– जगदीश ममगांई
(दिल्ली नगर निगम के पूर्व चेयरमैन व राजनीतिक विश्लेषक )
सन् 1862 में सरकारी अमले की देखरेख में दिल्ली के नागरिक प्रशासन की देखरेख के लिए ‘दिल्ली नगर आयोग’ गठित किया गया, सन् 1881 में इसका नाम ‘दिल्ली नगर समिति’ कर इसमें 21 लोग मनोनीत किए गए, मनोनयन में अंग्रेज़ों ने ‘बांटो एवं राज करो’ की मानसिकता को ध्यान में रखकर 6 हिंदू 6 मुसलमान, 3 अंग्रेज़ व 6 प्रशासनिक अधिकारियों को मनोनीत किया गया। दिल्ली तब पंजाब का एक सूबा था, लिहाजा पंजाब के अंतर्गत दिल्ली नगर समिति कार्य करने लगी। टाउन हॉल, जो उस समय सभा भवन के नाम से जाना जाता था, उसमें दिल्ली नगर समिति कार्य करने लगी। मनोनीत सदस्यों को अंग्रेजों का पिट्ठू समझा जाता और वह सम्मान नहीं प्राप्त कर पाए, लिहाजा सन् 1884 में दो वर्गीय व्यवस्था की गई। इसके अंतर्गत दिल्ली नगर समिति के क्षेत्र को 12 हिस्सों में बाँटकर 12 वार्ड बना दिए गए तथा 12 प्रतिनिधियों का चुनाव कराया गया, 5 सदस्य मनोनीत तथा 4 अधिकारी शामिल किए गए। व व्यक्ति का चुनाव किया गया, समिति का पदेन अध्यक्ष दिल्ली के उपायुक्त को बनाया गया।
सन् 1912 में नगर समिति के अधिनियम में बदलाव किया गया, सदस्यों की कुल संख्या 21 से बढ़ाकर 25 कर दी गई। हालांकि निर्वाचित प्रतिनिधियों की संख्या 12 से घटाकर 11 कर दी गई, जबकि मनोनीत सदस्यों की संख्या 5 से बढ़ाकर 11 किया गया, अधिकारी भी 4 से 3 हो गए। सन् 1921-22 में अधिनियम में पुनः संशोधन कर समिति को 36 सदस्य कर दिया। समिति के 12 वार्डों में प्रत्येक से एक हिंदू व एक मुस्लिम प्रतिनिधि का चुनाव किया गया, इस प्रकार 24 सदस्य निर्वाचित हुए। 4 सदस्य मनोनीत व दो अधिकारी सदस्य लिए गए। एक नई व्यवस्था तय हुई, जिसमें 6 विशेषज्ञ शामिल किए गए। सन् 1936 में सदस्यों की संख्या 36 से बढ़ाकर 44 कर दी गई, इसमें वार्डों का परिसीमन किया गया। 28 सदस्य जनता द्वारा निर्वाचित किए गए, 7 मनोनीत, 6 विशेषज्ञ व 3 पदेन अधिकारी सम्मिलित किए गए। सन् 1946 में पदेन सरकारी प्रतिनिधि की जगह सदन के 44 सदस्यों को अपने बीच से अध्यक्ष चुनने का अधिकार दिया गया, पहली बार जनता द्वारा निर्वाचित पार्षद, दिल्ली नगर समिति का अध्यक्ष बना।
15 अगस्त, 1947 को भारत स्वतंत्र हो गया, सन् 1951 में सदस्यों की संख्या बढ़कर 63 हो गई। इनमें से 50 चुनाव के माध्यम से आए। निगम वार्डों की संख्या 47 हो गई, इनमें से तीन वार्डों में अनुसूचित जाति का एक अतिरिक्त सदस्य चुना गया, पहली बार द्वि-सदस्यीय प्रणाली लागू की गई। 4 प्रतिनिधि उद्योगपति व व्यापारी वर्ग से, 2 सदस्य मजदूर वर्ग से तथा 4 पदेन अधिकारी आए। सन् 1957 में, दिल्ली नगर निगम अधिनियम 1957 को पारित कर विधायिका का रुप दिया गया, नई व्यवस्था में संस्था का नाम दिल्ली नगर निगम कर दिया। इसके जिम्मे केंद्र शासित दिल्ली की नगरीय व्यवस्था थी, भारतीय संसद् में पारित प्रस्ताव के आधार पर 7 अप्रैल, 1958 को दिल्ली नगर निगम का गठन किया गया, उस समय दिल्ली की जनसंख्या 15.5 लाख थी। इसमें 80 सदस्य चुनाव द्वारा निर्वाचित किए गए तथा 6 एल्डरमैन मनोनीत हुए, इसका कार्यकाल 4 वर्ष का रखा गया। दिल्ली विद्युत प्रदाय समिति, दिल्ली जल मल प्रदाय समिति, दिल्ली परिवहन समिति, दिल्ली अग्निशमन सेवा, सफाई, स्वास्थ्य, बागवानी, प्राथमिक शिक्षा व गृहकर जैसे सभी प्रमुख विषय दिल्ली नगर निगम के अंतर्गत आ केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त निगम आयुक्त को प्रशासनिक अधिकार दिए गए। संपूर्ण निगम क्षेत्र को 6 जोनों में बांटा गया। स्वतंत्रता सेनानी श्रीमती अरुणा आसफ अली दिल्ली की पहली महापौर बनी, 11 अप्रैल, 1958 को पहली बार गठित दिल्ली नगर निगम का उद्घाटन भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु ने किया।
54 वर्षों तक दिल्ली नगर निगम एकीकृत रहा, वर्ष 2012 में राजनीतिक स्वार्थ के चलते इसके तीन टुकड़े कर दिए गए थे जिससे न केवल कार्यक्षमता प्रभावित हुई बल्कि निगम आर्थिक दबाब के कारण दिवालिया स्थिति में आ गई हैं। न केवल निगम अधिकारी व पार्षद भ्रष्टाचार में लिप्त रहे बल्कि संस्थागत भ्रष्टाचार व अनाचार ने सेवा करने वाले निगम को आमजन की नजर में खलनायक बना दिया। निगमकर्मियों को वेतन देना मुश्किल हुआ, विकास योजनाएं भी लगभग ठप्प सी हो गई हैं। लेकिन केन्द्र सरकार ने तीनों नगर निगम का एकीकरण कर न केवल दिल्ली नगर निगम के गौरव को पुनर्स्थापित करने का कार्य किया है बल्कि इसकी आर्थिक स्थिति सुधारने का भी कार्य किया है।
दिल्ली नगर निगम की बेहतरी के लिए वर्ष 2022 में एकीकरण के निमित्त केन्द्र सरकार ने फिर संशोधन किया है, हालांकि बेहतर स्वरुप तो जबाबदेही झेलते निर्वाचित प्रतिनिधियों को मेयर-इन-काउंसिल के तहत अधिकार देकर ही हो सकता है। चूंकि तीन निगम करने से न केवल दिल्ली का नागरिक प्रशासन बिखर गया बल्कि 2500 करोड़ के घाटे में चल रहा एकीकृत निगम विभाजन के बाद लगभग 15000 करोड़ से अधिक के घाटे में पहुंच गया था। त्रिविभाजन को रद्द करना, प्रशासनिक क्षमता सुधारने व आर्थिक दबाब कम करने में सहायक होगा लेकिन घाटे की भरपाई के लिए कुछ कड़े कदम भी उठाने पड़ सकते हैं। कर्मचारियों के वेतन, सेवानिवृत कर्मचारियों को उनके अच्छे-बुरे समय के लिए संचित जीपीएफ, ग्रेच्युटी व पेंशन तथा नियुक्ति संबंधी तकलीफों के समाधान के लिए राजस्व बढ़ाना होगा।
दिल्ली सरकार से अनुदान कम मिलने के कारण वेतन न दे पाने का आरोप निगम लगाता रहा है जबकि निगम को वेतन का प्रबन्धन गैर-योजनागत मद के तहत राजस्व के माध्यम से ही करना होता है क्योंकि वित्त आयोग स्पष्ट कहता है कि योजनागत मद के तहत प्राप्त अनुदान का 75 प्रतिशत सड़कों, गलियों, नालियों, फुटपाथ, पार्किंग आदि पर, 10 प्रतिशत का उपयोग पूंजीगत संपत्ति के सुधार और रखरखाव पर तथा 5 प्रतिशत का उपयोग पार्कों, बागवानी, हरियाली आदि पर ही होना चाहिए। यदि दिल्ली सरकार से प्राप्त अनुदान वेतन की बजाए, दैनिक सेवाओं को बेहतर करने के लिए हो, तो दिल्लीवासियों को लाभ होगा। दिल्ली सरकार ने इस वर्ष के बजट में 6100 करोड़ रुपए की धनराशि निगम के निमित्त रखी है, यह जरुरी है कि निगम को दी जाने वाली इस राशि को दिल्ली सरकार को वित्त वर्ष के आरंभ यानी अप्रैल माह में दे देना चाहिए। यदि अपने आर्थिक प्रबन्धन में उसे मुश्किल हो और चार तिमाही किश्तों में देने का प्रावधान करना जरुरी हो तो प्रत्येक तिमाही के प्रथम सप्ताह में ही निगम को देय किश्त का भुगतान कर देना चाहिए।
दिल्ली नगर निगम का चुनाव आगामी 4 दिसंबर 2022 को होने वाला है। सफाई, स्वच्छता, हरियाली, प्राथमिक शिक्षा, रोजगार, पक्के थड़े-गलियां-फुटपाथ, सामुदायिक सेवा, पार्किंग आदि सेवाएं देने वाली दिल्ली नगर निगम दिल्लीवासियों की जीवन-रेखा है, इसकी बेहतरी व सशक्तीकरण के लिए सबको मिलकर प्रयास करना होगा। निगम की आर्थिक स्थिति किसी से छुपी नहीं है, कर्मचारियों को 3-6 महीने वेतन देने में तो असमर्थ है ही, तकलीफ यह है कि सेवानिवृत कर्मचारियों को पेंशन व जिंदगी भर की जमा-पूंजी तक निगम ने हजम कर ली है, जो किसी ने बच्चों की शादी के लिए बचाई है, मकान बनाने या गांव में बसने के लिए बचाई होती है। उनके इलाज के 26 करोड़ के बिल देय हैं और सभी दल बेशर्मी से जीतने पर रेवड़ी बांटने के झूठे वादे कर जनता को ठगने का प्रयास कर रहे हैं, ‘निगम में नहीं दाने नेता चले भुनाने’!
निगम कर्मचारियों के वेतन के लिए लगभग 9500 करोड़ रुपए वार्षिक की आवश्यकता है, सामान्य स्थिति में लगभग 6000 करोड़ रुपए का राजस्व निगम अर्जित करता है यानी राजस्व में वृद्धि के लिए प्रशासन को चुस्त-दुरुस्त, भ्रष्टाचार पर अंकुश व कर-एकत्रीकरण में सुधार लाना होगा। दिल्ली में अनधिकृत कालोनियों, अनधिकृत नियमित, शहरीकृत व ग्रामीण तथा अन्य क्षेत्र में लगभग 25 लाख निर्माण, निगम से नक्शा पास कराए बिना ही हुए हैं, जिन्हें नियमित करने के लिए व्यवहारिक भवन उपनियम बनाने आवश्यक हैं लिहाजा दिल्ली में भवन उपनियमों को बनाने का अधिकार डीडीए व केन्द्रीय शहरी विकास मंत्रालय से लेकर दिल्ली नगर निगम को सौंप देना चाहिए। निगम इन क्षेत्रों के लिए विशेष उपनियम बना निर्मित व प्रस्तावित बिल्डिंग प्लान पर शुल्क इकट्ठा कर राजस्व में वृद्धि कर सकता है।
भवनों और खाली भूमि पर संपत्ति कर देना अनिवार्य है, निगम अभी 20 प्रतिशत संपत्ति पर ही कर इकट्ठा कर पा रहा है। 2.5 लाख जनसंख्या वाली एनडीएमसी लगभग 700 करोड़ रुपए संपत्ति कर के रुप में वसूलती है जबकि 1.64 करोड़ जनसंख्या वाली दिल्ली नगर निगम बामुशकिल 12 लाख संपत्तियों से, 2000 करोड़ रुपए तक पहुंच पाई है और इसे उपलब्धि बता रही है हालांकि निगमों द्वारा वर्ष 2020-21 में 3500 करोड़ रुपए से अधिक संपत्ति कर एकत्र करने का प्रक्षेपण दिया गया था। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार निगम क्षेत्र में 45 लाख से अधिक आवासीय इकाई व 5 लाख खाली भूमि चिह्नित की गई, गत 11 वर्षों में इसमें वृद्धि हुई है, वर्तमान में निगम क्षेत्र में बिजली धारकों को देखें तो यह संख्या 61 लाख से अधिक है। विभिन्न निजी व सरकारी निकाय भवन संपत्ति कर नहीं दे रहे हैं, विभिन्न न्यायालयों में निगम इनके साथ मुकदमेबाजी में उलझा है। न्यायालयों में लंबित मामलों के शीघ्र निपटान के लिए प्रयास करने चाहिए, निगम कराधान न्यायाधिकरण द्वारा इन्हें सौहार्दपूर्ण तरीके से न्यायालय से बाहर निपटाया जाना चाहिए। संपत्ति कर/सेवा शुल्क के लिए डीडीए पर 800 करोड़ से अधिक बकाया हैं, दिल्ली मेट्रो सहित कई सरकारी संपत्तियों पर कराधान पर विवाद है, केन्द्र सरकार/उपराज्यपाल इस वसूली में मदद कर सकते हैं।
कई मॉल/व्यवसायिक केन्द्रों पर आवासीय से व्यवसायिक कराने का कन्वर्शन शुल्क (प्रत्येक पर करोड़ों रुपए) बकाया है। निगम मूल्यांकन समिति, प्रत्येक 3 वर्ष में संपत्ति कर की श्रेणी का निर्धारण व समीक्षा करती है, पिछली समिति वर्ष 2017 में गठित हुई थी। तुरंत नई समिति गठित करने की आवश्यकता है, संपत्ति के मूल्यांकन में आवधिक संशोधन की प्रणाली को उपभोक्ता मूल्य सूचकांक से जोड़ा जाना चाहिए, इससे संपत्ति कर की दरें वस्तुपूरक होंगी। टोल टैक्स, विज्ञापन, पार्किंग, लाइसेंसिंग में समुचित वसूली व भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना जरुरी है। बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के लिए निगम को पूंजीगत लागत का 50 प्रतिशत तक केन्द्र सरकार द्वारा जवाहरलाल नेहरु राष्ट्रीय शहरी नवीकरण मिशन (जेएनएनयूआरएम) की तर्ज पर व 20 प्रतिशत तक दिल्ली सरकार द्वारा वहन करना चाहिए। दिल्ली सरकार से संबंध बेहतर बना, निगम उनसे आग्रह कर 3600 करोड़ रुपए के कर्ज की माफी करवा सकता है।
(लेखक जगदीश ममगांई राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन के राष्ट्रीय सह-संयोजक, दिल्ली नगर निगम के पूर्व चेयरमैन व राजनीतिक विश्लेषक हैं)