अंग्रेजी की गुलामी के कारण भारतीय भाषाओं के साथ भारतीय संस्कृति व सोच भी खतरे में
भारतीय भाषा आंदोलन के अध्यक्ष देव सिंह रावत ने लीना मेहेंदळे से दूरभाष पर किया भारतीय भाषा आंदोलन पर गहन मंथन
प्यारा उत्तराखंड डॉट कॉम
आज भारत की आजादी के महानायक अमर शहीद उधम सिंह जी की जयंती पर भारतीय संस्कृति व भारतीय भाषाओं की प्रमुख ध्वजवाहिका लीना मेहेंदले ने समस्त भारतीयों से पुरजोर आवाहन किया है कि वे भारतीय संस्कृति व लोकशाही की रक्षा के लिए भारतीय भाषा आंदोलन से जुड़कर देश की आजादी के लिए अपना सर्वस्व बलिदान करने वाले अमर शहीद ऊधम सिंह जी सहित असंख्य मां भारती के सपूतों के सपने को साकार करें।
गोवा की मुख्य सूचना आयुक्त व अतिरिक्त प्रमुख सचिव महाराष्ट्र सहित अन्य उच्च प्रशासनिक पदों पर आसीन रही लीना मेहेंदले सेवानिवृत्ति के बाद भारतीय भाषाओं के व भारतीय संस्कृति के संवर्धन के लिए समर्पित है।
भारतीय भाषा आंदोलन की प्रगति की जानकारी लेते हुए बहुभाषाविद लीना मेहेंदळे ने इस आंदोलन को व्यापक जनांदोलन बनाने पर जोर दिया।
अंग्रेजी, संस्कृत, हिंदी, मराठी व बंगाली सहित अनैक भारतीय भाषाओं की ज्ञाता लीना जी को इस बात से बेहद आश्चर्य है कि अंग्रेजों की दासता से मुक्ति पाने के 74 साल बाद भी आज भी हमारी पूरी व्यवस्था के कर्णधारों के सर से अंग्रेजीयत का भूत क्यों नहीं उतर रहा है। तन से भले ही देश के कर्णधार भारतीय हैं परन्तु उनकी पूरा आचार विचार पूरी तरह से अंग्रेजीयत है। इनको न तो भारतीयता से कोई लगाव है व नहीं भारतीयता की कोई सोच समझ ही है। इसी कारण भारत अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति होने के 74 साल बाद भी देश की पूरी व्यवस्था से अंग्रेजी की गुलामी बेशर्मी से ढो रहा है। इसका सबसे शर्मनाक उदाहरण है कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय से लेकर नौकरशाही में भारतीय भाषायें जहां एक तरफ दम तोड़ रही है वहीं पूरे तंत्र में अंग्रेेजी का ही राज बेशर्मी से चल रहा है। इससे न केवल हमारी भारतीय भाषायें हर दिन हल पल दम तोड रही है अपितु देश की लोकशाही, मानवाधिकार व विकास पर भी ग्रहण लग रहा है।
लीना मेहेंदळे जी हैरान है कि अंग्रेजीयत की गुलामी के शिकंजे में जकडे हम भारतीय किस राष्ट्रचेतना की बात करते हैं?
राष्ट्रचेतना का उदय राष्ट्र के चिंतन से होता है ! राष्ट्र चिंतन होता है राष्ट्रके दर्शन या तत्वज्ञान से ! लेकिन भारत के विद्वान शिक्षाविद पंडित लोग यह सोचते हैं कि भारत देश के पास अपना कहने लायक कोई तत्वदर्शन नहीं है ! जिसे मेरी बात पर विश्वास ना हो वह सं लो से आ (upsc)से पूछे ! आयोग कहता है कि हमारा नीति शा्स्त्र हम प्लेटो और अरस्तु और पश्चिमी दार्शनिकों से सीखेंगे ना की भर्तृहरि या चाणक्य या महाभारत में वर्णित सुशासन की कल्पना से या रामराज्य की कल्पना से सीखेंगे! इसी कारण यूपीएससी जो परीक्षा कंडक्ट करती है और जिसके माध्यम से प्रतिवर्ष देश के लिए सर्वोच्च ब्यूरोक्रेटिक अधिकारी के तौर पर करीब 1000 से 1500 के बीच अफसरों का चुनाव करती है वह यूपीएससी अपने कंपलसरी पेपर में जो एथिक्स नामक विषय रखती है वह पूरा का पूरा पश्चिमी एथिक्स हमारे अफसर बनने की इच्छा रखने वाले छात्रों को पढ़ना पड़ता है!
हमारा सं लो से आ . कहता है कि हम अपने विश्वविद्यालयों में फिलॉसफी का सिलेबस पश्चिमी पंडितों के बताए गए मार्ग का अनुसरण करते हुए बनाएंगे और इसमें भारतीय दर्शन केवल 10% रहेगा! क्योंकि वास्तविकता में भारत के पास फिलासफी जैसा कोई ज्ञान है ही नहीं ! जिसे हम 10% फिलॉसफी के लायक भी कहते हैं वह भी मायथोलॉजी है मिथ्या है, फिलासफी नहीं है !
इसलिए मुझे तो यही दिखता है कि यूजीसी और यूपीएससी ने पहले ही घोषणा कर दी है कि भारत के पास ना तो अपनी कोई फिलॉसफी है ना अपना कोई एथिक्स! हमारे जो भी ब्यूरोक्रेटिक अफसर चुने जाएंगे या जिन्हें फिलॉसफी में m.a. की डिग्री मिलेगी वे सारे पढ़ाकू और नौकरशाह पश्चिमी चिंतन के मार्ग से चलेंगे!
सर्वोच्च अधिकारियों में सं लो से आ क्या ज्ञान या आदर्श डालना चाहती है—
मैं इस सोचती थी कि हमारा देश आचार्य देवो भव की परंपरा में रचा बसा है लेकिन संघ लोक सेवा आयोग अर्थात सं लो से आ से अब यह नया ज्ञान मिला है कि सद्गुणों के सीख हमें सोक्रेटिस, प्लेटो और ऐरिस्टॉटलसे मिली कर्तव्य की सीख हमें कांट और रोल्स जैसे विद्वानों से मिली और समाजोपयोगी बननेकी सीख मिल व बैथम जैसे पंडितों से मिली! भारत के पास तो ज्ञान नामक चीज कभी थी ही नहीं! !
किसी को मेरी बात पर संदेह हो तो उनकी ethics (नीति शास्त्र/नैतिकता)विषय की प्रश्नावली देखें!
उल्लेखनीय है कि भारतीय भाषा आंदोलन 21 अप्रैल 2013 से देश को अंग्रेजी व इंडिया की गुलामी से मुक्त करा कर भारत की पूरी व्यवस्था (शिक्षा, रोजगार, न्याय व शासन)को भारतीय भाषाओं में संचालित कराने के लिए सतत् आंदोलन छेडे हुए है। भारतीय भाषा आंदोलन का मानना है कि 1947 को भले ही भारत अंग्रेजों से मुक्त हो गया हो। परन्तु भारत के हुक्मरानों की गुलामी मानसिकता के कारण भारत आज भी अंग्रेजों का ही गुलाम बना हुआ है। यह गुलामी अंग्रेजों की भाषा अंग्रेजी के द्वारा बलात थोपी गयी है। देश के हुक्मरानों ने आजादी के 74 साल बाद भी भारत में उन्हीं अंग्रेजों द्वारा थोपा गया हृेय बोधक ‘इंडिया’ नाम जारी हैं हम संसार को 74 साल बाद भी अपना नाम तक नहीं बता पाये। यही स्थिति पूरे तंत्र की है। हमारे देश में शिक्षा, रोजगार, न्याय व शासन पर अंग्रेजी का ही राज चलता है। भारतीय भाषायें जमीदोज की गयी। भारतीय भाषाओं में न रोजगार मिलता है व नहीं न्याय तथा सम्मान। इस पंचमी गुलामी को भारत में बनाये रखने के लिए राष्ट्रमण्डल सचिवालय पूरी तरह सक्रिय है। भारतीय भाषाओं का विरोध करा के अंग्रेजी का राज बनाये रखकर। इसी कारण अमर शहीद ऊधम सिंह सहित देश के उन लाखों सपूतों ने जिन्होने माॅं भारती की आजादी के लिए अपना सर्वोच्च बलिदान दिया। उनके भारत को आजाद करने के सपने पर देश के हुक्मरानों ने अंग्रेजी व इंडिया थोप पर ग्रहण लगा दिया है। इस प्रकार अंग्रेजों के जाने के 74 साल बाद भी भारत में आजादी व लोकशाही का सूर्योदय तक नहीं हो पाया। इस अंग्रेजी गुलामी के कारण देश के 138 करोड़ भारतीयों के मानवाधिकारों का निर्मम गला घोंटा जा रहा है। यही नहीं देश के करोड़ो उपेक्षित, वंचित,पिछडे, आदिवासी व गरीब जनता के विकास पर 2 प्रतिशत अंग्रेजा लोगों ने सेंघ लगा दी है। इन लोगों को दिये गये तथाकथित आरक्षण पर भी यही चंद अंग्रेजदा लोग ही डाका डाल रहे है।
भारतीय भाषा आंदोलन की मांग है कि भारत में शिक्षा, रोजगार, न्याय व शासन भारतीय भाषाओं में ही मिले। जिस प्रदेश की जो भाषा हो उसी में उसे शिक्षा, रोजगार, न्याय व शासन मिले। आज संचार क्रांति के जमाने में जब संयुक्त राष्ट्र व यूरोपीय संघ सहित कई देश कई भाषाओं में संचालित हो रहे हैं तो भारत में भारतीय भाषाओं में संचालित करने में क्या परेशानी है? आखिर देश के हुक्मरान देश को बताये कि उनकी क्या मजबूरी है कि जिन अंग्रेजों ने लाखों भारतीयों का कत्लेआम किया, अरबों खरबों की अकूत सम्पति लूटी व देश को शताब्दियों तक गुलाम बनाया, देश उनसे आजाद होने के बाद भी उन्हीं की भाषा अंग्रेजी व उनके द्वारा थोपे नाम इंडिया का गुलाम बने।
भारतीय भाषा आंदोलन देश की आन मान शान की प्रतीक आजादी के इस ऐतिहासिक व निर्णायक संघर्ष में संसद की चैखट पर वर्षों तक सतत् धरना, संसद की चैखट जंतर मंतर से प्रधानमंत्री आवास तक एक वर्ष से अधिक समय तक हर कार्यदिवस में पदयात्रा कर प्रधानमंत्री को ज्ञापन देने के बाद अब कोरोना काल में प्रधानमंत्री से हर दिन इंटरनेटी माध्यमों से गुहार लगा रहे है। परन्तु सरकारें कांग्रेस की रही हो या वर्तमान भाजपा की, किसी ने देश की इस सबसे प्रमुख मांग की सुनवाई करने का प्रथम दायित्व का निर्वहन तक नहीं किया। अपितु बेशर्मी से देश की आन मान शान के लिए समर्पित भारतीय भाषा आंदोलन को पुलिसिया दमन से रौंदने की धृष्ठता की। इसके बाबजूद भारतीय भाषा आंदोलन को विश्वास है देर सबेर देश की अवाम को जब इस भारत विरोधी षडयंत्र का भान होगा वह अवश्य देश से अंग्रेजों की तरह अंग्रेजी व इंडिया की गुलामी को उखाड़ फैंकने के लिए आगे आयेंगे।
भारतीय भाषा आंदोलन को तेज करने के लिए भारतीय भाषाओं की ध्वजवाहिका लीना जी ने यह सुझाव भी दिया कि अपने अपने शहर में तमाम देशभक्त जनता में इंटरनेटी संवाद आदि तरीकों से इस गुलामी के प्रति जनता को जागरूक करें। भाषा आंदोलनकारी इस बात से भी चिंतित थे कि अगर देश को अंग्रेजी व इंडिया की गुलामी से शीघ्र मुक्त नहीं किया गया तो भारत की भाषायें सहित भारतीय संस्कृति भी विलुप्त हो जायेगी।