उत्तराखंड देश

हिंदू व भारत के अधःपतन की जड़ जाति व्यवस्था को तुरंत समाप्त किया जाय

हिंदू जाति एवं भारत का भविष्य

-आचार्य ओम प्रकाश

भारत को स्वतंत्र हुए 75 वर्ष का लंबा समय बीत चुका है।  भारतवासी आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं। परंतु यह दुखद और गहन चिंतन का विषय है कि भारत अपनी आजादी के इतने दशक बीतने के बाद भी अपनी मौलिक समस्याओं का समाधान नहीं कर सका है। उसमें से एक है हिंदू धर्म में जातिवाद की समस्या। सारा संसार जानता है कि हिंदू जाति चार वर्णों में विभाजित है ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। पहली तीन जातियां स्वर्ण जातियां मानी जाती है। और चैथी शूद्र जाति हजारों वर्षों से उत्तर वैदिक काल के बाद से अस्पृश्यता का अभिशाप भोग रही है।

भारत के महानगरों में मिलीजुली संस्कृति जन्म ले चुकी है । भारत के विभिन्न भागों में लोग आकर बसे हैं। कुछ  हालात बदल जाने के कारण और कुछ शिक्षा के कारण शहरों में छुआछूत नहीं है। सवर्ण के मन में अछूत हिंदू के प्रति भले ही हीन भावना रहती है। परंतु इतनी सभ्यता आ गई है कि प्रत्यक्ष में हुए मुंह से कुछ नहीं कहते। इसके विपरीत भारत के अधिकांश गांवों में आज की तारीख में भी छुआछूत की भरमार है । सवर्ण  हिंदुओं को अछूतों पर मनमाने अत्याचार करने में कोई संकोच नहीं होता । उस अत्याचार की बर्बरता के विरुद्ध कोई सुनवाई नहीं होती ।उनकी आवाज को दबा दिया जाता । परंतु कुछ घटनाएं मीडिया के माध्यम से जनता की जानकारी में आ जाती है।  उत्तराखंड राज्य की एक घटना गत मई माह में प्रकाशित हुई है। अल्मोड़ा जिले के किसी गांव में  दर्शन लाल के पुत्र  का विवाह था। घोड़ी चढ़ी के रस्म  के दौरान उसी ग्राम के स्वर्ण महिलाओं ने घोड़े से जबरन उतार दिया और यह भी धमकी दी गई कि उसके भाग्य से ग्राम का पुरुष वर्ग घर पर नहीं है अन्यथा वर्षों पूर्व हुये कफल्टा  जैसा हाल  उनका किया जाता। दर्शन लाल में घटना की शिकायत सभी संबंधितों तक पहुंचाई। प्रधानमंत्री कार्यालय तक भी शिकायत की गई । मुख्यमंत्री श्री धामी ने उस पर क्या कार्रवाई की इसका पता नहीं चला । हो सकता है मामूलीे चेतावनी देकर इस मामले को निपटा दिया गया हो। जैसा कि आमतौर पर वह तो आता है । राजस्थान, तमिलनाडु आदि कुछ राज्यों में आज भी बर्बरता है । परंतु गढ़वाल सहित उतराखण्ड प्रदेश में आमतौर पर लोग लोगों के बीच गांव में एक किस्म का भाईचारा पुराने समय से ही देखने को मिलता है।
आज तो सार्वजनिक स्थानों में सब एक ही टेबल पर खाते पीते हैं। किसी को किसी जाति पूछने की जरूरत नहीं होती है। लोग साठ सतर वर्ष  पूर्व घटित डोला पालकी आंदोलन को पूरी तरह भूल चुके हैं। इस जघन्य घटना ने इस आंदोलन की याद दिला दी। उत्तराखंड की  शूद्र जाति की जनता को यह सोचने को मजबूर किया है कि जातिवाद की घृणित परंपरा से अभी अनंत काल तक संघर्ष करना पड़ेगा।
सुधार कार्य
उतराखण्ड के गढ़वाल मंडल में समाज सुधार का काम पहले पहल आर्य समाज के माध्यम से हुआ था। क्रांति कर्मवीर जयानंद भारती ने 1919 में से लेकर अपनी मृत्यु पर्यंत सितंबर 1952 तक, आर्य समाज के मंच से समाज सुधार का काम किया था। हिंदू धर्म से रूढ़ियों  और अंधविश्वास को समाप्त करने में आर्य समाज की महती भूमिका है। आज तो प्रदेश में आर्य समाज के जीवन दर्शन में आस्था रखने वाले अनगिनित  सवर्ण भी सर्वत्र मिल जाएंगे।  उस अंधकार युग में भी जब  कम स्कूल खुले थे, न लोगों को सभ्यता और संस्कृति से कोई सरोकार था। पीड़ित दलित तो हर तरह से दुर्बल था।  काम मांग कर खाने वाला वर्ग ं। जयानंद भारती ने अपने अदम्य साहस से स्थान स्थान परमार स्वीकार व अपमानित होकर भी  समाज सुधार की धुन नहीं छोड़ी। थोड़े समय बाद उनके समाज सुधार कार्यों को देखकर वैदिक धर्म के सिद्धांतों से प्रभावित होकर सवर्ण जातियों के भी कुछ सुधीजन,  उदार मना लोग उनके साथ आर्य समाज के प्रचार कार्य में शामिल हो गए। उनमें से एक थे भुवनेश विद्यार्थी । जो कि जाति से ब्राह्मण थे। वे  तत्कालीन आर्य जन प्रतिनिधि सभा के प्रधान रहे थे। उनके तथा भारती जी के संयुक्त हस्ताक्षर से एक दो पृष्ठ का विज्ञापन 5 दिसंबर 1952 को आर्य तथा परिगर्वित शीर्षक से जारी किया गया था। इस विज्ञापन में सलाह दी गई थी कि गढ़वाल के जो भाई (शूद्र) आर्य समाज से प्रभाहित होकर आर्य समाज के सदस्य बनते हैं और अपने नाम के साथ आर्य लिखते हैं, वे अनुसूचित जाति को मिलने वाले आरक्षण का लाभ नहीं लें । यह बहुत ही अच्छा सुझाव था।  जिसका आशय था कि कुछ समय के बाद आर्य समाज में आने वाले अछूत हिंदू भी समाज की मुख्यधारा में मिल सकेंगे। आर्य शब्द श्रेष्ठ का धोतक है। हिंदुओं में आर्य ग्रंथ वेद का वाक्य है कृण्वंतो विश्वमार्यम्। समस्त संसार को  आर्य अर्थात श्रेष्ठ बनाओ । परंतु दुर्भाग्य से आर्य शब्द का प्रदेश में अपना मूल अर्थ खोकर यहां शूद्र शब्द का पर्यायवाची बन गया। पढ़े लिखे लोग भी भ्रमित हो गए। उत्तराखंड के देहरादून का एक सुप्रसिद्ध इलाका है आर्य नगर । जहां डीएवी कॉलेज देहरादून के बहुत से प्राध्यापकों के भी घर हैं।गढ़वाली समाज के जो आरडब्ल्यू  संस्था मंत्री बनी, उसमें चर्चा होने के बाद यह निर्णय लिया गया कि आर्य नगर का नाम कुछ और रखा जाये। इस प्रस्ताव को नगर पालिका के पास भेजा गया । परंतु नगर पालिका ने  ठोस कारण न होने से आर्य नगर का नाम बदलने में अपनी असमर्थता व्यक्त की । हिंदू जाति का दुर्भाग्य नहीं होता तो बौद्धिक वर्ग इस शब्द का मूल अर्थ को सर्वसाधारण के ध्यान में लाने का प्रयास करता। लेकिन जब बौद्धिक वर्ग के अंतस में ंही शुद्र जाति के प्रति हीन भावना है तो फिर समस्या तो बनी ही रहेगी।
इस देश का मूल नाम  आर्यावर्त है। जैसा कि पंचांग का वाचन करते हुए आर्य ही कहा जाता है। यह संज्ञा इसलिए है कि इस देश को जो मूल निवासी थे वे आर्य कहलाते थे। लेकिन तर्क का प्रश्न नहीं, संस्कारों की दासता की बात है। ‘उतराखण्ड समग्र ज्ञानकोश’ डा राजेंद्र प्रसाद बलोदी ने परिश्रम पूर्वक तैयार किया। कई वर्षों की मेहनत  इस ज्ञान कोश की रचना करने में पूर्व प्राचार्य  डा राजेंद्र प्रसाद बलोदी की लगी हुई है। यह ज्ञानकोश वर्ष 2008 में प्रकाशित किया गया था। परन्तु रूढिगत जाति के मामले में प्राचार्य की सोच जरा भी नहीं बदली है। इस कोश में शिल्पकार जातियों का विवरण देते हुए पृष्ठ संख्या 173 पर लिखते हैं कि वर्तमान में स जाति के लोग भी आर्य कहलाते है। अर्थात लेखक के मूल जन्म जाति के संस्कार ने उन्हें उपर नहीं उठने दिया। यह वाक्य इसलिए लिखा गया कि शूद्र किसी नाम से भी अपनी जाति को छिपा नहीं सके। यही दुर्भाग्य है हिंदू जाति का। यदि हिंदू का मन मस्तिष्क प्रगतिशील विचारों का होतो तो जिस हिहंदू जाति की बहुत बडी संख्या के लोगों का शुद्र नाम देकर पिछले पांच हजार वर्ष से भी अधिक समय से समथ्र सवर्ण हिंदू जातियों ने दीन हीन बनाये रखा। आयुनिक युम में आकर वे अज्ञान, अंधकार युग में हुए अपने पूर्वजों के अमानवीय व्यवहार पर प्रायश्चित करते, समस्त मानवीय अधिकार उन्हे देते। शिक्षा, रोजगार आदि के द्वारा इनका जीवन स्तर ऊंचा उाने का सतत प्रयास करते और अपने समकक्ष लाकर हिंदुओं की इस विशाल जनसंख्याको अपने में मिलाकर अपनी जनसंख्या का अनुपात बढ़ाने में लग जाते। सके साथ रोटी बेटी का संबंध स्थापित करने लगते। क्योंकि परमात्मा ने तो केवल स्त्री और पुरूष दो जातियों की रचना की हैं परन्तु ऐसे नहीं हो सका। अभिशाप जो कार्य कर रहा है यही दुर्बुद्धिहिंदू जाति को कंगाल बनाये रखेगी और आत्मा परमात्मा के एकता का मात्र बखान करने वाली। यह आर्य जाति विनष्ट होती रहेगी। अतः डा बलोदी जैसे विद्धान बजाय यह लिखते कि स्वतंत्र भारत में जाति प्रथा हिंदू धर्म, हिंदू जाति के पराभव का बहुत बडा कारण है।
इस जातिप्रथा को युद्धस्तर पर समाप्त किया जाना चाहिए। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने अपने एक निबंध ‘तुम्हारी जाति  की क्षय’ में यह चेतावनी बहुत पहले दे चूके है। जब देश गुलाम था। अंग्रेजों को हिंदू धर्म की जाति प्रथा को समाप्त करने में कोई दिलचस्पी नहीं थी। बल्कि अपने तंत्र को बनाये रखने के लिए उन्होने हिंदू मुसलाम को तो धर्म के नाम पर अलग किया और हिंदुओं को जाति प्रथा को भुनाकर अपने लिए लाभकारी समझकर इसे बने रहने दिया था। उनके शासन का मूल मंत्र ही यही था कि फूट डालो और राजकरो। परन्तु जब तंत्र अपना हो गया तो पिछले 75 वर्षों में जाति प्रथा को समाप्ति के लिए ठोस उपाय नहीं किये गये। राजनीति और राजनेता जाति प्रथा को समाप्त नहीं करेंगे। एक दो मास पहले पांच राज्यों में अपना उम्मीदवार प्रत्येक दल ने उसकी योग्यता, सेवाभाव को देखकर नहीं बनाया केवल उसकी जाति देखी गई। जाति के सामने अभी गुण योग्यता की पूछ बहुत कम है। अस्पृश्यता निवारण के लिए बने कानूनों को सख्ती से लागू किया जाये। जिनके कार्यावयन का दायित्व अधिकांश में सवर्ण के हाथ में है। यह भी तत्य है कि कि आज सभी शिक्षित है। शूद्र कोई नहीं रह गया है। आज जिन्हें शूद्र  शूद्र कहा जाता है। जिनका जन्म के आधार पर तिरस्कार किया जातिा है। वे भी स्वाभिमान को बचा के  रखते है।  वे जातिवाद से अपनी रक्षा का प्रत्येक संभव उपाय करेंगे। इन्हें समस्त मानवीय अअधिकार प्रदान किये जांये और हिंदू धर्म को वास्तविक अर्थों में धर्म का स्वरूप प्रदान किया जाये। यह सोचने की बात है कि हिंदू जाति और भारत के भविष्य के अधःपतन की जड़ वर्ण आदि जाति व्यवस्था को तुरंत समाप्त किया जाना चाहिए। भारत के और टुकडे होने से बचा लिया जाये। मुसलमान और ईसाई धर्मावलंबी हिंदू धर्म और हिंदू जाति की जाति प्रथा का लाभ उठाकर ही अपनी जनसंख्या लगातार बढाने में लगे है।  कण-कण में ईश्वर का वास है यह मानने वालों को अपने जैसे मनुद्यय में भी भगवान दिखाई देना चाहिए।

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