जिनके लिए कानून बनाया जा रहा है उनकी सलाह मशविरा के बिना पंचतारा कार्यालयों में बैठकर अपनी अज्ञानता, सनक व स्वार्थ के लिए कानून बनाने वाले नौकरशाह व शासक
जनहित व देश हित को दरकिनारा करके सत्तालोलुपता के लिए समाधान न होने देने वाला विपक्ष
देशद्रोहियों व असामाजिक तत्वों पर तुरंत कड़ाई से अंकुश न लगाने वाली व्यवस्था
देव सिंह रावत
कल जैसे ही सर्वोच्च न्यायालय में मोदी सरकार द्वारा 3 नए कृषि कानूनों को लागू होने पर अगले आदेश तक रोक लगाने का ऐलान किया उससे इनकी कृषि कानूनों को देश के किसानों के लिए कल्याणकारी बताने का दावा करने वाली केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार व उनके समर्थकों को गहरा झटका लगा।
हालांकि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इन 3 कानूनों पर अगले आदेश तक रोक लगाने के निर्णय को किसानों के लिए काला कानून बताकर पिछले पौने दो महीने से देश की राजधानी दिल्ली का चौतरफा घेराव करने वाले आंदोलनकारी किसानों ने स्वागत किया।
परंतु इसके साथ आंदोलनकारी किसान संगठनों ने सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बनाई गई 4 सदस्यीय समिति के समक्ष पेश न होने का यह कहकर ऐलान किया की जब तक ये तीनों कानून रद्द नहीं हो जाते हैं तब तक उनका आंदोलनजारी रहेगा।
आंदोलनकारी किसानों ने सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बनाई गई 4 सदस्य समिति के अधिकांश सदस्यों को 3 नए कृषि कानूनों का खुला समर्थक बताया।
किसके साथ आंदोलनकारी किसान संगठनों ने यह भी ऐलान किया किस समिति के सदस्य बदले जाने के बावजूद भी वे समिति के समक्ष पेश नहीं होंगे
इसके साथ किसान संगठनों ने 26 जनवरी को होने वाला अपना ट्रैक्टर मार्च भी जारी रखने का ऐलान कर अपनी मंशा को जगजाहिर कर दिया।
किसानों के इस निर्णय से सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद इस समस्या का शांतिपूर्ण समाधान होने की आस लगाने वाले देश की करोड़ों जनता की आशाओं पर वज्रपात हो गया।
देश की आम जनता चाहती है कि सरकार किसानों की न्यूनतम समर्थन मूल्य सहित तमाम जायज मांगों को अविलंब स्वीकार करें और किसान भी 3 कृषि कानूनों को रद्द करने की मांग छोड़कर इसमें तमाम किसान हितकारी संशोधन करा कर अपना आंदोलन का समापन करें।
देश की तमाम जागरूक और राष्ट्रभक्त जनता को भी इस बात की आशंका है कि कि किसान आंदोलन की आड़ में देश विरोधी व असामाजिक तत्व भी देश की अमन-चैन को नष्ट करने में जुटे हुए हैं।
इस प्रकार की आशंका स्वयं सरकार की तरफ से सर्वोच्च न्यायालय में प्रकट की गई। होना तो यह चाहिए था कि व्यवस्था व किसान संगठनों को ऐसे तत्वों पर तत्काल अंकुश लगाना चाहिए जो देश के हितों पर कुठाराघात करना चाहते हैं।
परंतु इस देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है कि देश हित के लिए खुद को समर्पित होने की जिम्मेदारी न व्यवस्था निर्वाह करती है व नहीं आम जनता।
सभी स्थिति को तत्काल संभालने की जिम्मेदारी का निर्वाह करने के बजाय तमाशबीन ही बने रहते हैं ।इससे देश को भारी नुकसान उठाना पड़ता है।
देश की जनता हैरान है कि देश के लिए समर्पित रहने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शासन में ऐसे कैसे हो गया?
स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इन तीन कृषि कानूनों को देश की किसानों की खुशहाली बढ़ाने वाला व उनको बिचौलियों के चंगुल से मुक्त कर उनकी आमदनी को दुगना करने वाला क्रांतिकारी कानून बता रहे हैं। ऐसा नहीं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस कृषि कानूनों से अनभिज्ञ है। वे जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे उन्होंने किसानों की इसी प्रकार की मांग को लेकर तत्कालीन कांग्रेसी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भी ज्ञापन दिया था। वे किसानों की समस्याओं में आमूल सुधार करने के लिए स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को भी लागू कराने के प्रबल पक्षधर रहे। प्रधानमंत्री के तमाम आश्वासनों के बाद भी किसानों को ऐसा क्यों लग रहा है कि सरकार द्वारा बनाई गई तीन कृषि कानून किसानों के लिए काला कानून है?
जहां सरकारी तंत्र इन कृषि कानूनों से देश में यांत्रिकी किसानी, बिचौलियों के चंगुल से मुक्ति व आम किसानों की खुशहाली का ध्वजवाहक बता रहा है।
वही किसान इसे बड़ी व्यापारिक घरानों वह बहुराष्ट्रीय कंपनियों के रहमों करम के मकड़जाल में फंसाने वाला बता रहा है।
किसानों को आशंका है कि इन कानूनों से निजी क्षेत्र के बड़े कारोबारी उनकी फसल को औने पौने दाम में खरीदेंगे। बड़े कृषि व्यवसाई घरानों के विवाद में उनकी सुनवाई नहीं होगी।
इसीलिए किसान, सरकार से सरकारी मंडियों को मजबूत करने के साथ न्यूनतम समर्थन मूल्य का कानूनी संरक्षण देने की मांग कर रहा है । इसके साथ किसान बड़े व्यवसाई कृषि उद्यमियों से होने वाले विवाद को न्यायालय में जाने का विकल्प की भी मांग कर रहे हैं।
हालांकि सरकार ने किसान आंदोलन कार्यों की साथ हुई वार्ता में इस बात पर सहमति प्रकट की है कि किसानों को विवाद की स्थिति में न्यायालय जाने का भी विकल्प होगा। सरकार ने किसानों में फैली इस आशंका को भी निराधार बताते हुए आश्वासन दिया कि किसी भी हालत में उनकी जमीन पर उनकी इच्छा के विरुद्ध व्यवसायिक घरानों का कब्जा नहीं रहेगा।
अनुबंध के आधार पर होने वाली इस व्यवसायिक कृषि में जमीन का मालिकाना किसान के पास ही रहेगा।
सरकार को चाहिए था कि किसानों की मांग को देखते हुए न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी संरक्षण प्रदान करें।
जबकि बाजार में किसानों की उपज को
व्यापारी आटा चावल इत्यादि में हल्का सा बदलाव करके दुगना तीगुना कीमतों पर बेच कर किसानों के साथ आम जनता का भी नुकसान कर रहे होते हैं।
सरकार को विश्व व्यापार संगठन या विश्व बैंक के फरमानो को कड़ाई से पालन करने के बजाए अमेरिका ऑस्ट्रेलिया व जापान आदि देशों की तरह ही अपने
देश व जनता का हित को प्राथमिकता देने के लिए संरक्षण देना चाहिए।
परंतु इस कड़ाके की सर्दी में हजारों हजार किसान दिल्ली दिल्ली को चारों तरफ से घेर कर आंदोलन कर रहे हैं।
इस आंदोलन में 4 दर्जन से अधिक आंदोलनकारी किसान देह त्याग चुके हैं।
इस सहज सा दिखने वाले मुद्दे के समाधान के लिए कई घंटों की कई दौर की केंद्रीय कृषि मंत्री की सरपरस्त वाली वार्ताएं हो चुकी है। परंतु न तो सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी संरक्षण प्रदान कर रही है व नहीं किसान 3 कानूनों को रद्द करने की मांग से पीछे हट रहे हैं। क्या देख कर देश की जनता हैरान है कि इसका समाधान क्या है ? न सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य का कानूनी अमलीजामा पहना रही है व नहीं सरकार 3 कानून को वापस ले रही है तथा नहीं किसान 3 कानून वापसी की अपनी मांग को छोड़ रहे हैं । यही नहीं सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद भी स्थिति ज्यों की त्यों बनी हुई है । इससे लोग आशंकित हैं आखिर क्या होगा ? इस समस्या का समाधान कैसे निकलेगा?
इस समस्या का प्रमुख कारण यह दिखता है कि सरकारें ऐसी कानून जनकल्याण के नाम पर थोप देती है, जिनका कल्याण किया जाना है उनको ही जंजाल लगता है।
हिमालयी राज्यों के निवासियों के विकास पर ग्रहण लगाने वाला वन कानून,पर्यावरण कानून,वनवासियों के हक हकूकों पर बज्रपात करने वाला कानून , देश की शासन प्रशासन व न्याय में अंग्रेजी गुलामी बनाए रखने वाला पंचमी कानून व गौ हत्या न रोकने वाला कानून आदि देश के विकास और जनहित को रौंदने वाले ही साबित हो रहे हैं। सरकारों की कुंभकरणी प्रवृत्ति के कारण देश को जनता को ऐसे काले कानूनों को ढोने के लिए अभिशापित होना पड रहा है।
सबसे बड़ी समस्या तो यह है कि न देश के राजनीतिक दलों को और न ही नौकरशाही तथा देश के तमाम संस्थानों में आसीन मठाधीशों ने लोकशाही को आत्मसात किया। वे जनता को भैड बकरी तरह हांकना अपना अधिकार समझते हैं।
जिनके लिए कानून बनाया जा रहा है उनकी सलाह मशविरा के बिना पंचतारा कार्यालयों में बैठकर अपनी अज्ञानता, सनक व स्वार्थ के लिए कानून बना देते हैं। जो कृषि कानूनों की तरह जी का जंजाल बन जाता है।
किसानों ने तो प्रचण्ड विरोध किया तो जग जाहिर हो गया। असंगठित व उदासीन समाज शासकों द्वारा बलात जनहितों को रौंद जाने पर ठीक उसी प्रकार से मूक रहते हैं , जैसे उतराखण्डी सरकार द्वारा प्रदेश की राजधानी गैरसैंण के बजाय देहरादून थोपे जाने को नियति मान कर अपना वर्तमान और भविष्य बर्बाद होता देख कर भी मूक सा ढोते रहते हैं।
किसान आंदोलन में सरकार ही नहीं विपक्ष भी पूरी तरह से बेनकाब रहा।
इस प्रतिमा सरकार जहां पर जनता की मांगों पर सुनवाई करने के अपने दायित्व से दूर रही। वही विपक्ष इस आंदोलन के समाधान कराने के बजाय इस आंदोलन को लंबा खींचने में ही रत रहा। विपक्ष की पूरी ताकत इस समस्या का समाधान कराने की बजाय इसको लंबा खींच कर सरकार के खिलाफ जनाक्रोश भड़काना ही है।
इससे जहां आम जनता परेशान होती है। वहीं देश की छवि धूमिल होने के साथ-साथ अराजक तत्वों को सर उठाने का अवसर मिल जाता है। किसान आंदोलन से दिल्ली की हुई घेराबंदी के कारण हर दिन हजारों करोड़ रुपए का नुकसान देश को उठाना पड़ रहा है।
आंदोलनकारी संगठनों को भी अपनी जिम्मेदारी का एहसास होना चाहिए जब सर्वोच्च न्यायालय में हस्तक्षेप कर रहा हूं और सरकार अपने द्वारा बनाए गए कानून में संशोधन करने के लिए तैयार है तो आंदोलनकारी किसानों के नेतृत्व को अपनी हठधर्मिता छोड़कर कानून के उन प्रावधानों में सुधार कराना चाहिए जिनसे किसानों के हितों पर कुठाराघात होता है।
देश में दिखाई दे रहा है कि राजनीतिक दलों को देश के हितों के प्रति अपने उत्तरदायित्व का जरा सा भी भान नहीं है। जो भी सत्ता में होता है वह जन हित की आवाज को दबाने में लगता है। और जो भी पक्ष में होता है वह रोज नए छद्म मुद्दे उठाकर देश और सरकार की छवि को धूमिल करने में लगा रहता है।
इन सब का राष्ट्रीय हित से अधिक दलीय व निहित् स्वार्थ पर अधिक जोर रहता है।
ऐसा केवल किसान आंदोलन के समय ही नहीं अपितु दशकों से इस प्रकार का कृत्य बेशर्मी से किया जा रहा है। सरकार किसी की भी रही हो क्या विपक्ष में जो भी रहा हूं दोनों अपने राष्ट्रीय दायित्व के निर्वहन करने से रहे मुंह मोड़ते रहे इसी कारण देश में आतंकवाद बेरोजगारी अपराध, महंगाई,कुशासन , अंग्रेजी इंडिया की गुलामी के अलावा पाकिस्तान व चीन का कुठाराघात देश को झेलना पड़ रहा है।
सरकारें अगर सजग रहती तो विभाजन का कत्लेआम, जम्मू कश्मीर, पंजाब ,कारगिल,संसद, मुंबई पठानकोट, पुलवामा, दिल्ली आदि आतंकी हमले व दंगे रोके जा सकते थे।
अंग्रेजों से मुक्त हुए 74 साल हो गए हैं पर भारत आज भी अपने नाम,भाषा, शिक्षा नीति, चिकित्सा, राष्ट्रीय सुरक्षा इतिहास,देश के गौरवशाली संस्कृति
के लिए तरस रहा है।
वही इस काल में चीन, जापान, कोरिया व इजरायल आदि अपने देश का परचम पूरे विश्व में लहरा रहे हैं।