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हिंदी दिवस -“लम्हों की खता की, सदियों ने पाई सजा”

 

देवसिंह रावत

हर साल की तरह इस साल को भी आज 14 सितंबर 2023 के दिन पूरे भारत (तमिलनाडु को छोड़कर) में सरकारी संस्थानों व विभागों में हिंदी दिवस बहुत ही रस्म अदायगी के साथ मनाया जा रहा है। सरकारी कार्यालयों में आयोजित समारोह में हिंदी की विश्व व्यापी स्वरूप का गौरवशाली वर्णन किया जाता है वहीं इसी भारत की एकता अखंडता के लिए प्राण वायु भी बताया जाता है। यही नहीं गांधी सही तमाम महापुरुषों के हिंदी के प्रति दिये गये बयानों को भी प्रमुखता से उद्धृत किया जाता है।
इस अवसर पर प्रधानमंत्री मोदी ने हिंदी दिवस पर अपने संदेश ट्वीट कर कहा कि मेरे सभी परिवारजनों को हिन्दी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं। मेरी कामना है कि हिन्दी भाषा राष्ट्रीय एकता और सद्भावना की डोर को निरंतर मजबूत करती रहेगी।

गृह मंत्री अमित शाह ने हिंदी दिवस के अवसर पर अपना संदेश ट्वीट के माध्यम से देते हुए कहा कि

हिंदी दिवस’ के अवसर पर सभी को शुभकामनाएँ देता हूँ।

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत की भाषाओं की विविधता को एकता के सूत्र में पिरोने का नाम ‘हिंदी’ है। स्वतंत्रता आन्दोलन से लेकर आजतक देश को एकसूत्र में बाँधने में हिंदी की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। आइए, ‘हिंदी दिवस’ के अवसर पर राजभाषा हिंदी सहित सभी भारतीय भाषाओं को सशक्त करने का संकल्प लें।

हिंदी दिवस मानने को देश के साथ किया गया अक्षम्य भूल बताते हुए वर्षों से राष्ट्रीय धरना स्थल जंतर मंतर, प्रधानमंत्री कार्यालय व इंटरनेटी माध्यम से प्रधानमंत्री से देश को भारतीय भाषाओं व भारत का नाम दिलाने के लिए ऐतिहासिक संघर्ष करने वाले भारतीय भाषा आंदोलन की प्रमुख ध्वजवाहक देव सिंह रावत ने कहा कि हकीकत यह है कि शासको की इसी भूल के कारण
आज भी देश अपने नाम, अपनी भाषा व संस्कृति को तरस रहा है।
1949 में राजभाषा बनाई गई हिंदी सहित किसी भी भारतीय भाषाओं में आज देश में न तो न्याय मिलता है, न ही रोजगार, शिक्षा व सम्मान ही मिलता।
भारतीय भाषा आंदोलन ने आक्रोश प्रकट किया कि
अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति के 76वें साल देश की आजादी का अमृतोत्सव धूमधाम से मना रहा है तथा देश की हुक्मरानों द्वारा हुंकार भरी जा रही है कि अब देश विश्व गुरु व आर्थिक सामरिक महाशक्ति बन जायेगा। परंतु हकीकत यह है की अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति के 76वें साल बाद भी जब देश अपनी भाषा व नाम से बलात वंचित रखा गया। अभी लोकशाही के नाम पर देश को अपना नाम भारत व अपनी भारतीय भाषाओं में देश की व्यवस्था को संचालित करने की जगह पर उन्ही अंग्रेजों द्वारा थोपे गये इंडिया नाम व अंग्रेजों की ही भाषा अंग्रेजी को इस देश की शिक्षा, सम्मान, रोजगार, न्याय तथा शासन की राजभाषा बेशर्मी से जारी रखा है।

आजादी के बाद हिंदी दिवस के नाम के बजाय भारतीय भाषा दिवस मनाया जाता तो देश हित में अधिक हितकर होता। इससे भाषाई  संकीर्ण मानसिकता के तत्वों को जनता को गुमराह कर अंग्रेजी को बनाये रखने के षड्यंत्र में सहयोग मिलता।

यदि शासकों ने 1947 या 1949 में ही इसराइल और तुर्की की तरह देश की इस समस्या का समाधान समय पर कर दिया गया होता तो आज देश इस त्रासदी के दंश को नहीं झेल रहा होता। इसीलिए कहा गया है कि लम्हों की खता , सदियों ने पाई सजा।

गौरतलब है कि 14 सितम्बर 1949 को संविधान सभा ने यह निर्णय लिया कि हिन्दी केन्द्र सरकार की आधिकारिक भाषा होगी। क्योंकि भारत मे अधिकतर क्षेत्रों में ज्यादातर हिन्दी भाषा बोली जाती थी इसलिए हिन्दी को राजभाषा बनाने का निर्णय लिया । इसी के तहत प्रधानमंत्री नेहरू ने वर्ष 1953 से पूरे भारत में 14 सितम्बर को प्रतिवर्ष हिन्दी-दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद हिन्दी को आधिकारिक भाषा के रूप में स्थापित करवाने के लिए साहित्यकार राजेन्द्र सिंह ,काका कालेलकर, हजारीप्रसाद द्विवेदी, सेठ गोविन्ददास आदि साहित्यकारों ने अथक प्रयास किये।

1918 में गांधी जी ने हिन्दी साहित्य सम्मेलन में हिन्दी भाषा को राजभाषा बनाने को कहा था। इसे गांधी जी ने जनमानस की भाषा भी कहा था। वर्ष 1949 में स्वतंत्र भारत की राजभाषा के प्रश्न पर 14 सितम्बर 1949 को काफी विचार-विमर्श के बाद यह निर्णय लिया गया जो भारतीय संविधान के भाग 17 के अध्याय की अनुच्छेद 343(1) में इस प्रकार वर्णित र्है संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी। संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंकों का रूप अन्तरराष्ट्रीय रूप होगा। उल्लेखनीय यह भी है कि 14 सितम्बर को ही हिंदी के लिये समर्पित साहित्यकार राजेन्द्र सिंह का जन्म दिवस भी था।

भारतीय भाषा आंदोलन ने देश के हुक्मरानों पर गहरा कटाक्ष करते हुए कहा कि गांधी की के नाम पर राजनीति करने वाली लोग शायद भूल गई कि 1918 में महात्मा गांधी ने हिंदी साहित्य सम्मेलन में हिंदी को जनमानस की भाषा बताते हुये इस राजभाषा बनाने का संदेश दिया। पर हैरानी की बात यह है कि भले ही आज आजादी के 76वां साल है परन्तु देश में आज भी उसी अंग्रेजी भाषा की गुलामी भारत ढो रहा है। इसका मूल कारण रहा अंग्रेजों से देश की सत्ता प्राप्त करने के बाद देश के हुक्मरानों ने उसी समय देश को न तो देश को अंग्रेजों की भाषा अंग्रेजी की गुलामी से मुक्ति दिला कर प्राचीन व समृद्ध भारतीय भाषायें ही आत्मसात कर पाये व नहीं देश को विदेशी आक्रांताओं द्वारा भारतीय गौरवशाली नाम भारत मिटा कर अपना थोपा गया हेय नाम इंडिया की गुलामी से मुक्ति दिला पाये। जिसका दंश आज भी भारत ढोने के लिये अभिशापित है। होना तो यह चाहिये था देश विरोधी ताकतों व निहित दुराग्रही तत्वों के विरोध को दर किनारे करके देश को अपनी भाषायें व अपना नाम प्रदान करना चाहिये था। इसके समय पर न किये जाने के कारण करोडों भारतीय आज भी गुलामी इन प्रतीकों को अपने देश के गौरवशाली प्रतीक समझ कर न केवल आत्मसात कर रहे हें अपितु इनको हटाने की मांग पर ही आक्रोशित हो जा रहे हैं।
14 सितम्बर 1949 की संविधान सभा ने जब यह निर्णय लिया था कि देश के अधिकांश राज्यों की भाषा होने के कारण हिंदी को देश की राजभाषा बनायी जाती है। परन्तु कुछ लोगों के विरोध को देखते हुये उन्होने अंग्रेजी को 15 सालों के लिये राजभाषा के रूप में जारी रखने का निर्णय लिया। जो 1965 तक मान्य था। परन्तु 1963 से 1967 में तमिलनाडु में जिस प्रकार से हिंदी को राजभाषा को अंग्रेजी को राजभाषा से हटाने का विरोध किया वह इस पर राजनीतिक दलों ने जनता को गुमराह कर हिंसक आंदोलन चलाये। उसी की दवाब में आकर 1965 में तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री व 1967 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने यह आश्वासन दिया कि जब तक अहिंदी भाषी राज्य नहीं चाहेंगे तब तक अंग्रेजी देश की राजभाषा बनी रहेगी।
यही नहीं 1986 में तत्कालीन राजीव गांधी की सरकार द्वारा देश में बेहतर शिक्षा नाम पर चलाई गई नवोदय विद्यालय में हिंदी भाषा को पढ़ाये जाने का तमिलनाडु में भारी विरोध किया गया। विरोध को देखते हुए सरकार ने तमिलनाडु में नवोदय विद्यालयों की संचालन ही रोक दिया। इसी के साथ कस्तूरीरंगन कमेटी की सिफारिश के तहत और हिंदी भाषी राज्यों में त्रिभाषा पद्धति के अनुसार एक प्रांतीय भाषा व अंग्रेजी के साथ हिंदी को पढ़ाई जाने की अनुशंसा की गई। जिसका भी तमिलनाडु में हिंदी पढ़ाई जाने का भारी विरोध किया किया जिसको सरकार ने फिर वापस ले लिया। अब तमिलनाडु की विद्यालयों में हिंदी अनिवार्य भाषा न होकर स्वैच्छिक अन्य भाषा के रूप में विद्यार्थी सीख सकते हैं।
1947 से पहले भी मद्रास प्रान्त में जो अब तमिलनाडु के नाम से जाना जाता है, वहां 1937 में हिंदी विरोध का प्रचंड आंदोलन हुआ, जब सन् 1937में चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की प्रांतीय सरकार ने मद्रास प्रांत के विद्यालयों में हिंदी को लाने की कोशिश शुरू की। तब सी ए अन्नादुराई द्वारा स्थापित दल द्रविड़ कषगम (डीके) ने इसका विरोध किया था। विरोध बाद में हिंसक झड़पों में बदल गया, जिसमें दो लोगों की मौत भी हुई थी।
विषय पर तमिलनाडु में ही पहले से कहीं और ज्यादा हिंसक विरोध 1965 में दूसरी बार शुरू हुआ। हिंदी थोपने व अंग्रेजी हटाने के विरोध के नाम पर इस आंदोलन में 70 से अधिक लोग मारे गए थे।
तमिलनाडु राज्य में हिंदी के विरोध के पीछे वही कारण विद्यमान है जो देश की एकता और अखंडता के लिए अन्य राज्यों में भी घातक हो रहा है। इसके पीछे सबसे बड़ा प्रमुख कारण धर्मांतरण की षड्यंत्र में संलग्न मिशनरियों द्वारा वहां की समाज को प्रलोभनों व अन्य माध्यमों द्वारा भ्रमित करके वहां भारतीय संस्कृति के खिलाफ निरंतर जहर घोलने का काम किया जा रहा है और ऐसा नहीं है कि यह कार्य 1947 की बाद ही हो रहा है। यह कार्य अंग्रेजों व यूरोपियों के भारत में आने की समय से ही जारी है। यह षड्यंत्र किया गया शिक्षा के माध्यम से।

1833 से ही उन्होंने इस दिशा में अपने पांव पसारने शुरू कर दिये थे। यह कार्य किया गया द्रविड़ बनाम आर्यों के नाम पर। तमिलनाडु की आम अवाम को द्रव्यमान बताते हुए उन्होंने तमिलनाडु में सट्टा शिक्षा और व्यवस्था में काबिज ब्राह्मण समाज के खिलाफ खड़ा कर दिया। इसके लिए उन्होंने द्रविड़ भाषा तमिल का सहारा लिया। वहां की जनता को संस्कृत व हिंदी के खिलाफ खड़ा किया। इतना ही नहीं इन्होंने तमिल भाषा से भारतीय भाषाओं की माता समझे जाने वाली संस्कृत की शब्दों को भी बाहर करने का कृत्य किया। यही नहीं इन्होंने धार्मिक और सांस्कृतिक रूप से भी यहां जहर खोलने का कार्य किया। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण करुणा निधि के पौत्र व वर्तमान मुख्यमंत्री स्टालिन के बेटे उदयनिधी स्टालिन, तमिलनाडु सरकार में मंत्री की पद पर भी आसीन हैं उनके द्वारा सनातन धर्म के खिलाफ किया गया विष वमन है। ऐसी ही बयानबाजी तमिल नाडु सरकार के अन्य मंत्री भी करने में लगे हुए हैं।
तमिलनाडु में भारतीय संस्कृति के खिलाफ संलग्न मिशनरियों की इन विद्यालयों का जाल सन् 1852 में ही कितना गहन था यह इन आंकड़ों से साबित होता है। 1952 में मद्रास प्रांत में ही 1185 मिशनरी विद्यालयों का सघन जाल फैला हुआ था, जबकि इसी काल के दौरान बंगाल व मुंबई प्रांत में संयुक्त रूप से मात्र 472 विद्यालय थे। इसी कारण तमिलनाडु आज भी भारतीय संस्कृति व भारतीय भाषाओं का घर विरोधी बना हुआ है। यहां की शिक्षा साहित्य में देश की मूल धारा के खिलाफ जहर घुल गया है और विदेशी संस्कृति अंग्रेजी भाषा के लिए कटर रक्षक बने हुए हैं।
ऐसा नहीं कि यह कार्य केवल तमिलनाडु में ही हो रहा है अभी तो यही कार्य पूर्वोत्तर सहित अन्य राज्यों में जहां भी मिशनरी ने इस प्रकार से अपने पांव पसारे वहां इन्होंने भारतीय भाषा सहित भारतीय संस्कृति को जमींदोज करके ने का ही काम किया।
यह जहर इतना भारतीय प्रभावित समाज में इतना घातक फैल चुका है कि उनकी नस पर हाथ रखते ही यह इसके खिलाफ हिंसक विरोध पर उतर आते हैं। कि नहीं उनके पक्ष में अवसरवादी राजनीतिक दलों के साथ इस षड्यंत्र को हवा देने वाली देश विरोधी विदेशी ताकतें भी इस राष्ट्र हित व लोकहित के कार्य को लोकशाही व मानवता की दमन बताकर घड़ियाली आंसू बहाने लग जाते हैं। इसे देखकर देश की कमजोर सरकारें इसकी ठोस निर्णय लेने से कतराती रही।

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