दिल्ली सरकार के अधिकारों पर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद फिर उभरी एक प्रमुख मांग ‘कि दिल्ली को विधानसभा की जरूरत नहीं, नगर निगम है पर्याप्त
देवसिंह रावत
’शासन के लोकतांत्रिक स्वरूप में प्रशासन की वास्तविक शक्ति निर्वाचित सरकार के पास होनी चाहिए’ यह कहते हुये सर्वोच्च न्यायालय ने 11 मई 2023 को दिल्ली सरकार व केंद्र सरकार के मध्य चल रहे विवाद पर एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाते हुये कहा। खासकर दिल्ली सरकार व केंद्र के संवैधानिक प्रतिनिधी उपराज्यपाल द्वोनों के बीच दिल्ली की सत्ता को संचालित करने के अधिकारों पर फैसला देते हुये सर्वोच्च न्यायालय ने इस विवाद का पटाक्षेप किया। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की अगुवाई वाली न्यायमूर्ति हिमा कोहली व न्यायमूर्ति एमआर शाह की खण्ड पीठ ने सर्वसम्मति से फैसला दिया कि लोक व्यवस्था, पुलिस और भूमि जैसे विषयों को छोड़कर अन्य सेवाओं पर दिल्ली सरकार के पास विधायी तथा प्रशासकीय नियंत्रण है। पीठ ने साफ किया कि नौकरशाहों पर एक निर्वाचित सरकार का नियंत्रण होना चाहिए। उन्होंने कहा कि केंद्रशासित प्रदेश दिल्ली का ‘विशेष प्रकार का दर्जा है। सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने 2019 में न्यायाधीश अशोक भूषण के इस विषय पर दिये ‘दिल्ली सरकार के पास सेवाओं पर कोई अधिकार नहीं है’ वाले निर्णय को पलटते हुये कहा कि लोकतंत्र और संघवाद संविधान की मूल संरचना का हिस्सा हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने आदेश में कहा कि शासन के लोकतांत्रिक स्वरूप में प्रशासन की वास्तविक शक्ति निर्वाचित सरकार के पास होनी चाहिए। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि उपराज्यपाल प्रदेश की सरकार के विधायी दायरे से जुड़े मामलों के संबंध में दिल्ली सरकार के मंत्रियों की सलाह मानने तथा उनके साथ सहयोग करने के लिए बाध्य हैं।
सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले से गदगद हो कर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल व उनके दल आम आदमी पार्टी ने इसे लोकशाही के साथ दिल्ली की 2 करोड़ से अधिक जनता की जीत बताया। पर दिल्ली में विधानसभाई राजनीति में केजरीवाल के पदार्पण के बाद यह सवाल फिर से प्रमुखता से लोगों के जेहन में उठ रहा है कि दिल्ली में केंद्र सरकार, नई दिल्ली नगर पालिका व दिल्ली नगर निगम के होते हुये। बिना अधिकार वाली विधानसभा की क्या जरूरत है? दिल्ली की विशेष स्थिति को देखते हुये दिल्ली के राजनैतिक प्रबुद्ध लोग यह महसूस कर रहे हैं कि दिल्ली विधानसभा को पुन्न (1967 से 1992 के दौरान)भंग करके देश व दिल्ली को आराजकता से बचाने का दायित्व निभाये केंद्र सरकार।
दिल्ली में विधानसभा का पहला चुनाव 1952 में हुआ। 1967 से 1992 तक दिल्ली विधानसभा भंग थी। यहां पर महानगर परिषद का चुनाव होता था।उसके बाद 1993 में पुन्न दिल्ली विधानसभा को जीवंत कर इसका चुनाव कराया गया। दिल्ली का पूर्ण राज्य का दर्जा दिये जाने के नाम पर भाजपा, कांग्रेस व आप ने अब तक जम कर राजनीति की। परन्तु देश की राजधानी दिल्ली की स्थिति को देखते हुये दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं दिया गया। दिल्ली विधानसभा के अब तक के इतिहास पर नजर दौडाने से साफ नजर आता है कि दिल्ली के लिये नगर निगम ही पर्याप्त है। दिल्ली के लिये विधानसभा एक प्रकार से केवल राजनैतिक लोगों की अंध महत्वकांक्षा पूर्ण करने के लिये दिल्ली के विकास व देश के लिये सफेद हाथी ही साबित हुआ। दिल्ली विधानसभा में निर्वाचित सरकार के पास पुलिस, जमीन जैसे महत्वपूर्ण अंग केंद्र सरकार के पास है। ऐसे में दिल्ली सरकार के पास जो भी कार्य हैं उसको दिल्ली नगर निगम बहुत ही बखुबी से कर सकती है। केजरीवाल सरकार के कार्यकलापों पर नजर डालें तो साफ लगता है कि इस सरकार का अधिकांश समय केंद्र सरकार से टकराव में ही बर्बाद हुआ। जिस प्रकार की राजनीति केजरीवाल दिल्ली जैसे अति महत्वपूर्ण राज्य में करना चाहते हैं उससे संवैधानिक संकट व टकराव होना निश्चित है। शायद इसी प्रकार की आशंकाओं को देखते हुये संविधान निर्माताओं ने दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं दिया होगा। शायद इसी आशंका से 1967 से 1992 तक दिल्ली विधानसभा को भंग कर दिया गया।पिछले इतिहास व अनुभवों पर नजर दौडाने से साफ संदेश सामने आता है कि दिल्ली में आज के दिन विधानसभा की रत्तीभर भी जरूरत नहीं है। देश व दिल्ली के हित में भी यह जरूरी है कि टकराव व अंध महत्वकांक्षापूर्ति के लिये दिल्ली जैसे देश की राजधानी में दिल्ली विधानसभा की कोई जरूरत नहीं है। दिल्ली में आम जनता की जरूरतों की पूर्ति दिल्ली नगर निगम, नई दिल्ली नगर पालिंका व केंद्र सरकार अपने अपने दायरे में रह करती ही है। ऐसे में बिना दायरे के बिना काम के मुख्यमंत्री की जरूरत न देश को है व न दिल्ली को है। खासकर केजरीवाल जैसे मुख्यमंत्री जो एक फाइल पर अपने हस्ताक्षर करने को तैयार नहीं हैं और जो कोई सरकारी सुख सुविधाओं को ग्रहण न करने की हुंकार भर कर करोडों रूपये अपने आवास के मरमत व सजावट पर खर्च कर देते हों। ऐसी सरकार की दिल्ली व देश को कोई जरूरत नहीं।
दिल्ली यहां 4 बरी महानगर परिषद व सात बार विधानसभा के चुनाव हुये। दिल्ली की विधानसभाई इतिहास के दूसरे दौर में 1993 से 2014 तक 1993 में जहां भाजपा के मदनलाल खुराना मुख्यमंत्री बने पर इस पांच साल के कार्यकाल में भाजपा ने मदनलाल खुराना को हटा कर सुषमा स्वराज व बनाया। जिससे दिल्ली की जनता नाखुश रही। इसके बाद 1998, 2003 व 2003 तक के तीन कार्यकाल में कांग्रेस की शीला दीक्षित ने दिल्ली के मुख्यमंत्री के पद पर आसीन रह कर दिल्ली का चहुमुखी विकास किया। भले ही शीला दीक्षित विवादों व आरोपों में घिरी रही पर इसके बाबजूद वह दिल्ली के इतिहास में अब तक की सबसे सफल मुख्यमंत्री के रूप में जानी जाती है। इसके बाद दिल्ली की सत्ता पर 2013 में देश को भ्रष्टाचार मुक्त करने के नाम पर सत्तासीन हुये अण्णा हजारे के राजनैतिक विरोसत के प्रमुख केजरीवाल के नेेतृत्व वाली आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस के सहयोग से 2013 में दिलल्ी की सत्ता संभाली। उसके बाद 2015 में हुये नये चुनाव में केजरीवाल की पार्टी ने 70 विधानसभाई सीटों में से 67 सीटों पर जीत अर्जित कर भले ही अपने राजनैतिक विरोधियों भाजपा व कांग्रेस को धूल चटा दी। परन्तु 2023 तक आते आते दिल्ली की सत्ता में आसीन केजरीवाल की सरकार जनता की आशाओं के साथ देश की अपेक्षाओं पर अपने कथनी व करनी के अंतर के कारण खुद ही बेनकाब हो गयी। जहां एक तरफ केजरीवाल व उसकी पार्टी्र भ्रष्ट्राचार का सफाया करने के नाम पर राजनीति में पदार्पण हुई थी। परन्तु चंद सालों में ही वह व उसके मंत्री आदि नेता भ्रष्टाचार के दल दल में आकंठ घिर गये। केजरीवाल के अब तक की राजनीति पर नजर दौडाने से साफ लगता है कि उनका मकसद काम करने से अधिक प्रचार कर सत्ता पर काबिज करना रहा। उसके लिये संसाधनों व व्यक्तियों की सुचिता का कोई महत्त्व नहीं रह जाता। जिस प्रकार पंजाब की सत्ता में आसीन हो कर केजरीवाल अपने राजनैतिक विरोधियों का दमन करने के लिये राजसत्ता का दुरप्रयाग कर रहे हैं। उससे केजरीवाल व अन्य राजनैतिक दलों में कोई अंतर नजर नहीं दिखता।‘
सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले से गदगद हो कर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल व उनके दल आम आदमी पार्टी ने इसे लोकशाही के साथ दिल्ली की 2 करोड़ से अधिक जनता की जीत बताया। पर दिल्ली में विधानसभाई राजनीति में केजरीवाल के पदार्पण के बाद यह सवाल फिर से प्रमुखता से लोगों के जेहन में उठ रहा है कि दिल्ली में केंद्र सरकार, नई दिल्ली नगर पालिका व दिल्ली नगर निगम के होते हुये। बिना अधिकार वाली विधानसभा की क्या जरूरत है? दिल्ली की विशेष स्थिति को देखते हुये दिल्ली के राजनैतिक प्रबुद्ध लोग यह महसूस कर रहे हैं कि दिल्ली विधानसभा को पुन्न (1967 से 1992 के दौरान)भंग करके देश व दिल्ली को आराजकता से बचाने का दायित्व निभाये केंद्र सरकार।
दिल्ली में विधानसभा का पहला चुनाव 1952 में हुआ। 1967 से 1992 तक दिल्ली विधानसभा भंग थी। यहां पर महानगर परिषद का चुनाव होता था।उसके बाद 1993 में पुन्न दिल्ली विधानसभा को जीवंत कर इसका चुनाव कराया गया। दिल्ली का पूर्ण राज्य का दर्जा दिये जाने के नाम पर भाजपा, कांग्रेस व आप ने अब तक जम कर राजनीति की। परन्तु देश की राजधानी दिल्ली की स्थिति को देखते हुये दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं दिया गया। दिल्ली विधानसभा के अब तक के इतिहास पर नजर दौडाने से साफ नजर आता है कि दिल्ली के लिये नगर निगम ही पर्याप्त है। दिल्ली के लिये विधानसभा एक प्रकार से केवल राजनैतिक लोगों की अंध महत्वकांक्षा पूर्ण करने के लिये दिल्ली के विकास व देश के लिये सफेद हाथी ही साबित हुआ। दिल्ली विधानसभा में निर्वाचित सरकार के पास पुलिस, जमीन जैसे महत्वपूर्ण अंग केंद्र सरकार के पास है। ऐसे में दिल्ली सरकार के पास जो भी कार्य हैं उसको दिल्ली नगर निगम बहुत ही बखुबी से कर सकती है। केजरीवाल सरकार के कार्यकलापों पर नजर डालें तो साफ लगता है कि इस सरकार का अधिकांश समय केंद्र सरकार से टकराव में ही बर्बाद हुआ। जिस प्रकार की राजनीति केजरीवाल दिल्ली जैसे अति महत्वपूर्ण राज्य में करना चाहते हैं उससे संवैधानिक संकट व टकराव होना निश्चित है। शायद इसी प्रकार की आशंकाओं को देखते हुये संविधान निर्माताओं ने दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं दिया होगा। शायद इसी आशंका से 1967 से 1992 तक दिल्ली विधानसभा को भंग कर दिया गया।पिछले इतिहास व अनुभवों पर नजर दौडाने से साफ संदेश सामने आता है कि दिल्ली में आज के दिन विधानसभा की रत्तीभर भी जरूरत नहीं है। देश व दिल्ली के हित में भी यह जरूरी है कि टकराव व अंध महत्वकांक्षापूर्ति के लिये दिल्ली जैसे देश की राजधानी में दिल्ली विधानसभा की कोई जरूरत नहीं है। दिल्ली में आम जनता की जरूरतों की पूर्ति दिल्ली नगर निगम, नई दिल्ली नगर पालिंका व केंद्र सरकार अपने अपने दायरे में रह करती ही है। ऐसे में बिना दायरे के बिना काम के मुख्यमंत्री की जरूरत न देश को है व न दिल्ली को है। खासकर केजरीवाल जैसे मुख्यमंत्री जो एक फाइल पर अपने हस्ताक्षर करने को तैयार नहीं हैं और जो कोई सरकारी सुख सुविधाओं को ग्रहण न करने की हुंकार भर कर करोडों रूपये अपने आवास के मरमत व सजावट पर खर्च कर देते हों। ऐसी सरकार की दिल्ली व देश को कोई जरूरत नहीं।
दिल्ली यहां 4 बरी महानगर परिषद व सात बार विधानसभा के चुनाव हुये। दिल्ली की विधानसभाई इतिहास के दूसरे दौर में 1993 से 2014 तक 1993 में जहां भाजपा के मदनलाल खुराना मुख्यमंत्री बने पर इस पांच साल के कार्यकाल में भाजपा ने मदनलाल खुराना को हटा कर सुषमा स्वराज व बनाया। जिससे दिल्ली की जनता नाखुश रही। इसके बाद 1998, 2003 व 2003 तक के तीन कार्यकाल में कांग्रेस की शीला दीक्षित ने दिल्ली के मुख्यमंत्री के पद पर आसीन रह कर दिल्ली का चहुमुखी विकास किया। भले ही शीला दीक्षित विवादों व आरोपों में घिरी रही पर इसके बाबजूद वह दिल्ली के इतिहास में अब तक की सबसे सफल मुख्यमंत्री के रूप में जानी जाती है। इसके बाद दिल्ली की सत्ता पर 2013 में देश को भ्रष्टाचार मुक्त करने के नाम पर सत्तासीन हुये अण्णा हजारे के राजनैतिक विरोसत के प्रमुख केजरीवाल के नेेतृत्व वाली आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस के सहयोग से 2013 में दिलल्ी की सत्ता संभाली। उसके बाद 2015 में हुये नये चुनाव में केजरीवाल की पार्टी ने 70 विधानसभाई सीटों में से 67 सीटों पर जीत अर्जित कर भले ही अपने राजनैतिक विरोधियों भाजपा व कांग्रेस को धूल चटा दी। परन्तु 2023 तक आते आते दिल्ली की सत्ता में आसीन केजरीवाल की सरकार जनता की आशाओं के साथ देश की अपेक्षाओं पर अपने कथनी व करनी के अंतर के कारण खुद ही बेनकाब हो गयी। जहां एक तरफ केजरीवाल व उसकी पार्टी्र भ्रष्ट्राचार का सफाया करने के नाम पर राजनीति में पदार्पण हुई थी। परन्तु चंद सालों में ही वह व उसके मंत्री आदि नेता भ्रष्टाचार के दल दल में आकंठ घिर गये। केजरीवाल के अब तक की राजनीति पर नजर दौडाने से साफ लगता है कि उनका मकसद काम करने से अधिक प्रचार कर सत्ता पर काबिज करना रहा। उसके लिये संसाधनों व व्यक्तियों की सुचिता का कोई महत्त्व नहीं रह जाता। जिस प्रकार पंजाब की सत्ता में आसीन हो कर केजरीवाल अपने राजनैतिक विरोधियों का दमन करने के लिये राजसत्ता का दुरप्रयाग कर रहे हैं। उससे केजरीवाल व अन्य राजनैतिक दलों में कोई अंतर नजर नहीं दिखता।‘