री के नाम पर मुहर लगा कर उसका शपथ ग्रहण कराकर भाजपा पर बढ़त नहीं ले पा रही है। तेलांगना में कांग्रेस प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष रेवंत रेड्डी को मुख्यमंत्री बनाने की मंशा रखती है परन्तु वहां मल्लुभाटी विक्रमार्क, उतम कुमार रेड्डी , कोमती रेड्डी व श्रीधर बाबू जैसे प्रदेश के कांग्रेसी क्षत्रप उनकी ताजपोशी मेर प्रहण लगा रहे है। इस कारण कांग्रेस नेतृत्व उहापोह की स्थिति में फंसी हुई है।
परन्तु जिन प्रदेशों का चुनाव परिणाम मिजोरम से एक दिन पहले निकला उन मध्य प्रदेश, राजस्थान,छत्तीसगढ व तेलंगाना में चुनाव परिणाम निकलने के दो दिन बाद भी देश व प्रदेश की आम जनता तो रही दूर खुद जीती हुये दल के बडे नेता भी नहीं जानते हैं कि इन राज्यों में कोन बनेगा मुख्यमंत्री? ऐसा नहीं कि इन राज्यों में मुख्यमंत्री के कद काठी के विजयी विधायक या हारे हुये नेता नहीं है। इस अनिर्णय के दंश से केवल राजस्थान, मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ भारी भरकम जीत अर्जित कर सत्तासीन हुई भाजपा की पीड़ित नहीं है अपितु तेलांगना में जनादेश अर्जित करने वाली कांग्रेस भी इसी समस्या से जुझ रही है। ऐसा भी नहीं है कि भाजपा व कांग्रेस कमजोर है। इस मामले में दोनों दल बहुत ही मर्मज्ञ व दक्ष है। ऐसा भी नहीं कि इस मामले में कोई बडी संवैधानिक अड़चन है। यह मामला बहुत ही सहज व एक क्षण में सुलझाने का है। ये दल चाहते तो चुनाव से पहले इन नामों का ऐलान करने में भी सझम है। परन्तु चुनावी बढ़त अर्जित करने के लिये जानबुझ कर ऐसा किया गया। इससे मुख्यमंत्री के तमाम दावेदार मजबूती से दल को जीताने के लिये काम करे। हालांकि इस मामले में दल के बडे नेताओं को इसका भान हो जाता है कि कोन नेता अपने समर्थकों को अधिक टिकट दिलाने में सफल रहा। परन्तु जब दल का केंद्रीय नेतृत्व मजबूत हो तो दल में अन्य क्षत्रप चाह कर भी आला नेतृत्व का विरोध नहीं कर सकते। भले ही कांग्रेस का वर्तमान नेतृत्व कमजोर माना जा रहा है। परन्तु कभी इंदिरा गांधी के जमाने तक आला नेतृत्व की इच्छा से ही सभी पद व टिकटें प्रायः मिलते थे। आज वही स्थिति भाजपा की है। मोदी व अमित शाह की जुगलबंदी में भाजपा की स्थिति भी ठीक वैसे ही है जो कभी कांग्रेस की इंदिरा काल में थी। आज भाजपा में किसी तीसरे नेता को महत्वपूर्ण निर्णय का न तो भान रहता व नहीं हस्तक्षेप। मोदी व शाह की जुगलबंदी से हर निर्णय को बहुत ही रणनीति से परवान चढाया जाता है। अन्य लोगों के केवल विचार व सुझाव सुने जाते है। अंतिम निर्णय अपवाद छोड कर प्रायः इसी युगलजोड़ी का होता है। ऐसा भी नहीं कि यह जोडी अचानक कोई निर्णय लेती है। ये दोनों बहुत ही सोच समझ कर रणनीति के तहत अपने निर्णय को परवान चढाते है। राष्ट्रपति सहित किसी भी महत्वपूर्ण पदों परर आसीन करने का निर्णय इन दोनों का होता है।
वर्तमान में कायश लगाये जा रहे है कि मध्य प्रदेश व राजस्थान में कोन होगा मुख्यमंत्री? जबकि इन दोनों प्रदेशों में शिवराज चौहान व वसुंधरा जैसे दिग्गज नेता मुख्यमंत्री के सक्षम व निर्विवाद दावेदार है। दोनों को प्रदेश, जनता व संगठन तीनों पर वर्षो से पकड़ है। इनकी वर्तमान में यही कद्दावर छवि ही मुख्यमंत्री पद पर आसीन होने की संभावनाओं पर ग्रहण लगाने वाली सबसे बड़ी बाधा मानी जा रही है। देश ही नहीं विश्व में भी दलीय आला नेतृत्व की प्रथा ने देश में अनैक कद्दावर नेताओं के पर कतर कर उनको नेपथ्य में धकेलने का काम किया है। आला नेतृत्व प्रथा में असुरक्षा व अज्ञानता से ग्रसित अधिकांश नेता दूसरे कद्दावर नेताओं को अपना प्रतिद्धदी समझ कर उनको हाशिये में धकेलने का काम करता है। इसके कारण अनैक कद्दावर नेताओं प्रतिभाओं व क्षमताओं से देश प्रदेश लाभांवित नहीं हो पाता है। अपनी इसी मंशा को छुपाने के लिये आला नेतृत्व कभी महिला, कभी जाति व कभी युवा के नाम से कद्दावर नेताओं के पर कतर कर अपने प्यादों को आसीन करते हैं। इनके इस निर्णय का खमियाजा देश प्रदेश, दल व जनता का चुकाना पडता है। कभी कभी ये अपने प्यादों को आसीन करने के लिये लक्ष्मण रेखाओं व लोकलाज तक नजरांदाज कर देते है। हारे व जनता में बेनकाब हो चूके मोहरों को भी देश व प्रदेश के महत्वपूर्ण पदों पर आसीन करके पूरे तंत्र व देश प्रदेश के विकास के साथ लोकशाही पर ग्रहण लगा देते है।
हालांकि यह मामला संवैधानिक नजरिये से बहुत ही सरल है। इसमें सीधे सीधे आला नेतृत्व का कोई काम नहीं है। इसमें केवल जनादेश अर्जित करने वाले सत्तारूढ दल के विधायक अपना नेता चुनते हैं। वह नेता राज्यपाल को जनादेश अर्जित करने वाले दल के विधायक मंडल दल के नेता चयन का पत्र सौंपता है। इसी आधार पर राज्यपाल मुख्यमंत्री व उनके मंत्रीमण्डल को शपथ दिलाते है।परन्तु सहज सा दिखने वाला यह राह को दलीय आकाओं ने केंद्रीय पर्यवेक्षकों के द्वारा विधानमण्डल में एक पंक्ति का प्रस्ताव पारित करके केंद्रीय नेतृत्व को मुख्यमंत्री चुनने का अधिकार दिया जाता है या पर्यवेक्षक अपनी रणनीति से उस नाम का प्रस्ताव विधायक मंडल में रखते है और विधायक उसका समर्थन करते है। प्रायः जो बडा दावेदार होता है उसी से यह प्रस्ताव रखवाया जाता है और अन्य से समर्थन कर आला कमान के चेहते का नाम का समर्थन कराया जाता है। कई बार पर्यवेक्षक को इस नाम का पता नहीं होता है। उसे भी निर्णायक समय पर यह नाम या बंद लिफाफा खोलने की इजाजत होती है। मुख्यमंत्री कहां किसे बनाना है इसका निर्णय आलाकमान प्रायः चुनाव से पहले कर लेते हैं। पर इसमें बहुत कम बदलाव होता है। केवल अपवाद के समय ही।
वर्तमान में कहा जा रहा है कि आगामी 2024 को जीतने के लिये इन राज्यों में मुख्यमंत्री पद पर ऐसे को आसीन किया जायेगा जिससे आदिवासी, पिछडा वर्ग व युवाओं को अपने पक्ष में लामंबद करने में सहायता मिले। इसी को देखते हुये राजस्थान में वसुंधरा राजे के अलावा दीया कुमारी, बालकनाथ, गजेंद्र सिंह शेखावत, अश्वनी वैष्णव और लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला तक के नाम की चर्चा है.। वहीं मध्य प्रदेश में शिवराज चौहान के अलावा नरेंद्र्र तोमर, प्रहलाद पटेल, विजय वर्गीय व प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष का नाम चर्चाओं में है। इसके साथ छत्तीसगढ़ में प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह के अलावा प्रदेश भाजपा अध्यक्ष अरुण साव,सरोज पांडेय, लता उसेंडी, रेणुका सिंह व ओपी चौधरी को भी मुख्यमंत्री का दावेदार के रूप में चर्चाओं में है। वहीं तेलांगना में जनादेश अर्जित किये हुई कांग्रेस भी अपने मुख्यमंत्री के नाम पर मुहर लगा कर उसका शपथ ग्रहण कराकर भाजपा पर बढ़त नहीं ले पा रही है। तेलांगना में कांग्रेस प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष रेवंत रेड्डी को मुख्यमंत्री बनाने की मंशा रखती है परन्तु वहां मल्लुभाटी विक्रमार्क, उतम कुमार रेड्डी , कोमती रेड्डी व श्रीधर बाबू जैसे प्रदेश के कांग्रेसी क्षत्रप उनकी ताजपोशी मेर प्रहण लगा रहे है। इस कारण कांग्रेस नेतृत्व उहापोह की स्थिति में फंसी हुई है।
परन्तु जिन प्रदेशों का चुनाव परिणाम मिजोरम से एक दिन पहले निकला उन मध्य प्रदेश, राजस्थान,छत्तीसगढ व तेलंगाना में चुनाव परिणाम निकलने के दो दिन बाद भी देश व प्रदेश की आम जनता तो रही दूर खुद जीती हुये दल के बडे नेता भी नहीं जानते हैं कि इन राज्यों में कोन बनेगा मुख्यमंत्री? ऐसा नहीं कि इन राज्यों में मुख्यमंत्री के कद काठी के विजयी विधायक या हारे हुये नेता नहीं है। इस अनिर्णय के दंश से केवल राजस्थान, मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ भारी भरकम जीत अर्जित कर सत्तासीन हुई भाजपा की पीड़ित नहीं है अपितु तेलांगना में जनादेश अर्जित करने वाली कांग्रेस भी इसी समस्या से जुझ रही है। ऐसा भी नहीं है कि भाजपा व कांग्रेस कमजोर है। इस मामले में दोनों दल बहुत ही मर्मज्ञ व दक्ष है। ऐसा भी नहीं कि इस मामले में कोई बडी संवैधानिक अड़चन है। यह मामला बहुत ही सहज व एक क्षण में सुलझाने का है। ये दल चाहते तो चुनाव से पहले इन नामों का ऐलान करने में भी सझम है। परन्तु चुनावी बढ़त अर्जित करने के लिये जानबुझ कर ऐसा किया गया। इससे मुख्यमंत्री के तमाम दावेदार मजबूती से दल को जीताने के लिये काम करे। हालांकि इस मामले में दल के बडे नेताओं को इसका भान हो जाता है कि कोन नेता अपने समर्थकों को अधिक टिकट दिलाने में सफल रहा। परन्तु जब दल का केंद्रीय नेतृत्व मजबूत हो तो दल में अन्य क्षत्रप चाह कर भी आला नेतृत्व का विरोध नहीं कर सकते। भले ही कांग्रेस का वर्तमान नेतृत्व कमजोर माना जा रहा है। परन्तु कभी इंदिरा गांधी के जमाने तक आला नेतृत्व की इच्छा से ही सभी पद व टिकटें प्रायः मिलते थे। आज वही स्थिति भाजपा की है। मोदी व अमित शाह की जुगलबंदी में भाजपा की स्थिति भी ठीक वैसे ही है जो कभी कांग्रेस की इंदिरा काल में थी। आज भाजपा में किसी तीसरे नेता को महत्वपूर्ण निर्णय का न तो भान रहता व नहीं हस्तक्षेप। मोदी व शाह की जुगलबंदी से हर निर्णय को बहुत ही रणनीति से परवान चढाया जाता है। अन्य लोगों के केवल विचार व सुझाव सुने जाते है। अंतिम निर्णय अपवाद छोड कर प्रायः इसी युगलजोड़ी का होता है। ऐसा भी नहीं कि यह जोडी अचानक कोई निर्णय लेती है। ये दोनों बहुत ही सोच समझ कर रणनीति के तहत अपने निर्णय को परवान चढाते है। राष्ट्रपति सहित किसी भी महत्वपूर्ण पदों परर आसीन करने का निर्णय इन दोनों का होता है।
वर्तमान में कायश लगाये जा रहे है कि मध्य प्रदेश व राजस्थान में कोन होगा मुख्यमंत्री? जबकि इन दोनों प्रदेशों में शिवराज चौहान व वसुंधरा जैसे दिग्गज नेता मुख्यमंत्री के सक्षम व निर्विवाद दावेदार है। दोनों को प्रदेश, जनता व संगठन तीनों पर वर्षो से पकड़ है। इनकी वर्तमान में यही कद्दावर छवि ही मुख्यमंत्री पद पर आसीन होने की संभावनाओं पर ग्रहण लगाने वाली सबसे बड़ी बाधा मानी जा रही है। देश ही नहीं विश्व में भी दलीय आला नेतृत्व की प्रथा ने देश में अनैक कद्दावर नेताओं के पर कतर कर उनको नेपथ्य में धकेलने का काम किया है। आला नेतृत्व प्रथा में असुरक्षा व अज्ञानता से ग्रसित अधिकांश नेता दूसरे कद्दावर नेताओं को अपना प्रतिद्धदी समझ कर उनको हाशिये में धकेलने का काम करता है। इसके कारण अनैक कद्दावर नेताओं प्रतिभाओं व क्षमताओं से देश प्रदेश लाभांवित नहीं हो पाता है। अपनी इसी मंशा को छुपाने के लिये आला नेतृत्व कभी महिला, कभी जाति व कभी युवा के नाम से कद्दावर नेताओं के पर कतर कर अपने प्यादों को आसीन करते हैं। इनके इस निर्णय का खमियाजा देश प्रदेश, दल व जनता का चुकाना पडता है। कभी कभी ये अपने प्यादों को आसीन करने के लिये लक्ष्मण रेखाओं व लोकलाज तक नजरांदाज कर देते है। हारे व जनता में बेनकाब हो चूके मोहरों को भी देश व प्रदेश के महत्वपूर्ण पदों पर आसीन करके पूरे तंत्र व देश प्रदेश के विकास के साथ लोकशाही पर ग्रहण लगा देते है।
हालांकि यह मामला संवैधानिक नजरिये से बहुत ही सरल है। इसमें सीधे सीधे आला नेतृत्व का कोई काम नहीं है। इसमें केवल जनादेश अर्जित करने वाले सत्तारूढ दल के विधायक अपना नेता चुनते हैं। वह नेता राज्यपाल को जनादेश अर्जित करने वाले दल के विधायक मंडल दल के नेता चयन का पत्र सौंपता है। इसी आधार पर राज्यपाल मुख्यमंत्री व उनके मंत्रीमण्डल को शपथ दिलाते है।परन्तु सहज सा दिखने वाला यह राह को दलीय आकाओं ने केंद्रीय पर्यवेक्षकों के द्वारा विधानमण्डल में एक पंक्ति का प्रस्ताव पारित करके केंद्रीय नेतृत्व को मुख्यमंत्री चुनने का अधिकार दिया जाता है या पर्यवेक्षक अपनी रणनीति से उस नाम का प्रस्ताव विधायक मंडल में रखते है और विधायक उसका समर्थन करते है। प्रायः जो बडा दावेदार होता है उसी से यह प्रस्ताव रखवाया जाता है और अन्य से समर्थन कर आला कमान के चेहते का नाम का समर्थन कराया जाता है। कई बार पर्यवेक्षक को इस नाम का पता नहीं होता है। उसे भी निर्णायक समय पर यह नाम या बंद लिफाफा खोलने की इजाजत होती है। मुख्यमंत्री कहां किसे बनाना है इसका निर्णय आलाकमान प्रायः चुनाव से पहले कर लेते हैं। पर इसमें बहुत कम बदलाव होता है। केवल अपवाद के समय ही।