मुजफ्फरनर काण्ड-94 के गुनाहगारों को 26 साल बाद भी सजा देने में असफल देश की व्यवस्था से आक्रोशित
प्यारा उतराखण्ड डाट काम
कोरोना काल में भी 2 अक्टूबर को गांधी जयंती के अवसर पर उतराखण्डियों ने मुजफ्फरनगर काण्ड-94 के गुनाहगारों को 26 साल बाद भी सजा न दिये जाने के विरोध में काला दिवस मनायेंगे।
1994 से हर साल संसद की चैखट पर 2 अक्टूबर को काला दिवस मनाने वाले उतराखण्ड आंदोलनकारी संगठनों की समन्वय समिति के संयोजक देवसिंह रावत ने इस आयोजन के बारे में प्रकाश डालते हुए बताया कि उत्तराखंड के लोग 1994 से लेकर आज तक 2अक्टूबर (गांधी जयंती) को काला दिवस के रूप में मनाते हैं। इसका मुख्य आयोजन संसद की चैखट पर किया जाता है। इसके साथ शहीदी स्थल मुजफ्फरनगर सहित देश विदेश में रहने वाला उतराखण्डी समाज हर शहर हर कस्बे में करके शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित करता है और इस काण्ड के गुनाहगारों को सजा न देने वाली व्यवस्था को धिक्कारता हैै।
श्री रावत ने अफसोस प्रकट करते हुए कहा कि यह प्रकरण को तत्कालीन नरसिंहा राव की केंद्र सरकार की शह पर तत्कालीन उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मुलायम सिंह के शासन प्रशासन ने मुजफ्फरनगर में उत्तराखंड आंदोलनकारियों के साथ किया,वह भारत की संस्कृति व लोकशाही पर किसी कलंक के समान ही है।
परंतु दुर्भाग्य है जिन गुनाहगारों को इलाहाबाद उच्च न्यायालय , भारत की सर्वोच्च जांच एजेंसी सीबीआई व मानव अधिकार आयोग ने इंसानियत के नाम पर हैवानियत का प्रतीक बताया,। उन गुनाहगारों को सजा देने में भारत की न्यायपालिका 26 साल बितने के बाद भी असफल रही। इन गुनाहगारों को उत्तर प्रदेश की सपा बसपा व भाजपा,केंद्र की कांग्रेस भाजपा तथा उत्तराखंड की भाजपा व कांग्रेस की सरकारें पूरी तरह बेशर्मी से संरक्षण देने का काम करती रही।
श्री रावत के अनुसार उत्तराखंड राज्य गठन आंदोलनकारी विगत 26 सालों से निरंतर संसद की चैखट जंतर मंतर पर 2 अक्टूबर को काला दिवस मनाते हैं ।परंतु इन बेशर्म राजनीतिक दलों के नेता जो अपनी सरकारों में अपने आकाओं से इस कांड के गुनाहगारों को सजा दिलाने का काम नहीं कर पाते हैं और मुलायम सिंह के तत्कालीन प्यादों को को अपने दलों में सम्मलित करते हैं तथा उनको महत्वपूर्ण पदों पर आसीन करके उत्तराखंड के आत्मसम्मान के साथ शहीदों की शहादत को रौंदने का काम करते हैं।
वे भी इस शहादत पर घड़ियाली आंसू बहा कर उत्तराखंडियों के जख्मों को कुरेदने का काम करते हैं।बेहतर होता है इन दलों में उत्तराखंड के हमदर्द नेता अपने-अपने दलों कि इस विश्वासात व जघन्य अपराध के लिए सार्वजनिक रूप से माफी मांग कर इस दिन प्रायश्चित उपवास करें और इन दिनों से तत्काल इस्तीफा दें।
यह काला दिवस देश की व्यवस्था द्वारा इन गुनाहगारों को शर्मनाक संरक्षण देने के विरोध में तथा शहीदों को श्रद्धांजलि देने के लिए आयोजित किया जाता है
उल्लेखनीय है कि देश की एकता, अखण्डता व विकास के लिए समर्पित रहे ‘उत्तराखण्ड राज्य गठन जनांदोलन’ में गांधी जयंती की पूर्व संध्या 1 अक्टूबर 1994 को, 2 अक्टूबर 1994 को आहुत लाल किला रेली में भाग लेने आ रहे शांतिप्रिय हजारों उत्तराखण्डियों को, मुजफ्फरनगर स्थित रामपुर तिराहे पर अलोकतांत्रिक ढ़ग से बलात रोक कर जो अमानवीय जुल्म, व्यभिचार व कत्लेआम उत्तर प्रदेश की तत्कालीन मुलायम सिंह सरकार व केन्द्र में सत्तासीन नरसिंह राव की कांग्रेसी सरकार ने किये, उससे न केवल भारतीय संस्कृति अपितु मानवता भी शर्मसार हुई। परन्तु सबसे खेद कि बात है कि जिस भारतीय गौरवशाली संस्कृति में नारी को जगत जननी का स्वरूप मानते हुए सदैव वंदनीय रही है वहां पर उससे व्यभिचार करने वाले सरकारी तंत्र में आसीन इस काण्ड के अपराधियों को दण्डित करने के बजाय शर्मनाक ढ़ग से संरक्षण देते हुए पद्दोन्नति दे कर पुरस्कृत किया गया।
सबसे हैरानी की बात है कि जिस मुजफ्फरनगर काण्ड-94 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने मानवता पर कलंक बताते हुए इसे शासन द्वारा नागरिकों पर किये गये बर्बर नाजी अत्याचारों के समकक्ष रखते हुए इस काण्ड के लिए तत्कालीन मुजफ्फनगर जनपद(उप्र) के जिलाधिकारी व पुलिस अधिकारियों को सीधे दोषी ठहराते हुए इनके खिलाफ कड़ी कार्यवाही करने का ऐतिहासिक फैसला दिया था। यही नहीं माननीय उच्च न्यायालय ने केन्द्र व राज्य सरकार को उत्तराखण्ड के विकास के प्रति उदासीन भैदभावपूर्ण दुरव्यवहार करने का दोषी मानते हुए दोनों सरकारों को यहां के विकास के लिए त्वरित कार्य करने का फैसला भी दिया था। जिस काण्ड पर देश की सर्वोच्च जांच ऐजेन्सी सीबीआई ने जिन अधिकारियों को दोषी ठहराया था, जिनको महिला आयोग से लेकर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग दोषी मानता हो परन्तु दुर्भाग्य है कि इस देश में जहां सदैव ‘सत्यमेव जयते’ का उदघोष गुंजायमान रहता हो, वहां पर उच्च न्यायालय के ऐतिहासिक फैसले के बाद अपराधियों व उनके आकाओं के हाथ इतने मजबूत रहे कि देश की न्याय व्यवस्था उनको दण्डित करने में 26 साल बाद भी अक्षम रही है।
भारतीय व्यवस्था के इसी बौनेपन से आक्रोशित देश विदेश में रहने वाले सवा करोड़