हल्द्वानी अवैध कब्जा मुक्त अभियान पर सर्वोच्च न्यायालय ने लगाई रोक, अगली सुनवाई 7 फरवरी 2023 को
देव सिंह रावत
सर्वोच्च न्यायालय ने 5 जनवरी 2023 को हल्द्वानी में रेलवे की जमीन पर हुई अवैध बसावत पर सुनवाई करते हुये जहां उच्च न्यायालय के आदेश पर इस अवैध कब्जे को हटाने पर रोक लगाई। वहीं दूसरी तरफ इस मामले में उतराखण्ड व रेलवे दोनों को नोटिस जारी करते हुये इस मामले की अगली सुनवाई 7 फरवरी को तय की। न्यायालय ने कहा दशकों से रहने वाले 50 हजार लोगों को आप रातों रात यों ही नहीं हटा सकते हैं। पहले उनके पुनर्वास की व्यवस्था करें। इसके साथ यहां पर भविष्य में नया कब्जा बस्ती न बने इसके लिये भी प्रबंध करें। इस मामले त्वरित प्रतिक्रिया देते हुये उतराखण्ड राज्य गठन आंदोलन के ेप्रखर आंदोलनकारी व वरिष्ठ पत्रकार देवसिंह रावत ने कहा कि इस मामले में उतराखण्ड सरकार के मुखिया पुष्कर सिंह धामी ने कहा कि हम न्यायालय के आदेश का पालन करेंगे। श्री रावत ने कहा कि मुख्यमंत्री को प्रदेश के हितों की रक्षा करने के साथ साथ प्रदेश में इस तरह के षडयंत्र के तहत हो रही बसावत को सिरे से जमीदोज करना चाहिये। इसके लिये न्यायविदों के साथ प्रशासनिक रूप से ठोस कदम उठाने चाहिये। हमारा मानना है कि उतराखण्ड की जमीनों पर कब्जा कराने को सरकारी संरक्षण नहीं मिलना चाहिये। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से अवैध कब्जा करने वाली प्रवृति को बल मिलेगा। इसके साथ न्यायालय के द्वारा दिये गये अवैध कब्जा करने वालों के पुनर्वास के संदर्भ में जो निर्देश दिया है। उस पर प्रदेश सरकार को अविलम्ब ठोस कदम उठाने चाहिये। इन अवैध कब्जा करने वालों को हर हाल में उनके मूल निवास में ही पुनर्वास किया जाना चाहिये। जहां के ये मूल निवासी है, वहीं इनका पुनर्वास कराया जाना चाहिये। इसके साथ यहां पर अवैध कब्जा कराने, राशन कार्ड, पहचान पत्र, मतदाता कार्ड बनाने में संरक्षण देने वाले राजनैतिक व सरकारी तंत्र में छुपे हुये आस्तीन के सांपों को दण्डित करने के लिये सरकार को चाहिये कि इन अवैध कब्जा करने वालों का नार्को टेस्ट किया जाना चाहिये। इससे इनके पुनर्वास कराने व प्रदेश में अवैध कब्जा कराने वाले अपराधियों को बेनकाब करके अंकुश लगाने में सहायता मिलेगी। यह गिरोह प्रदेश व देश के विभिन्न भागों में ऐसी बसावत कराने के कार्य में संलिप्त हो सकता हैे। इस षडयंत्र को देख कर यह लगता है कि हल्द्वानी तो केवल झांकी है।ंदेहरादून आदि में अवैध बस्तियों को 2024 तक संरक्षण देकर, उतराखण्ड को भी कश्मीर, असम व बंगाल बनाने की कोशिश क्यो?
उजड़े तिब्बत मिटे फारस
कंधार लाहौर ढाका भी लुट गये
कश्मीर कैलाश लुटा
फिर भी न जागा भारत
अब तो जागो उत्तराखंडियों
भले ही सर्वोच्च न्यायालय ने हल्द्वानी में रेलवे की जमीन पर उच्च न्यायालय के आदेश पर अवैध कब्जे से मुक्त कराने के 8 जनवरी 2023 को प्रशासन द्वारा अतिक्रमण हटाने पर रोक लगाते हुये रेलवे व उतराखण्ड सरकार को नोटिस जारी करके 7 फरवरी 2023 को अगली सुनवाई की तारीख तय कर दी है। इससे भले ही अवैध कब्जाधारियों व उनके समर्थकों को राहत महसूस कर रहे हों। परन्तु सबसे बडा सवाल यह है कि आखिर अवैध कब्जा करने वालों को संरक्षण क्यों? उतराखण्ड के हल्द्वानी में अवैध कब्जा प्रकरण से देश प्रदेश की सरकारें, राजनैतिक दल व यहां की पूरी व्यवस्था बेनकाब हो गयी है। देश में किस खौपनाक ढंग से घुसपेठ की जा रही है और शासन प्रशासन सहित पूरा तंत्र अपने स्वार्थों में लिप्त हो कर मौन साधे हुये है। सीमांत प्रांत उतराखण्ड की शांत वादियों में इतनी बडी घुसपेठ उतराखण्ड के साथ देश की सुरक्षा के लिये गंभीर खतरा है। कैसे गुपचुप तरीके से बंगाल व असम की तर्ज पर किसी क्षेत्र की जनसंख्या का नक्शा ही बदलने का षडयंत्र देश में एक दो सालों से नहीं अपितु दशकों से निरंतर किया जा रहा है। राजनैतिक दल सत्ता मोह में इनके राशन, मतदान व पहचान पत्र आदि तमाम दस्तावेज बनवाने वाले गिरोह को अभयदान देते है। कैसे अवैध कब्जे धारियों को सरकार की सभी सुविधाायें उपलब्ध कराते है। यह सब उजागर हुआ उतराखण्ड उच्च न्यायालय के हल्द्वानी रेलवे स्टेशन की जमीन पर बसी अवैध बस्ती के कब्जा हटाने के आदेश से । इन अवैध कब्जाधारियों की रक्षा के लिये राजनैतिक दल, देश के तथाकथित मानवाधिकार कार्यकत्र्ता के साथ विदेशी खबरिया व थेलीशाह तंत्र भी मानव व अल्पसंख्यक अधिकारों के लिये घडियाली आंसू बहाने लगे। इन अवैध कब्जा इनको देश, प्रदेश, कानून व संविधान से कोई लेना देना। इनको केवल देश में हर जगह कश्मीर, बंगाल व असम की तरह अपना कब्जा स्थापित करके भारत को कमजोर करना है और भारत का पाकिस्तान व बंगलादेश की तर्ज पर राष्ट्रांतरण करना है। इसी आशंका से उतराखण्ड व देश की रक्षा के लिए उतराखण्ड राज्य में मूल निवास 1960, हिमाचल की तर्ज पर भू कानून व राजधानी गैरसैंण बनाने की मांग की थी। जिसको प्रदेश की सत्तालोलुपु व दिशाहीन सरकारों ने जमीदोज करके प्रदेश को हल्द्वानी सा बना दिया है। हल्द्वानी तो एक उदाहरण मात्र है। जिस प्रकार से धामी सरकार ने बडी बेशर्मी से देहरादून के अवैध बस्तियोें को विधानसभा चुनाव से पहले 2024 तक का अभयदान देने का ऐलान किया था, उसी प्रकार के सत्ता के खेल में भाजपा व कांग्रेस ने उतराखण्ड को बर्बाद कर दिया। यहां हालत यह है कि इस प्रकार की अवैध कब्जा करने व घुसपेठ करने का काम पूरे प्रदेश के कोने कोने में किया जा रहा है। शासन प्रशासन सब सत्ता की बंदरबांट में कुम्भकर्णी नींद सोये हुये है। इस हल्द्वानी प्रकरण को जो लोग केवल मानवीय नजरिये से देख रहे हैं तो वे देश की सुरक्षा के साथ गंभीर खिलवाड कर रहे है। देश की रक्षा के लिये उस तंत्र को बेनकाब करना होगा कि ये गैर उतराखण्डी लोग किसकी शह व सहायता से यहां पर बसे। अगर रोजगार की तलाश करते तो अन्यत्र बसते। एक स्थान पर संगठितकर किसने व किसके संरक्षण में बसाये गये। इसमें इन लोगों से अवैध बसूली करके सरकारी जमीन पर बसाने वाला भू माफिया भी होगा। वह राजनेतिक दलों का झण्डाबरदार भी हो सकता है।
20 दिसम्बर 2022 को उत्तराखंड उच्च न्यायालय के आदेश पर 10 जनवरी को हल्द्वानी में रेलवे की 29 एकड़ जमीन को कब्जाये हुए बनभूरपुरा आदि अवैध बस्ती के 45 सो मकानों का अवैध अतिक्रमण हटाया जाएगा। एक अनुमान के अनुसार अवैध बस्तियों में करीब 60000 लोग निवास करते हैं जिनमें 40000 मतदाता हैं। रेलवे ने सरकारी दस्तावेजों सन1959 की अधिसूचना, 1971 के राजस्व रिकार्ड, 2017 में सर्वे रिपोर्ट के अनुसार यहां पर अवैध अतिक्रमण किया गया है। इन सबके बावजूद राजनीतिक दलों के दबाव व प्रशासन की दिशा हीनता के कारण अनेक सरकारी कार्यालय तक व सुविधाएं यहां प्रदान की गई।यहां 3 सरकारी विद्यालय,11 निजी विद्यालय व एक स्वास्थ्य केंद्र तक खोल दिया गया। 20 मस्जिद व 2 मंदिर भी बने हैं। कई दशकों से यह लोग यहां बसे हैं परंतु उत्तराखंड राज्य बनने के बाद यहां पर भारी बसावत की बाढ़ सी आई। यह अतिक्रमण करीब 5 दशक से चल रहा है। शासन प्रशासन के नाक के नीचे यह अतिक्रमण बहुत ही खौपनाक ढंग से चलता रहा। क्या मजाल है प्रशासन ने चूं तक की। उल्टा वह इस अवैध बस्ती में सभी सरकारी सुविधायें प्रदान करते रहे। सुत्रों के अनुसार बनभूलपुरा व गफूर बस्ती में रेलवे की 78 एकड जमीन पर यह अवैध कब्जा हुआ है।
उल्लेखनीय है कि यहां 2013 में अवैध खनन का मामला हाईकोर्ट पहुंचा हाईकोर्ट में इलाका खाली करने का फरमान सुनाया। जिसके खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दी गई। 2016 में रेलवे पुलिस ने इस अवैध अतिक्रमण का मुकदमा भी दर्ज किया। नवम्बर 2016 में भी उच्च न्यायालय ने प्रशासन को 10 सप्ताह में यह अतिक्रमण हटाने का आदेश दिया। जिस पर प्रशासन ने त्वरित कार्यवाही नहीं की। इसका लाभ उठाते हुये अवैध कब्जाधारियों ने सर्वोच्च न्यायालय में फरियाद की। सर्वोच्च न्यायालय ने मामले सुनवाई करते हुये रेलवे को उसके दावों के अनुसार यहां पर अवैध कब्जा करने वाले 4365 वादों को व्यक्तिगत रूप से तीन महिने में सुनवाई करने के लिये उत्तराखंड उच्च न्यायालय में भेज दिया। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के अनुसार रेलवे ने सभी अतिक्रमण कर्ता अपने कोई विधिमान्य दस्तावेज नहीं दिखा सके।जिसके तहत उच्च न्यायालय ने 20 दिसंबर 2022 को यह फैसला सुनाया। उच्च न्यायालय के फेसले के आधार पर रेलवे ने सार्वजनिक सूचना जारी करते हुये अतिक्रमणकारियों को आगाह किया कि रेलवे स्टेशन से 2.19 किमी दूर तक किये गये सभी अवैध कब्जों को तोडा जायेगा। कब्जाधारी 7 दिन के अंदर खुद अपना कब्जा हटा लें। उसके बाद अतिक्रमण हटाने का खर्चा भी कब्जाधारियों से ही वसूला जायेगा। उच्च न्यायालय के इस फैसले के खिलाफ अवैध कब्जाधारियों की तरफ से 11 लोगों की याचिका वरिष्ठ अधिवक्ता सलमान खुर्शीद ने सर्वोच्च न्यायालय में दायर की गई जिसको की सुनवाई सर्वोच्च न्यायालय ने 5 दिसंबर जनवरी को की। सर्वोच्च न्यायालय ने इसकी सुनवाई कर दी। अवैध कब्जा मुक्त करने के सरकारी तैयारियों पर 7 फरवरी तक के लिये अंकुश लगा दिया। इसकी अगली सुनवाई 7 फरवरी को हागी।
परंतु उत्तराखंड की सरकार है सत्ता मद में कुंभकरण की नींद में सोई रही। इस बस्ती में बशीर लोगों में अधिकांश उत्तराखंड से नहीं अपितु अन्य प्रदेशों से बड़ी संख्या पर यहां पहुंचे हैं यह एक प्रकार से सुनियोजित घुसपैठ वह बस आव है जो एक प्रकार से प्रदेश पर काबिज होने का षड्यंत्र ही है। यह बहुत ही गंभीर विषय है इसी आशंका को देखते हुए उत्तराखंड राज्य गठन की मांग की गई थी और इस प्रकार की प्रवृत्ति को रोकने के लिए ही उत्तराखंड राज्य गठन के क्रांतिकारियों ने उत्तराखंड में राजधानी गैरसैण प्रदेश में हिमाचल की तर्ज पर भू कानून व मूल निवास कानून लागू करने की प्रबल मांग की थी। जिसको जानबूझकर प्रदेश गठन के समय तत्कालीन भाजपा सरकार,उसके बाद उत्तराखंड राज्य में भाजपा व कांग्रेस की अब तक की सरकारों ने जमींदोज किया। जिसके कारण आज प्रदेश में लाखों की संख्या में इस प्रकार की घुसपैठ हो चुकी है और उत्तराखंड की शांत वादियां एक प्रकार से अपराधियों का अभ्यारण बन चुका है। इससे उत्तराखंड की संस्कृति के साथ देश की एकता और अखंडता पर गंभीर खतरा मंडरा रहा है। इसके लिए अगर कोई दोषी है तो उत्तर प्रदेश सरकार सरकारें व पृथक राज्य गठन के बाद उत्तराखंड की 22 सालों के मुख्यमंत्री व जनप्रतिनिधि। राजधानी गैरसैण की बजाय जबरन देहरादून थोपने वालों कि कारण उत्तराखंड में भारी संख्या में पलायन जारी है और इस पलायन की भनक पाते ही षड्यंत्र के तहत यहां पर घुसपैठ की कराई जा रही है इसका जीता जागता उदाहरण हल्द्वानी आदि स्थानों में भारी संख्या में अवैध कब्जा धारी है। यह घुसपैठ इट सुनियोजित ढंग से उत्तराखंड की सीमांत क्षेत्रों में कराई जा रही है।
इस प्रकरण के लिए मुख्यमंत्रियों के अलावा संबंधित मंत्री, क्षेत्र के विधायक नौकरशाह व पुलिस प्रशासन भी उतने ही गुनाहगार हैं। न्यायालय को चाहिए कि अवैध कब्जा करने वाले लोगों के साथ अवैध कब्जा को संरक्षण करने वाले लोगों पर भी कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए।
यहां पर एक बात साफ है कि अगर राज्य गठन करते ही प्रदेश में मूल निवास 1960 व हिमाचल की तर्ज पर भू कानून प्रदेश पर लागू किया जाता तो आज प्रदेश में हल्द्वानी की जैसी त्रासदी सर नहीं उठाती। इसके लिए उत्तराखंड के तमाम मुख्यमंत्री जिम्मेदार हैं।
उल्लेखनीय है कि हल्द्वानी में रेलवे की 29 एकड़ जमीन पर बलात कब्जा करने वाले लोग अब पीड़ित का कार्ड खेल रहे हैं । जो लोग इस प्रकरण पर घड़ियाली आंसू बहा रहे हैं रवीना उत्तराखंड देश व मानवता कि कहीं दूर दूर तक हितेषी नहीं अपितु वह केवल अवसरवादी व अपने निजी स्वार्थों में लिप्त हैं।
न्यायालय द्वारा दिए गए आदेश का पालन करते हुए रेलवे व स्थानीय प्रशासन ने इन अवैध बस्तियों में रहने वाले लोगों से तुरंत बस्तियां खाली करने का फरमान जारी किया। न्यायालय द्वारा दिए गए आदेश को देखते हुए इन बस्तियों में रहने वाले लोगों ने माननीय व अल्पसंख्यक आधार को ढाल बनाकर व्यापक आंदोलन छेड़ रखा है ।
जिसको मात्र राजनीति रोटियां सेकनी है, देश में अराजकता फैलानी है व अंध तुष्टिकरण में लिप्त राजनीतिक दल व तथाकथित अवसरवादी लोग हाय तौबा मचा रहे हैं।
यही नहीं इन अवैध कब्जा धारियों के समर्थन में हल्द्वानी के कांग्रेसी विधायक भी इस आंदोलन को समर्थन करते हुए सर्वोच्च न्यायालय में उच्च न्यायालय के अवैध कब्जा मुक्त करने के आदेश पर रोक लगाने की फरियाद कर रहे हैं। जिसकी सुनवाई सर्वोच्च न्यायालय 5 जनवरी की।
इस मामले प्यारा उत्तराखंड के संपादक देव सिंह रावत ने जब उत्तराखंड मामलों की जानकार वरिष्ठ पत्रकार साहित्यकार श्याम सिंह रावत पथिक से दूरभाष पर वार्ता की तो श्री पथिक ने बताया कि 8वें दशक में ढोलक बनाने वाले कुछ दर्जन लोग ही इस रेलवे की पटरी के आसपास त्रिपाल लगाकर अस्थाई निवास करने लगे धीरे-धीरे इनकी संख्या बढ़ती रही। शासन प्रशासन नजरअंदाज करता रहा। उत्तराखंड राज्य गठन के बाद सन 2000 के बाद यहां पर भारी संख्या में लोगों की बसावत हुई। धीरे-धीरे यहां पर तिरपाल टेंट छप्पर कच्चे मकान के बाद पक्के ऊंचे भवन का निर्माण होता गया। यहां पर राजनीतिक दलों की सत्ता लोलुपता के कारण यहां पर भारी बस्ती बस गई। हद तो तब हो गई कि इस अवैध बस्ती में रहने वालों को आधार कार्ड ,मतदाता पत्र, बिजली पानी राशन कार्ड, विद्यालय मदरसे मस्जिद आदि कार रातों-रात निर्माण होता रहा शासन-प्रशासन अपने स्वार्थ मैं डूब कर इस अवैध गतिविधियों को नजरअंदाज करता रहा।
श्री पथिक के अनुसार लाल कुआं क्षेत्र में बंगाली बस्ती आदि भी इसी तर्ज पर बनी हुई है। इन बस्तियों में समय के साथ जो अपराधिक तत्वों की घुसपैठ हुई उससे क्षेत्र के शांतिपूर्ण वातावरण पर ग्रहण लग गया इससे स्थानीय लोग बेहद आतंकित व परेशान है शासन प्रशासन भी इन अपराधियों के आगे लाचार सा दिखता है। इस प्रकरण को विकराल बनाने में राजनीतिक दलों के साथ शासन में भ्रष्ट कर्मचारियों की शॉप पर ही यह समस्या खड़ी हुई अगर समय रहते शासन प्रशासन सजग रहता और न्यायालय त्वरित कार्रवाई करता तो आज जो स्थिति है उससे नहीं जूझना पड़ता।
रेलवे का इस जमीन से अतिक्रमण हटाने की कार्रवाई कछुए की गति से आगे बढ़कर अब विकराल रूप धारण कर लिया है। इस मामले पर उच्च न्यायालय ने जो फैसला दिया था उसके खिलाफ यहां के लोग सर्वोच्च न्यायालय भी गए जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने फिर उच्च न्यायालय मैं ही इस विवाद की सुनवाई करने का आदेश दिया इस आदेश के बाद उच्च न्यायालय ने इस अवैध बस्ती को तुरंत खाली करने का आदेश दे दिया।