दिल्ली सरकार की गढ़वाली कुमाऊंनी एवं जौनसारी अकादमी के उपाध्यक्ष बने शिक्षाविद एम एस रावत
उतराखण्डियों में कैकडा प्रवृति की राजनीति ने आसान बनायी मनीष सिसौदिया राह
दिल्ली सरकार की भाषाई अकादमियों के इतिहास में श्रीकृष्ण सेमवाल, भारतीय व पालीवाल ने छोडी अमिट छाप
-देवसिंह रावत
दिल्ली के कार्यकारी मुख्यमंत्री उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने दिल्ली के बहुसंख्यक समाजों में एक उत्तराखंड समाज के लिए दिल्ली सरकार द्वारा बनाई गई गढ़वाली कुमाऊनी एवं जौनसारी अकादमी के संचालन समिति के उपाध्यक्ष के महत्वपूर्ण पद पर दिल्ली के शिक्षा जगत में अपना परचम लहराने वाले मयूर पब्लिक स्कूल के संचालक एमएस रावत को मनोनीत किया। इस पद पर यह नियुक्ति उत्तराखंड के वरिष्ठ गायक व लोक कवि हीरा सिंह राणा के निधन होने से रिक्त हुआ था।
दिल्ली सरकार की तरफ से इसकी जानकारी अकादमी के सचिव डा0 जीतराम भट्ट द्वारा 6 अगस्त 2020 को एमएस रावत व दिल्ली सरकार के विभिन्न विभागों को लिखे पत्र से जारी हुई ।इस नियुक्ति से जहां एमएस रावत समर्थकों व उत्तराखंडी प्रबुद्ध समाज में हर्ष की लहर दौड़ गई।वहीं इस नियुक्ति से साफ हो गया की दिल्ली सरकार के कार्यकारी मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया, एक मंझे हुए राजनीतिक हो गए हैं। जिस प्रकार से उन्होंने अपनी पटपड़गंज विधानसभा सीट में ,जो दिल्ली में उत्तराखंड समाज की प्रभावशाली सीटों में से एक है, को और मजबूती प्रदान कर दी है। इसके साथ उन्होंने साफ संदेश दे दिया है कि वह महत्वपूर्ण पदों पर मात्र गणेश परिक्रमा करने वालों को नहीं अपितु प्रतिभावान लोगों को ही आसीन करते हैं।
उत्तराखंडी अकादमी में नवनियुक्त उपाध्यक्ष एमएस रावत दिल्ली के उत्तराखंडी समाज में नया नाम नहीं है । एम एस रावत के नाम से प्रसिद्ध पौडी उतराखण्ड मूल के मनवर सिंह रावत, दिल्ली के शिक्षा जगत के प्रतिष्ठित विद्यालयों में से एक मयूर पब्लिक स्कूल के संचालक भी हैं । यह विद्यालय विनोद नगर क्षेत्र में ही स्थित है जो दिल्ली के कार्यकारी मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया की विधानसभा क्षेत्र में स्थित है। एमएस रावत राजनीति में नए भी नहीं है ।वह दशकों तक कांग्रेस की वरिष्ठ नेताओं में रहे। वह लम्बे समय से इस क्षेत्र से विधानसभा सीट के दावेदार भी रहे। कांग्रेस में अपनी उपेक्षा से आहत हो कर कुछ साल पहले वे आम आदमी पार्टी से जुड़ गए ।अब मनीष सिसोदिया ने उनको सम्मान देकर एमएस रावत में नई ऊर्जा का संचार किया।
हालांकि मनीष सिसौदिया की पटपड़गंज विधानसभा सीट दिल्ली की डेढ़ दर्जन उतराखण्डी प्रभावी विधानसभा सीटों में प्रमुख है। यह सीट दिल्ली की राजनीति के उत्तराखंडी धुरंधरों का गढ़ भी है ।इस क्षेत्र में उत्तराखंडी नेताओं की दिलचस्पी उस समय बढ़ी जब इस क्षेत्र से भाजपा के वरिष्ठ नेता व दिल्ली में उत्तराखंडी समाज के पहले विधायक मुरारी सिंह पवार विजय हुए । उसके बाद इस सीट पर उत्तराखंडी नेताओं की आत्मघाती केकडा जंग शुरू हो गयी। इसका प्रारंभ तब हुआ जब दिल्ली संगम विहार देवली क्षेत्र में कार्य कर रहेे भारतीय जनता पार्टी के जुझारू नेता वीरेंद्र जुयाल ने यहां पर डेरा डाल दिया। वीरेंद्र जुयाल भाजपा का उम्मीदवार बनने में पंवार को मात देने में भले ही सफल रहे परन्तु वे चुनावी जंग जीतने में सफल नहीं हुए। यहां के लोगों में इस बात का गहरा आक्रोश था कि इस क्षेत्र के जनप्रतिनिधी रहे मुरारी सिंह पवार को यहां से वंचित किया गया। इसके बाद उतराखण्डी मूल के दो नेताओं की आपसी जंग का लाभ भाजपा के युवा नेता नकुल भारद्वाज ने भी अपनी मजबूत पकड़ से उत्तराखंडी समाज से अपनी पत्नी के नाम का लाभ उठा कर भा ज पा की प्रत्याशी बने । परंतु वह भी उत्तराखंडी समाज के नाखुश होने के कारण इस सीट पर विजय नहीं हो पाए ।हालांकि नकुल नकुल भारद्वाज की पत्नी दीप्ति रावत दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ की वरिष्ठ नेत्री रही । दीप्ति रावत दिल्ली भाजपा की मजबूत नेता बन सकती थी। पर ना जाने उनको उत्तराखंड की राजनीति क्यों रास आई? किसने उनको उतराखण्ड की राजनीति में उतरने की सलाह दी। खासकर ऐसे समय में जहां उत्तराखंड में स्थानीय भाजपा नेताओं ने दिल्ली के स्थापित घिल्ड़ियाल जैसे भाजपाई नेता के पांव नहीं जमने दिये। भले ही कांग्रेस में दिल्ली से गये दिल्ली विश्व विद्यालय छात्र संघ के एकमात्र स्वतंत्र अध्यक्ष रहे मदन बिष्ट तथा भाजपा के अल्मोड़ा सल्ट से विधायक सुरेंद्र जी जीना भी राजनैतिक रूप में स्थापित होने में सफल हुए।
उत्तराखंडी समाज के प्रभाववाली विधानसभाई क्षेत्र में मुरारी सिंह पवार को कमजोर करने के बाद उतराखण्डी दावेदारों की अति महत्वकांक्षा, जातिवाद व क्षेत्रवाद की संकीर्ण जंग के कारण अपना वजूद साकार नहीं कर पाये। हालांकि यहां का उतराखण्डी समाज चाहता हैे कि इस विधानसभा सीट से मजबूत राजनैतिक दल का जो भी उतराखण्डी प्रत्याशी चुनावी जंग में उतरे उसे दलगत राजनीति से उपर उठ कर विजयी बनाया जाय। परन्तु मुरारी सिंह पंवार के बाद इस सीट पर अपना वजूद हासिल न होने से उतराखण्डी समाज खुद को ठगा महसूस करते रहे। इस बार भी विधानसभा चुनाव में भाजपा व कांग्रेस दोनों ने उतराखण्डी प्रत्याशी को ही इस क्षेत्र से चुनावी जंग में उतारा। कांग्रेस ने पार्टी द्वारा दिल्ली में मजबूती से जंग न लडने के कारण यहां से चुनावी जंग मेें उतारे कांग्रेस के वरिष्ठ नेता लक्ष्मण रावत के साथ साथ भाजपा के उतराखण्डी प्रत्याशी रवि नेगी को भी हार का मुंह देखना पड़ा। मनीष सिसौदिया भाजपा के नये प्रत्याशी रवि नेगी से हारते हारते बचे। शायद इसी आशंका को दूर करने के लिए सिसौदिया ने अपनी मजबूती बनाये रखने के लिए इस क्षेत्र में कभी कांग्रेस के एक प्रबल दावेदार रहे एम एस रावत को (जो कुछ साल पहले कांग्रेस छोड़कर आप में जुड गये थे )उतराखण्डी भाषा अकादमी का दायित्व सौंपा हो। इस क्षेत्र में कांग्रेस के अन्य मजबूत दावेदारों में कांग्रेस के राष्ट्रीय सह सचिव हरिपाल रावत व समाजसेवी कुलदीप भण्डारी, भाजपा से उतराखण्ड समाज के अग्रणी समाजसेवी डा विनोद बछेती व आम आदमी पार्टी के दिल्ली उतराखण्ड प्रकोष्ठ के प्रमुख बृजमोहन उप्रेती को भी मजबूत दावेदारों में माना जाता है। हालांकि आम आदमी पार्टी से इस क्षेत्र की आम आदमी पार्टी के पार्षद गीता रावत का प्रभाव उनके मनीष सिसौदिया के करीबी समर्थकों में सुमार होने से प्रभावशाली माना जाता है।
जहां तक उतराखण्डी भाषा अकादमी का सवाल है। दिल्ली में उतराखण्डियों की एक प्रमुख मांगों में एक मांग थी। अनैक लोग इस मांग को साकार करने की दिशा में प्रयत्न कर रहे थे। परन्तु इस मांग को जिस व्यापक मजबूती से दिल्ली सरकार ही नहीं उतराखण्ड व दिल्ली के राजनीति में उतराखण्डी जनमानस को इस मांग से जोड कर उतराखण्ड एकता मंच दिल्ली ने रामलीला मैेदान में एक विशाल उतराखण्डी सभा का आयोजन किया। उसका इतना असर दिल्ली की सत्ता में आसीन आम आदमी पार्टी की केजरीवाल सरकार पर पडा कि इस मंच से ही दिल्ली के कार्यकारी मुख्यमंत्री मनीष सिसौदिया ने दिल्ली के उतराखण्डी समाज की भाषाओं को बढावा देने के लिए गढ़वाली कुमाऊनी एवं जौनसारी अकादमी का गठन का ऐलान किया। इसके साथ दिल्ली सरकार ने दिल्ली सरकार से समाज की सांस्कृतिक विरासत को मजबूती देने के लिए उतरैणी/मकरैणी के पर्व को दिल्ली में व्यापक स्तर पर मनाने का भी ऐलान किया।
आम आदमी पार्टी के इस ऐलान से उतराखण्ड में 20 सालों से सत्तासीन रही भाजपा व कांग्रेस को भी एक आईना था। उतराखण्ड में भाजपा व कांग्रेस सहित अन्य दलों की सरकारों ने अपने अपने कार्यकाल में राज्य गठन के 20 सालों तक उतराखण्डी भाषाओं को न तो संविधान की 8वीं अनुसूचि में स्थान दिलाया। हालांकि इन दलों के सतपाल महाराज, प्रदीप टम्टा, भगत सिंह कोश्यारी सहित अनैक नेता समय समय पर संसद में इस मांग को पुरजोर ढंग से उठाते रहे। परन्तु न इन दलों की सरकारों ने देश की संसद में उतराखण्डियों के अधिकारों की रक्षा की व नहीं बलिदानों से गठित उतराखण्ड राज्य में उतराखण्डी भाषा को वहां सम्मान दिला पाये। परन्तु कहावत है कि राजनेताओं को शर्म नहीं आती। आज उतराखण्ड में उतराखण्डी भाषायें सरकार की उपेक्षा व दिशाहीनता के कारण अपना स्थान भी अर्जित नहीं कर पायी। भले ही दिल्ली के उतराखण्डी समाज को राजनेतिक प्रतिनिधित्व देने में आम आदमी पार्टी भी भाजपा व कांग्रेस की तरह उतराखण्डी समाज की घोर उपेक्षा ही कर रही है। पर दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने भले ही चुनावी लाभ के मोह में उतराखण्डियों की भाषाई व सांस्कृतिक मांगों को न केवल स्वीकार किया अपितु इन दोनों मांगों को जमीन पर भी क्रियान्वित किया। अपनी इन दोनों उपलब्धी का ढोल अब आम आदमी पार्टी उतराखण्ड में अपनी राजनैतिक जमीन बनाने के लिए पीटेगी। उसे हक भी है। सवाल उठाने वाले भाजपा व कांग्रेस को उतराखण्ड की जनभावनाओं का सम्मान करने से किसने रोका था? इसका जवाब भाजपा व कांग्रेस के ध्वजवाहकों के पास नहीं होगा? पर यह बात भी साफ है कि उतराखण्ड की धरातल अभी आप के लिए तैयार नहीं है। उतराखण्डी जनमानस दिल्ली में सत्तासीन आम आदमी पार्टी के अन्य कार्यकलापों को उतराखण्ड की शांत वादियों के लिए हितकर नहीं मानते है।
इसी के तहत आम आदमी पार्टी ने उतराखण्डी भाषा अकादमी को गढ़वाली कुमाऊनी एवं जौनसारी अकादमी के नाम से स्थापित कर इसका प्रथम उपाध्यक्ष उतराखण्ड के विख्यात गायक व कवि हीरासिंह राणा को बनाया। इस नियुक्ति को न केवल दिल्ली के उतराखण्डी समाज ने अपितु उतराखण्ड सहित देश विदेश में रहने वाले करोड़ों उतराखण्डियों ने तह दिल से स्वागत किया। दुर्भाग्य से कोरोना काल में हीरासिंह राणा को अचानक हृदयघात होने से इंतकाल हो गया। यह उतराखण्डी समाज में गहरा आघात था। अब कुछ माह बाद दिल्ली सरकार ने उतराखण्डी भाषा अकादमी में दिल्ली के शिक्षा जगत में ख्यातिप्राप्त एम एस रावत को उपाध्यक्ष का दायित्व सौंपने का ऐलान 6अगस्त को किया। भले ही कुछ लोेग प्रश्न उठा सकते हैं कि एम एस रावत चर्चित साहित्यकार नहीं है। परन्तु मेरी नजर में इन अकादमियों का भारतीय भाषाओं के संवर्द्धन में कोई सकारात्मक योगदान नहीं है। यह अकादमियों केवल अपने चेहते लोगों के साहित्य प्रकाशित आदि करने तक सीमित रहते है। देश में जिस प्रकार से 72 सालों से अंग्रेजी की गुलामी के तले भारतीय भाषायें दम तोड रही है उसको मुक्ति दिलाने की दिशा में इन अकादमी के ध्वजवाहकों व साहित्यकारों का कोई स्मरणीय योगदान नहीं है। जबकि ये करोड़ों रूपये के उपलब्ध संसाधनों से पूरे देश के अंग्रेजी गुलामी ढौ रहे राजनेताओं, शिक्षाविद, नौकरशाह, न्यायविद, साहित्यकार व कलाकार रूपि कहारों की कुम्भकर्णी आत्मा को जागृत कर सकते थे। परन्तु इन अकादमियों ने कभी अपने इस राष्ट्रीय दायित्व का निर्वहन न करते हुए केवल मंच, माला, ताली, पुस्तकें व पुरस्कारों के मायालोक में ही मस्त रहे।
जहां तक सवाल अकादमी के सदस्यों की नियुक्ति का है। इस पर चर्चा करना भी समय नष्ट करना ही होगा। क्योंकि हर दल अपने कार्यकत्र्ताओं जिन्हे वे विधायक, पार्षद व अन्य महत्वपूर्ण दायित्व नहीं सौंप पाते हैं उन्हें ऐसे ही अकादमियों व संगठनों का सदस्य बना कर उनके अहं को तुष्ट करते है। सभी दल अपने अपने कार्यकाल में प्रतिभाओं के बजाय अपने ही कार्यकत्र्ताओं को आसीन करता है।
हालांकि दिल्ली में भाषाई अकादमियों में उतराखण्डी प्रतिभाओं ने लम्बे समय तक अपना परचम लहराया। दिल्ली के शिक्षा मंत्री रहे कुलानंद भारतीय हो या दो दशक तक दिल्ली संस्कृत अकादमी के सचिव रहे श्रीकृष्ण सेमवाल, हिंदी अकादमी के सचिव पालीवाल लेकर हरि सुमन बिष्ट आसीन रहे। अब डा जीत राम भट्ट भी भाषाई अकादमी में सचिव के रूप में आसीन है। पर जो नाम व आम जनता का दिल्ली श्रीकृष्ण सेमवाल ने संस्कृत अकादमी के सचिव के रूप में जीता वह इन भाषाई अकादमी के ध्वजवाहकों के लिए एक आदर्श ही रहेगा। आशा है कि गढ़वाली कुमाऊनी एवं जौनसारी अकादमी के नव मनोनित उपाध्यक्ष एम एस रावत भी अपने कार्यकाल में एक ऐसी अमिट छाप छोडेंगे जिसके लिए लोग उनको श्रीकृष्ण सेमवाल की तरह ही सदैव याद करते रहेंगे।वे दिल्ली सरकार व आप सांसदों से उतराखण्डी भाषा को आठवीं अनूसूचि में सम्मलित कराने की मांग करे।
जहां तक भाषाई रूप से गुलाम भारत को देश की तमाम सरकार 73 साल से अभी तक भारतीय शिक्षा नीति को जमीन पर लागू नहीं कर पायी। सभी दल 1835में थोपे गये अंग्रेजी एडूकेशन एक्ट के कहार बने है। जब तक देश की जनता की भाषा में शिक्षा, रोजगार, न्याय व शासन प्रदान नहीं किया जायेगा तब तक शिक्षा नीति भारतीय कहां होगी यह तो मैेकाले की नीति को आगे बढा कर देश में अंग्रेजी थोपने के समान है। यह काम देश की भाषाई अकादमी बेहतर ढंग से कर सकती थी परन्तु जिस देश की राजनैतिक दल ही इस मामले में अपने दायित्वों से अनविज्ञ है उस देश में इन दलों के कार्यकत्र्ताओं द्वारा संचालित अकादमियों से इस बात की आश करना भी बेईमानी ही होगी।