तालिबान से अधिक गुनाहगार हैं संयुक्त राष्ट्र संघ, अमेरिका, रूस, चीन व पाकिस्तान
तालिबान व चीन की हैवानियत के आगे नपुंसक क्यों है विश्व?
देव सिंह रावत
इसी सप्ताह 15 अगस्त को जब भारत अपना स्वतंत्र दिवस मना रहा था उसी दिन संयुक्त राष्ट्र संघ व अमेरिका द्वारा आतंकी संगठन घोषित तालिबान अफगानिस्तान की सत्ता सरकार को बेदखल कर ताकत के बल पर सत्तासीन हो गया। न संयुक्त राष्ट्र संघ तथा नहीं अमेरिका,रूस व चीन इत्यादि किसी भी देश को इतनी हिम्मत रही कि वे बिलखते रोते अफगानिस्तान की आवाम की दर्द भरी पुकार सुनकर लोकशाही एवं मानवता की रक्षा में अफगानिस्तान में हस्तक्षेप कर वहां तालिबान को सत्तासीन होने से रोकने या जनहितों को रौंदने से रोकने का अपना दायित्व निभाते।
संसार के अन्य अशांत देशों में शांति सेना भेजने वाला संयुक्त राष्ट्र संघ व विश्व को मानवता-लोकशार्हीं का सबक सिखाने वाले स्वयंभू विश्व थानेदार बना अमेरिका भी इस त्रासदी में घिरे अफगानिस्तान की जनता व उसकी सरकार को तालिबान के रहमों करम पर छोड़ने में तमाशबीन बने रहे। यही नहीं विश्व के स्वयंभू महा शक्तियां तमाम विश्व संगठन, मानव अधिकार संगठन, महिला अधिकार संगठन सहित अफगानिस्तान के पड़ोसी देश ईरान, टर्की सहित तथाकथित इस्लामिक देश, रूस सहित सोवियत संघ के विखंडन देश, चीन,पाकिस्तान व भारत आदि सभी देश मूकदर्शक बने रहे।
अफगानिस्तान की जनता व तत्कालीन गनी सरकार विश्व समुदाय से बार-बार सहायता की गुहार लगाती रही परंतु मानवीय मूल्यों व लोक शाही के स्वयंभू ठेकेदार विश्व समुदाय निर्लज्जता की तरह मूक बना रहा।
यही नहीं जिस बेशर्मी से चीन, पाकिस्तान और रूस ने तालिबान सरकार को मान्यता दी तथा अमेरिका ने पूरी तरह से अफगानिस्तान में काबिज होने का जो संरक्षण और रास्ता दिया उससे पूरी मानवता शर्मसार हुई।
यह पहला मौका नहीं है कि विश्व की यह सबसे बडी संस्था व बडे देश बेनकाब हुए। 2020 से लेकर अब तक कोरोना महामारी में चीन जिस प्रकार से कटघरे में घिरा हुआ है और चीन के छुपाव व असहयोग के कारण इस महामारी से एक करोड़ से अधिक लोग मारे गये। चीन को छोड कर पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था तबाह हो गयी। चीन पर इस महामारी के फैलाने या जैविक हथियार से विश्व मानवता का संहार करने के आरोप लगे परन्तु चीन पर न संयुक्त राष्ट्र व नहीं अन्य देश अंकुश लगा सका। अमेरिका, भारत, रूस व यूरोपीय देशों में लाखों लोग मारे गये। संसार के 220 देशों में यह तबाही मची। पर शर्मनाक मौन है। विश्व संगठन अप्रासंगिक साबित हुआ। मानवता पर भयंकर खतरा मंडरा रहा है।
संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव तथा संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद में 1 माह के लिए अध्यक्ष बने भारत की पहल पर आयोजित हुई गोष्ठियां केवल बयानबाजी व गंभीर चिंतन मंथन करने के अलावा एक ठोस कदम भी नहीं उठा पाये।
केवल ताकत की भाषा समझने वाला तालिबान विश्व समुदाय की कायरता पर एक प्रकार का उपहास उड़ा रहा था।
हालांकि इस बार तालिबान ने ऐलान किया कि अफगानिस्तान में लोकशाही नहीं अपितु इस्लामिक कानून वह भी शरिया के अनुसार भी संचालित किया जाएगा।
अफगानिस्तान का नाम व झंडा बदल कर नई सरकार बनाने के लिए तैयार तालिबान ने ऐलान किया कि महिलाओं को सरिया के अनुसार ही कार्य करने की छूट मिलेगी।
हालांकि अभी तक यह सही नहीं हुआ की तालिबान सरकार में राष्ट्रपति कौन होगा। परंतु जिस प्रकार से अटकलें लगाई जा रही है कि मुल्ला बरादर गनी ही तालिबान सरकार की सत्ता संभालेंगे हालांकि तालिबान संगठन में उनका सर दो नंबर का है। तालिबान के सर्वोच्च कमांडर जिनको अमीर की उपाधि से तालिबान संबोधित करता है क्या वह सत्ता की बागडोर संभालेंगे इसी निर्णय पर ही तालिबान के वर्तमान प्रमुख का ऐलान होगा।
परंतु जिस प्रकार से अफगानिस्तान के उपराष्ट्रपति ने पंज शीर के जांबाज प्रमुख मसूद व जनरल दोस्तम के साथ मिलकर तालिबानी सत्ता को चुनौती दी है इसके साथ जिस प्रकार से अफगानिस्तान के स्वतंत्रता दिवस पर काबुल सहित अफगानिस्तान के कई शहरों में तालिबान की दहशतगर्दी के बावजूद लोगों ने सड़कों पर उतर कर अफगानिस्तान का राष्ट्रीय झंडा लहरा कर तालिबान की सत्ता का विरोध किया उससे तालिबानी शासकों के मंसूबों पर एक प्रकार से ग्रहण लग गया।
तालिबानी शासन के पूर्व के अनुभवों से दहशत में गिरे अफगानिस्तान की महिलाएं व आम जनता जिस प्रकार गोली बंदूक के डर को नजरअंदाज करके काबुल हवाई अड्डे में हजारों हजार की संख्या में देश छोड़ने के लिए उमड़ रहे हैं उससे आम जनता के दिलों दिमाग में तालिबान के खिलाफ आशंका जगजाहिर हो गई लोग अपनी जान को हथेली में रखकर जिस प्रकार से हवाई जहाजों के पंखों और उसके ऊपर बैठकर किसी भी हालत में देश को छोड़ना चाहते हैं उसे देखकर पूरा विश्व स्तब्ध है।
विश्व की आम जनता प्रश्न कर रही है कि आखिर इस प्रकार के अत्याचारों से अफगानी जनता को मुक्त देने के लिए विश्व समुदाय असहाय क्यों है?
क्यों महिला अधिकारों की रक्षा के लिए विश्व के तमाम संगठन शक्तिशाली देश लाचार क्यों हैं?
इस लाचारी को देखते हुए एक ही प्रश्न उठ रहा है कि फिर सयुक्त राष्ट्र संघ व मानवाधिकारों और लोकतंत्र की दुहाई देने का क्या औचित्य है?
तालिबान प्रशासकों को चाहिए कि वह अपने वचनों की रक्षा करें जिसमें उन्होंने अफगान जनता को और विश्व को आश्वासन दिया था कि वे अत्याचार दमन नहीं करेंगे सुशासन देंगे।
2001 से 2021 तक अफगानिस्तान से तालिबान को बेदखल करने वाले अमेरिका के सैनिकों द्वारा तालिबान से समझौता के बाद अमेरिकी सैनिकों की अमेरिका वापसी के कारण ही अफगानिस्तान में तालिबानी सत्तासीन हो हो गए। अमेरिका के नाक के नीचे उनके द्वारा पोषित अफगानी सरकार के भ्रष्टाचार के कारण व आम जनता में इस्लामिक मूल्यों के प्रति निष्ठा से ही तालिबान के साथ अंदर सहानुभूति
को देखते हुए मात्र 70000 से 80000 तालिबानी लड़ाकों के आगे अफगानिस्तान की 3.50 लाख कि अमेरिका द्वारा प्रशिक्षित व अमेरिकी अत्याधुनिक हथियारों से सुसज्जित सेना ने षड्यंत्र के तहत तालिबान ओके आगे आत्मसमर्पण कर दिया।
जिसके कारण अफगानी राष्ट्रपति गनी वह उनके सहयोगियों को काबुल में तालिबान के कब्जे को देखकर ही नरसंहार रोकने के लिए देश से भाग जाना पड़ा।
अफगानिस्तान की सरकार ने पाकिस्तान पर सीधा आरोप लगाया था कि वहां अपने देश से आतंकी व सेना को भेजकर तालिबान ओं की मदद कर अफगानिस्तान को बर्बाद कर रहा है।
यही नहीं अफगानिस्तान ने पाकिस्तान को तालिबान को हथियार व चिकित्सा आदि संरक्षण देने का भी आरोप लगाया।
परंतु संसार की किसी संस्थान ने पाकिस्तान का बाल भी बांका नहीं किया अब अफगानिस्तान में तालिबान के सत्तासीन होने के बाद जिस प्रकार से पाकिस्तान चीन और रूस ने खुल्लम खुल्ला तालिबान का समर्थन किया उससे जगजाहिर हो गया कि अफगानिस्तान की सरकार के आरोपों में पूरी सच्चाई थी। परन्तु एक बात साफ है कि तालिबान के सत्तासीन होने के बाद अफगानिस्तान की जेलों से हजारों तालिबानी, पाकिस्तानी तालिबानी, अलकायदा व आईएसआई के आतंकियों को छोडा गया। उससे तालिबान के सत्तारूढ़ होने से जश्न मना रहा पाकिस्तान सहम सा गया। इन आतंकियों में दस हजार से अधिक पाकिस्तानी तालिबान संगठन के आतंकी है जो पाकिस्तान में तालिबानी सत्ता स्थापित करने के लिए निरंतर सक्रिय है। वे आतंकी जेल से रिहा होने के बाद अब पाक में पंहुच गये हैं। इसी आशंका से पाक बहुत सहमा हुआ है। हालांकि अफगानिस्तान में पाकिस्तान अपने समर्थकों को सत्तारूढ कर अफगानिस्तान के संसाधनों का दोहन चीन के साथ मिल कर करने का षडयंत्र रच रहा है। परन्तु देर सबेर तालिबानी दंश से पाक के साथ चीन को भी झुलसना तय है।
आप पूरे संसार में जिस प्रकार से लाखों अफगानिस्तान के लोग अपनी जान माल व सम्मान की रक्षा के लिए शरणार्थी बन चुके हैं और लाखों अफगानी अफगानिस्तान में ही तालिबान ओं का विरोध कर रहे हैं देखना है विश्व समुदाय इनके दुखों का निवारण कैसे करता है या इनको तालिबान ओं के रहमों करम पर जीने के लिए विवश कर देता है परंतु पूरी मानवता यह देखकर स्तब्ध है कि आज के युग में भी इस प्रकार के अत्याचार कट्टरपंथी आम जनता पर कर रहे हैं और विश्व समुदाय मूकदर्शक बना हुआ है।
विश्व समुदाय की कायरता को देखकर लग रहा है कि तालिबान शासन को संयुक्त राष्ट्र संघ की आतंकी सूची से हटा कर संसार के अधिकांश देश उनसे संबंध स्थापित कर लेंगे।
अब यह भी आशा की जा रही है कि तालिबान सत्तासीन होने के बाद इस अवसर को जनहित के कार्यों से अपनी छवि सुधारने का काम करेंगे और अफगानिस्तान की बदहाली को दूर करने का काम करेंगे।
उल्लेखनीय है कि तालिबान अलकायदा को विश्व में खूंखार आतंकी संगठन बताते हुए इनके खात्मा के लिए 2001 में अफगानिस्तान पर हमला करके काबिज हुए अमेरिका जब अपने मिशन में असफल होकर 2021 को तालिबान से समझौता करके अपनी सेनाओं के के साथ अपने वतन वापस होने को मजबूर हुआ तो तालिबान ने अमेरिकी परस्त अफगानी सरकार को रौंदते हुए अफगानिस्तान पर कब्जा कर लिया। इस्लामी कट्टरपंथी तालिबान को सत्तासीन होते देखकर जहां अफगानिस्तान की आम जनता भयाकुल होकर स्तब्ध है। वही पूरे विश्व की अमन परस्त जनता यह देखकर हैरान है कि विश्व के सबसे बड़े मानव अधिकार व लोकशाही के संगठन संयुक्त राष्ट्र संघ, स्वयंभू ठेकेदार अमेरिका रूस चीन सहित तमाम महाबली देशों के होते हुए अफगानिस्तान में ऐसा निर्मम अत्याचार पर अंकुश नहीं लगाया जा सका और पूरा विश्व नपुंसकों की तरह तमाशबीन बना बैठा हुआ है।
सवाल तालिबान का नहीं, सवाल चीन का है। दोनों अपनी मूल प्रवृति के कारण मानवीय मूल्यों को रौंदकर हैवानियत का परचम लहराकर मानवता को शर्मसार कर रहे हैं।
ऐसा नहीं कि तालिबान पहली बार अफगानिस्तान के सत्ता में आसीन हो रहा है। सोवियत संघ द्वारा अफगानिस्तान से बाहर जाने के बाद अफगानिस्तान की सत्ता के लिए मुजाहिदीनों व कबिलाई क्षत्रपों में जो टकराव हुआ उससे देखकर अफगानिस्तान और पाकिस्तान के मदरसों में पढ़ रहे छात्रों को इस्लाम के नाम पर प्रशिक्षित व एकजुट करके अफगानिस्तान की सत्ता पर पाकिस्तान अमेरिका व चीन के सहयोग से काबिज हुए। तालिबान में प्रायः पश्तूनो का बाहुल्य था। पश्तो भाषा में छात्रों को तालिबान कहा जाता है।
तालिबान इस्लाम के कानूनों द्वारा देश को संचालित करने का ऐलान करके अफगानिस्तान पर सत्तासीन हुआ। तालिबान की सत्ता को मान्यता पाकिस्तान सऊदी अरब अमीरात जैसे इस्लामिक मुल्कों ने ही दी।
संसार के अधिकांश मुल्क इस लिए तालिबान को मान्यता नहीं दिया कि तालिबान लैंगिक भेद करके महिलाओं के तमाम अधिकार को रौंदकर उनको गुलामों से बदतर जीवन जीने के लिए विवश कर रहे थे। महिलाओं की शिक्षा रोजगार स्वतंत्रता के अधिकार पर अंकुश लगा रहे थे। यही नहीं महिलाओं को सर से पांव तक बुर्का पहनने के लिए विवश किया जा रहा था। उनको इसको कॉलेज इत्यादि की शिक्षा से वंचित किया जा रहा था। यही नहीं उनको रोजगार इत्यादि कार्यों से वंचित करके घर की चारदीवारी में बंद रहने के लिए विवश किया जा रहा था इसके अलावा महिलाएं बिना परिवार के पुरुष के बिना बाजार सहित घर से बाहर नहीं निकल सकती थी।
सबसे हैरानी की बात यह थी की अफगानिस्तान में तालिबान शासन के दौरान पुरुष चिकित्सक किसी भी सूरत में महिला रोगियों का इलाज नहीं कर सकते वहीं शिक्षा पर महिलाओं पर लगाए गए प्रतिबंध के कारण महिला चिकित्सकों का भारी अभाव था।
सामान्य अदालतों के बजाय तालिबान शासन में शरीयत के तहत तत्काल अपराधों की सरेआम कोड़ा मार के या पत्थर इत्यादि मार के कड़ी से कड़ी सजा दी जाती थी इससे पूरे देश में ही नहीं विश्व के लोग आतंकित थे।
अब सवाल यह उठता है कि आखिर तालिबान को इतना खूंखार किसने बनाया वह उनको संरक्षण किसने दिया इस इसके लिए हमें अफगानिस्तान के इतिहास में नजर दौड़ानी पड़ेगी। अफगानिस्तान की वर्तमान हालत 1979 में तब बिगड़ी जब अफगानिस्तान के कबीलाई क्षत्रपों का टकराव अफगानिस्तान के तत्कालीन वामपंथी शासक नजीबुल्लाह सरकार से होने लगा । उस समय दुनिया में सोवियत संघ वामपंथी विचारधारा का प्रमुख ध्वज वाहक ही नहीं अपितु संरक्षक भी था।
अफगानिस्तान में वामपंथी सरकार की रक्षा करने के लिए सोवियत संघ के तत्कालीन राष्ट्रपति ब्रजनेव ने सोवियत संघ की विशाल सेना अफगानिस्तान भेजी।
तब अफगानिस्तान में सोवियत सेनाओं की उपस्थिति को देखकर जहां कबीलाई क्षत्रप आक्रोशित हुए । वहीं अमेरिका और उसके मित्र संगठनों ने भी इसे सोवियत संघ का इस्लाम पर हमला बताते हुए अफगानिस्तान पाकिस्तान सऊदी अरब के इस्लामिक कट्टरपंथियों को प्रशिक्षण एकजुट करके सोवियत संघ के खिलाफ अफगानिस्तान में जेहाद छेड़ दिया । यह सब हो रहा था इस्लाम बचाने के नाम पर। पाकिस्तान अफगानिस्तान और दुनिया भर के कट्टरपंथी मदरसों व कट्टरपंथी तत्वों को न केवल पाकिस्तान अभी तो चीन में भी युद्ध का प्रशिक्षण दिया गया । अमेरिका व सऊदी अरब इत्यादि देशों ने अकूत धन संपदा व प्रदान करके इनको इस्लामी जिहादी बनाकर सोवियत संघ के खिलाफ अब के अफगानिस्तान में युद्ध की भट्टी में झोंक दिया।
इसी समय सऊदी अरब का एक धनाढ्य भवन निर्माता के कट्टरपंथी पुत्र ओसामा बिन लादेन ने अलकायदा संगठन बनाकर जिहादी तत्वों को साथ लेकर अफगानिस्तान में इस्लाम बचाने के नाम पर जेहाद छेड़ दिया। सोवियत संघ के खिलाफ अमेरिका और उसके मित्र नाटो देश सीधी लड़ाई न लड़ने के बजाय
इन कट्टरपंथी ताकतों को अकूत धन संपदा के साथ भारी विनाशकारी हथियार भी उपलब्ध कराएं।
इनको चीन व पाकिस्तान में युद्ध का प्रशिक्षण देकर अफगानिस्तान में इस्लाम की रक्षा के नाम पर सोवियत संघ से खुली जंग छेड़ दी। भले ही इस युद्ध में अमेरिका और उसके मित्र राष्ट्र सीधे रूप से सोवियत संघ से नहीं लड़ रहे थे परंतु मुजाहिद्दीन वो जेहादी ताकतों के को पूरा समर्थन ही इन तत्वों का था।
सोवियत संघ के खिलाफ छेड़े इस युद्ध में लड़ रहे ओसामा बिन लादेन सहित तमाम कट्टरपंथी जेहादी तत्वों को अमेरिका और उसके मित्र राष्ट्र लोकतंत्र के ध्वजवाहक व इस्लाम के रक्षक बता महिमामंडित कर रहे थे।
जब सोवियत संघ ने देखा कि अफगानिस्तान उसके लिए जी का जंजाल हो चुका है उसने 1989 को अफगानिस्तान से सोवियत सेना वापस बुलाने का निर्णय लिया। परंतु इन 10 सालों में सोवियत संघ के साथ छेड़े अफगानिस्तान में हुए युद्ध में 1000000 से अधिक लोग मारे गए और 15000 सोवियत सैनिक भी इसमें मारे गए।
1990 में सोवियत संघ द्वारा अफगानिस्तान छोड़ने के बाद कबीलाई छत्रपों व कट्टरपंथी जेहादी ताकतों के बीच अफगानिस्तान में सत्ता में काबिज होने का संघर्ष छिड़ गया इससे पूरे देश में फिर अराजकता फैल गई।
इसी आवश्यकता के खिलाफ पाकिस्तान में अफगानिस्तान के पश्तून क्षेत्रों के मदरसों के छात्रों ने संगठित होकर अफगानिस्तान में इस्लामिक मूल्यों की सत्ता स्थापना के लिए संघर्ष तेज कर दिया। प्रारंभ में लोगों ने भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने वाले इन इस्लामी छात्रों जिन्हें तालिबान के नाम से जाना जाता है का खुला समर्थन भी किया।
मुल्ला उमर की सरपरस्ती में तालिबान ने अफगानिस्तान के 90ः क्षेत्रों में 1998 तक अपना परचम लहरा दिया था।
इसके बाद तालिबान ने अफगानिस्तान में सत्तासीन हुए परंतु इनकी कट्टरपंथी व क्रूरता के कारण पाकिस्तान सऊदी अरब अमीरात के अलावा किसी देश ने इन को मान्यता नहीं दी।
2001 में जहां तालिबान सरकार ने अब अफगानिस्तान के बामियान बुद्ध की मूर्तियों को सारे संसार के विरोध के बावजूद निर्ममता से तहस-नहस कर दिया।
परंतु इन के संरक्षक व आका अमेरिका का मोह तभी भंग हुआ जब अल कायदा के आतंकियों ने 9/11/2001 को अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर व पेंटागन सहित कई इमारतों पर हवाई हमले किए। इन हमलों में 3000 अमेरिकी मारे गए।
इसके बाद अमेरिका वह उनके मित्र राष्ट्रों ने अलकायदा व उसको संरक्षण देने वाले अफगानिस्तान के तालिबान को विश्व के सबसे खूंखार आतंकी संगठन बताकर उस पर हमला कर दिया।
दिसंबर 2001 को अमेरिका सेना ने अफगानिस्तान के तालिबान शासकों वह अमेरिका पर हमला करने वाले ओसामा बिन लादेन के अलकायदा के सफाया के लिए अफगानिस्तान पर भीषण हमला कर दिया।
अफगानिस्तान पर अमेरिका के साथ उसके मित्र संगठन नाटो के सदस्यों सेना ने भी हमला किया। दो दशकों के बाद जब अमेरिका को भी लगा कि अफगानिस्तान से तालिबान और अल कायदा का सफाया करना उसके लिए जी का जंजाल बन गया है तो अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति ट्रम्प ने
2021 मई तक अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी का ऐलान किया और यह ऐलान खाड़ी देश में तालिबान के वार्ताकारों के साथ हुए समझौते के बाद किया गया।
2021 में अमेरिका में हुए सत्ता परिवर्तन के बाद नए राष्ट्रपति जो वाइडेन ने भी 2021 में अमेरिकी सेना की अफगानिस्तान से वापसी पर मोहर लगा दी परंतु उन्होंने मई के बजाय अमेरिका की पूरी सेना सितंबर 2021 तक अफगानिस्तान छोड़ने का ऐलान किया।
जैसे-जैसे अमेरिकी सेना अफगानिस्तान छोड़ रही थी वैसे वैसे तालिबान अफगानिस्तान पर अपना शिकंजा कस रहा था। े अगस्त माह तक तालिबान ने अफगानिस्तान पर कब्जा कर दिया।
यह त्रासदी देख कर न केवल अफगानिस्तान की आम जनता भयाकुल है अपितु विश्व की अमन परस्पर जनता भी परेशान है।
तालिबानी कब्जा होने से पहले ें तालिबान के बढ़ते हुए कदमों से भयाकुल होकर अब अफगानिस्तान की सरकार ने अमेरिका रूस चीन भारत सहित सभी देशों से सैन्य मदद किया गुहार लगाई।
परंतु सभी देशों ने उसको निराश ही किया। केवल अमेरिका और उसके मित्र देश अफगानिस्तान की गुहार सुनकर आगे बढ़ रहे तालिबानी ठिकानों पर हवाई हमले कर रहे हैं। हालांकि तादाद में तालिबानी सेना से अफगानिस्तान की सरकारी सेना दुगनी से अधिक संख्या में है। वहीं अफगानिस्तान सरकार का आरोप है कि तालिबान के साथ पाकिस्तान अपने आतंकियों वह सेना को भी भेज रही है। इसके साथ अफगानिस्तान ने पाकिस्तान पर तालिबान को हथियार आदि सामग्री देने का भी आरोप लगाया। तालिबान को संरक्षण प्रशिक्षण व हथियार इलाज इत्यादि उपलब्ध कराना पाकिस्तान के जिम्मे है।
अब 2021 में अफगानिस्तान पर पुन्नः तालिबानी कब्जा के पीछे जो षडयंत्र अमेरिका ने अपना पल्ला छुडाने के लिए रचा। उसी के तहत अमेरिका ने अपनी सेना अफगान से वापस बुलाने के लिए तालिबान से जो समझोता किया। वही समझोता एक प्रकार से तालिबान को अफगानिस्तान में सत्तासीन कराने की राह बनी। अमेरिका अपने ढाई हजार के करीब सैनिकों की शहादत व हजारों सैनिकों के जख्मी होने के साथ कई लाख करोड़ डालर का भार अपने अफगानिस्तान मिशन पर बर्बाद कर चूका था। जो इस्लामी आतंकी भष्मासुर उसने रूस के खिलाफ अफगानिस्तान, पाकिस्तान व अरब में पैदा किये थे, उनके दंश से अमेरिका 9/11 मेंखुद भी झुलस गया था। वह हर हाल में अफगानिस्तान छोडना चाहता था। परन्तु उसने अफगानिस्तान की जनता को एक प्रकार से तालिबानों के हवाले कर दिया। अमेरिका को चाहिए था कि इन दस सालों में वह अफगानिस्तान में ऐसे शासक तैयार करते जो ऐसी मजबूत सेना बनाते अफगानिस्तान की रक्षा के लिए। परन्तु अफगानिस्तान शासकों ने भ्रष्टाचार में इतने लिप्त रहे कि देश की रक्षक सेना का सुरक्षा घेरा भ्रष्टाचार के दंश व तालिबान के इस्लामी मोहपाश में रेत की महल की तरह ढह गयी। अपनी खाल बचाने के लिए अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन कह रहे हैं कि अफगानिस्तान के निर्माण व सुरक्षा की जिम्मेदारी अफगानियों की है। अमेरिका तो अपने गुनाहगारों का सजा देने के लिए गया था। अमेरिका अपने संसाधन व सैनिकों को अफगानिस्तान के लिए अनंतकाल तक कुर्वान नहीं कर सकता है। परन्तु अमेरिका के इस पलायनवादी रूख ने न केवल तालिबानों को अफगानिस्तान में सत्तारूढ किया अपितु उनको अपने अकूत हथियारों का भण्डार भी सौंप कर एक प्रकार से उनको शक्तिशाली बना दिया। अमेरिका के शासक के पलायनवादी रूख से विश्व समुदाय ही नहीं अमेरिकन भी दुखी हैं। वहीं रूस, चीन व पाकिस्तान के साथ टर्की अरब, व ईरान भी अपने अपने निहित स्वार्थों व दुराग्रह के कारण अफगानिस्तान की जनता की करूण पुकार को नजरांदाज कर तालिबान को सबल करने बेशर्मी से लगे हैं। सबसे दुविधा में भारत फंसा जहां उसके आस्तीन के सांप तालिबानों की स्तुति कर रहे हैं वहीं दूसरी तरफ अफगानिस्तान उसके लिए भी जंजाल बन गया है। भारत सरकार को देश को मजबूत बनाते हुए आस्तान के सांपों को बहुत ही निर्ममता से कुचलना चाहिए। तालिबान पर तालिबान के भारत के प्रति नजरिये के अनुसार कदम उठाने चाहिए।