भारतीय इतिहास में अगस्त का अध्याय : भारत छोड़ो से भारत जोड़ो तक
ये 1000 वर्ष भारत के इतिहास का वो काला अध्याय है जब देश ने आत्म विश्वास, आत्म सम्मान खो दिया, अपनी आत्मा खो दी। इतिहास के इस अध्याय से कई सबक मिलते हैं।
(भारत के उपराष्ट्रपति एम वैंकटया नायडू द्वारा 9 अगस्त 2020 को फेबु मे लिखे लेख को साभार)
78 वर्ष पूर्व इसी माह भारत छोड़ो आन्दोलन की शुरुआत हुई और उसके अगले पांच वर्षों देश को आज़ादी मिली। राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन हमारे इस आत्म विश्वास से प्रेरित था कि हम स्वयं अपनी नियति को संवारने में और स्व शासन या खुद मुख्तारी में सक्षम हैं। अंग्रेज़ों को विदा करके भारत छोड़ो आंदोलन ने तो अपना लक्ष्य पूरा कर लिया, परन्तु क्या हम भारत की आज़ादी के अपने मिशन में सफल हो सके हैं!
आधुनिक भारत के इतिहास में अगस्त महीने का विशेष महत्व है, उसकी प्रतिष्ठा है। 8 अगस्त, 1942 को अंग्रेज़ों से भारत छोड़ने को कहा गया और उसके पांच वर्ष बाद, 15 अगस्त, 1947 को वे भारत छोड़ कर चले गए। अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी ने स्वाधीनता आन्दोलन को नैतिक आधार प्रदान किया। 1915 में भारत लौटने के बाद उन्होंने सविनय अवज्ञा आंदोलन तथा असहयोग आन्दोलन का नेतृत्व किया, आंदोलनों की भाषा, उनकी शैली में भी ऐसी अद्भुत विनम्रता,उससे पहले न कभी देखी गई और न सुनी। मुंबई के ग्वालिया मैदान में गांधी जी के ” करो या मरो” इन तीन शब्दों के महामंत्र ने, अंग्रेज़ों के दमन शोषण से त्रस्त जनता पर किसी तिलस्म सा जादू किया। स्वाधीनता आन्दोलन के सर्वोच्च नायक, गांधी जी के इस नारे से अंग्रेज़ों के तो मानो होश उड़ गए। अंग्रेज़ लंबे समय से नरमपंथी नेताओं द्वारा अर्जी देने और निवेदन किए जाने के आदी हो चले थे। उन नेताओं को भारतीयों के प्रति अंग्रेज़ों की सदाशयता और न्यायप्रियता पर ज्यादा ही भरोसा था। दादा भाई नौरोजी, फिरोजशाह मेहता, दिनशा वाचा, सुरेंद्रनाथ बनर्जी जैसे नेताओं ने अंग्रेज़ों के साथ इसी पद्धति को अपनाया। इन नरमपंथी नेताओं की शैली समाज के अभिजात्य वर्ग तक ही सीमित थी, आन्दोलन को जनाधार न दे सकी। जैसे जैसे अंग्रेज़ी शासन का दमन और शोषण बढ़ा, और अंग्रेज़ शासकों ने अपने रंग ढंग दिखाने शुरू किए, गरमपंथी उग्र राष्ट्रवादी नेताओं के एक नई पीढ़ी सामने आई, जिसमें बाल ( बाल गंगाधर तिलक), पाल ( बिपिन चंद्र पाल), लाल ( लाला लाजपत राय) जैसे नेता थे जो अंग्रेजी शासन का सीधे विरोध करने में विश्वास रखते थे। साथ ही भगत सिंह, चन्द्रशेखर आज़ाद जैसे राष्ट्रभक्त युवा क्रान्तिकारी भी थे जो अंग्रेज़ों के खिलाफ सशस्त्र क्रांति में विश्वास रखते थे। उनके शौर्य ने दमन किए जा रहे शोषित समाज के युवाओं को अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध प्रेरित किया। सुभाष चन्द्र बोस ने सैन्य कार्यवाही से अंग्रेज़ों की जड़ों को उखाड़ फेंकने का प्रयास किया। इस प्रकार हम देखते हैं कि एक ही उद्देश्य के लिए विभिन्न मार्गों से प्रयास किए गए।
अपनी भारत वापसी के बाद गांधी जी ने अंग्रेजी शासन के शोषणकारी चरित्र को भली भांति समझा। उन्होंने राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन के जनाधार का विस्तार करने की ज़रूरत को समझा। दक्षिण अफ्रीका में अपने सत्याग्रह के अनुभव से उन्होंने राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन को “सत्य की शक्ति” के साथ एक नैतिक धरातल पर खड़ा करने का प्रयास किया। 1920 के बाद से स्वाधीनता आन्दोलन, अहिंसावादी विरोध के मार्ग पर आगे बढ़ने लगा। भारत और ब्रिटेन में औपनिवेशिक शासन के शोषणकारी चरित्र के विरुद्ध जनमत तैयार कर, अंग्रेज़ी शासन पर लगातार दबाव बनाया जाने लगा। अहिंसा के ऐसे पुजारी द्वारा “करो या मरो” की घोषणा किया जाना, उसके गंभीर अर्थ थे। भारत छोड़ो आन्दोलन, भारत के स्वाधीनता आंदोलन का महत्त्वपूर्ण अध्याय है। अगस्त का महीना भारत के इतिहास का एक महत्वपूर्ण महीना है।
8 अगस्त 1942 को पारित भारत छोड़ो प्रस्ताव में कहा गया कि ब्रिटिश शासन का तत्काल अंत न सिर्फ भारत के लिए बल्कि संयुक्त राष्ट्र की सफलता के लिए नितान्त जरूरी है। ब्रिटिश शासन का भारत में बने रहना भारत के लिए अपमानजनक है और उसे अपनी आत्म रक्षा के लिए असमर्थ बनाता है जिससे वह विश्व की आज़ादी में भी अपना योगदान करने से भी असमर्थ रहेगा। प्रस्ताव में देश की आज़ादी और स्वाधीनता के मौलिक अधिकार की याद दिलाई गई और तदानुसार महात्मा गांधी के नेतृत्व में व्यापक अहिंसक जन आन्दोलन की स्वीकृति प्रदान की गई।
उसी शाम गांधी जी ने ” करो या मरो” का नारा दिया और उसके बाद का इतिहास तो हम सब के प्रत्यक्ष है ही।
भारत की गुलामी
आज जब हम भारत छोड़ो आन्दोलन को याद करते हैं तो ये भी आवश्यक है कि दूसरी सहस्राब्दी के पिछले लगभग हजार साल की गुलामी के अंधेरे को भी याद करें जब भारत की समृद्धि के लालच में विदेशी आक्रांताओं के हमले शुरू हुए। 1000 ईसवी के बाद से महमूद गजनवी ने भारत पर 25 वर्षों में 17 बार आक्रमण किए और हर बार लूटमार मचाई। उसके हमले और सोमनाथ मन्दिर की लूट और उसका विध्वंस, भारतीय इतिहास पर अमिट कलंक हैं। उसके बाद चंगेज खान और तैमूर ने आक्रमण किए, उनका भी उद्देश्य लूट मार करना ही था। उनके बाद के हमलावर देश के विभिन्न क्षेत्रों में बस गए। फिर 1526 में बाबर के आने के साथ लंबे समय तक मुगलों का राज रहा।
विदेशी हमलावर भी अचंभित थे कि वे इतनी निर्भयता और आसानी से हमले करते और निरापद हो कर लूटपाट करते और वापस चले जाते। पृथ्वीराज चौहान, महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी जैसे वीर नायकों के नेतृत्व में कुछेक प्रतिरोधी लड़ाइयों को छोड़ दें, तो आक्रांताओं की लूटमार का प्रभावी प्रतिकार करने, उनके आतंक से रक्षा करने वाला कोई न था। स्थानीय स्तर पर विभिन्न क्षेत्रों में कई छोटे मोटे रजवाड़े थे जिन्हें इन आक्रमणों के दूरगामी असर से न कोई मतलब था, न रुचि, न कोई राष्ट्रीयता का दर्शन, जब तक वे खुद उन आक्रमणों के शिकार न बन गए और मिटा दिए गए। एक साथ मिल कर विदेशी आक्रमणकारियों का सामने करने का तो कोई विचार ही नहीं था। परिणाम स्वरूप भारत का एक विशाल भू भाग विदेशी आक्रांताओं के कब्जे में चला गया।
इसके बाद 17 वीं सदी में ईस्ट इंडिया कंपनी का प्रादुर्भाव हुआ। ये मूलतः व्यापारी थे। इन्होंने देश की बंटी हुई राजनैतिक चेतना का बड़ी चालाकी से लाभ उठाया और अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाते गए। 1757 में प्लासी की लड़ाई जीतने के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया और फिर एक के बाद एक प्रान्तों पर अपना प्रभाव बढ़ाते गए। झांसी की युवा रानी लक्ष्मीबाई ने ईस्ट इंडिया कंपनी की चालाकी के खिलाफ वीरतापूर्ण लड़ाई लड़ी और वह हमारा पहला स्वाधीनता संघर्ष था। कम्पनी में बढ़ते भ्रष्टाचार को देखते हुए, 1858 में ब्रिटिश सरकार ने भारत का शासन सीधे अपने हाथों में ले लिया। अगले 90 साल भी विभिन्न तरीकों से भारत का दोहन जारी रहा।
ये 1000 वर्ष भारत के इतिहास का वो काला अध्याय है जब देश ने आत्म विश्वास, आत्म सम्मान खो दिया, अपनी आत्मा खो दी। इतिहास के इस अध्याय से कई सबक मिलते हैं।
सांस्कृतिक पराभव
यद्यपि भौगोलिक अखंडता नहीं थी फिर भी देश के विभिन्न क्षेत्रों में बसने वाले समुदाय परस्पर एक सांस्कृतिक सूत्र से एकता के बन्धन में बंधे हुए थे। मंदिर इस साझा सांस्कृतिक चेतना के अंग थे। महमूद गजनवी के बाद से ही, विदेशी आक्रांताओं का मिशन रहा कि मंदिर जैसे सांस्कृतिक प्रतीकों को लूटा जाय, उन्हें अपवित्र किया जाए, उनका ध्वंस किया जाए, मूर्तियों को तोड़ा जाय। 1000 से 1025 तक गजनवी ने बार बार सोमनाथ मन्दिर पर आक्रमण कर उसे तहस नहस किया। मंदिर अपनी भव्यता की छाया मात्र रह गया।1950 में उसकी पुरानी भव्यता को पुनर्स्थापित करने से पहले 925 वर्षों का लंबा इंतजार करना पड़ा। जबरन धर्मांतरण, स्थानीय भारतीय समुदायों पर जजिया लगाना, ये सब सांस्कृतिक प्रभुत्व जमाने के प्रयास थे और सामाजिक विद्वेष के प्रतीक थे।
1525 में बाबर के आक्रमण के बाद, राम जन्मभूमि का विध्वंस कर दिया गया। अयोध्या में राम जन्मभूमि पर मन्दिर निर्माण के लिए भी 500 वर्षों की प्रतीक्षा करनी पड़ी। वह लम्बी प्रतीक्षा इस माह 5 अगस्त, 2020 को मंदिर के लिए भूमि पूजन के साथ समाप्त हुई। ये तो सिर्फ दो उदाहरण मात्र ही हैं, देश भर में सैकड़ों ऐसे मंदिर हैं जिन्हें इसी तरह अपवित्र कर भ्रष्ट किया गया।
अंग्रेज़ उपनिवेशवादियों ने भी अपने हित साधने के लिए देश की सामाजिक समरसता को नष्ट करने के भरसक प्रयास किए, “बांटो और राज करो” की अपनी नीति के तहत समाज के एक वर्ग को दूसरे वर्ग के, एक समुदाय को दूसरे समुदाय के विरुद्ध खड़ा किया। और अंत में, स्वतन्त्रता से ऐन पहले देश का विभाजन कर दिया गया, जिसके परिणाम आज भी हमें चुभ रहे हैं।
आक्रांताओं और उपनिवेशवादियों के खिलाफ मिल कर एकजुट न रहने की इतनी बड़ी कीमत हमने चुकायी है और अभी भी चुका रहे हैं जबकि आक्रांताओं ने हजार वर्षों तक हमें आसानी से निर्भय हो कर लूटा।
उपनिवेशवाद का असर
कुछ ब्रिटिश लेखकों ने इतिहास की अलग ही व्याख्या करने की कोशिश की है कि भारत में अंग्रेज़ी शासन ब्रिटेन के लिए मंहगा सौदा साबित हुआ जबकि इससे भारत को तो फायदा ही हुआ। ये नितान्त भ्रामक मत है। उपनिवेशवाद का मूल चरित्र ही शोषणकारी है जिसमें उपनिवेश का विभिन्न माध्यमों और तरीकों से शोषण, दोहन और दमन किया जाता है। कुछ कहते हैं कि अंग्रजों ने इंफ्रास्ट्रक्चर बनाया, सड़कें, पुल, रेलवे लाइन, नहरें, टेलीग्राफ आदि स्थापित किए। अब इसे भारतीयों के कल्याण के लिए मानना तो दूर की कौड़ी होगी। ये सब ब्रिटेन में बैठे सत्ताधीशों के वाणिज्यिक और प्रशासनिक हितों के लिए किया गया था। ये सब भारत से कच्चे माल के सस्ते निर्यात और ब्रिटेन से आयात किए गए माल को आसानी से भारत के अंदरूनी इलाकों तक पहुंचाने तथा विद्रोह दबाने के लिए सैनिकों की शीघ्र तैनाती को आसान बनाने के लिए किया गया था। ईस्ट इंडिया कंपनी और ब्रिटिश शासन में निचले स्तर पर भारतीय कर्मचारियों को बहाल करने के लिए अंग्रेजी का प्रसार किया गया।
20 वीं सदी के पहले 3 दशकों तक बाकी दुनिया के साथ व्यापार में भारत अच्छा खासा लाभ कमा रहा था। लेकिन राष्ट्रीय खाते में इसे नुकसान दिखाया जाता रहा क्योंकि भारत के निर्यात से आने वाली वास्तविक आमदनी तो विभिन्न तरीकों से पूरी तरह से ब्रिटेन द्वारा रख ली जाती थी। ब्रिटेन भारतीय उत्पादकों से तैयार माल जैसे वस्त्र आदि खरीदता था और उनके लिए सोना-चांदी के बुलियन में भुगतान किया। लेकिन, 1765 में जबसे ईस्ट इंडिया कंपनी ने उपमहाद्वीप पर अपना अधिकार स्थापित करना प्रारम्भ किया और भारत में कर वसूलना शुरू किया, वो बड़ी चतुराई से उस राजस्व का लगभग 30% ब्रिटिश उपयोग हेतु भारतीय वस्तुओं की खरीद के लिए उपयोग करने लगी। इसका मतलब यह था कि अंग्रेज भारतीयों को अपनी जेब से नहीं बल्कि भारतीयों से वसूले पैसों से ही भुगतान करते थे। भारत से लाई गई वस्तुओं को ब्रिटिश कहीं और निर्यात करते और उसी से प्राप्त आमदनी का उपयोग अपने औद्योगिकीकरण के लिए आवश्यक आयात के लिए किया जाता था।1858 में ब्रिटिश राज आने के बाद, जो भारत ब्रिटेन को तैयार माल का निर्यात करता था वो अब उसके उद्योगों की ज़रूरत पूरा करने के लिए कपास, सिल्क जैसे कच्चे माल की आपूर्ति करने लगा था। ब्रिटेन में भारतीय वस्तुओं के आयात पर भारी आयात शुल्क लगाया जाता, जबकि ब्रिटेन से आयातित उत्पादों से भारत के बाजारों को भर दिया गया।
विख्यात अर्थशास्त्री सुश्री उत्सा पटनायक ने दो शताब्दियों के कर और व्यापार के विस्तृत आंकड़ों पर अध्ययन करके यह अनुमान लगाया है कि 1765 से 1938 तक की अवधि के दौरान ब्रिटेन ने विभिन्न मार्गों से भारत से लगभग 45 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की निकासी की। आधुनिक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो यह राशि 2018 में यूनाइटेड किंगडम के वार्षिक सकल घरेलू उत्पाद से 17 गुना अधिक है।
यदि भारत अपने ही इस कर राजस्व और विदेशी व्यापार से प्राप्त से प्राप्त आमदनी को, अपने विकास में निवेश कर पाता, तो भारत आर्थिक महाशक्ति बन सकता था। शताब्दियों से चली आ रही गरीबी और पीड़ा का समाधान किया जा सकता था।
ब्रिटिश शासन के उदारवादी होने के दावे के विपरीत, औपनिवेशिक शोषण के 200 साल के दौरान, प्रति व्यक्ति आय में प्रायः कोई वृद्धि नहीं हुई थी। बल्कि वास्तव में तो19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में भारत में प्रति व्यक्ति आय आधी रह गई थी। 1870 – 1920 के दौरान भारतीयों की औसत जीवन प्रत्याशा घट कर 1/5 रह गई थी। गलत नीति के कारण, अकाल से लाखों लोग बेवजह मौत केस शिकार हुए। और ये सब औपनिवेशिक शासकों के तथाकथित परोपकार के कारण हुआ।
आगे की राह
भारत ने 15 अगस्त, 1947 को आजादी हासिल की, वह न केवल औपनिवेशिक शासन की बेड़ियों से मुक्त हुआ, बल्कि इसने गजनवी के आक्रमणों के बाद से लगभग 1000 साल के काले युग की दमन और शोषण की विरासत को भी पीछे छोड़ दिया है। लंबे स्वतंत्रता संग्राम और संविधान ने नए भारत और उसके पुनर्निर्माण के उद्देश्यों को स्पष्ट रूप से निर्धारित कर दिया है। स्वतंत्र भारत के ये लक्ष्य महात्मा गांधी और स्वतंत्रता संग्राम के अन्य नायकों द्वारा निर्धारित किए गए थे।
स्वतंत्रता के बाद से, भारतीयों का रहन-सहन निश्चित रूप से बेहतर हुआ है। लेकिन ये पर्याप्त नहीं है। अपनी श्रेष्ठ और स्वर्णिम नियति तक पहुंचने के लिए हमें अभी बहुत लंबा सफर तय करना है, प्रयास करना है। 22 जनवरी, 1947 को संविधान के “लक्ष्यों और उद्देश्यों के संकल्प” पर संविधान सभा में बोलते हुए, तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि प्रत्येक भारतीय को अपनी क्षमता के अनुसार खुद को विकसित करने का पूर्ण अवसर देना ही हमारा लक्ष्य है।
प्रत्येक व्यक्ति, प्रत्येक संगठन को उसकी अंतर्निहित क्षमता की पूर्ण अभिव्यक्ति का अवसर दे कर, हमारा देश उन्नति के एक नए स्तर पर पहुंच सकता है। इसके लिए हर नागरिक को सशक्त और सक्षम बनाना जरूरी है जिससे उसे पर्याप्त अवसर मिल सकें, उसे इन्नोवेशन के लिए परिवेश मिल सके और वह उन अवसरों का लाभ उठा सके।
पारस्परिक सौहार्द के अभाव, उद्देश्यों और प्रयासों में कमी के कारण भारत को लंबे समय तक अधीनता और शोषण का सामना करना पड़ा है। इससे सीख लेते हुए, सभी भारतीयों को अपने अपने सांस्कृतिक मूल्यों और संस्कारों का पालन करते हुए भी, भारतीयता की हमारी साझा भावना से बंधने की आवश्यकता है। यह विभिन्न विविधताओं से ऊपर उठ कर राष्ट्रीयता की भावना को जागृत करें उसे सशक्त सबल करें। विभाजित भारत, किसी शत्रु के लिए एक आसान लक्ष्य बन सकता है। एक मजबूत, अखण्ड और भावनात्मक रूप से एक भारत ही, संदिग्ध इरादों के साथ बुरी नजर रखने वाले विरोधियों के विरुद्ध सशक्त रक्षा कर सकता है।
जैसा कि अपेक्षित था,भारत की स्वतंत्रता ने, कई अन्य समान स्थिति वाले देशों को अपनी गुलामी की बेड़ियों को उतार फेंकने के लिए प्रेरित किया। लेकिन वर्तमान में वैश्विक दर्शन विभिन्न कारणों से गंभीर तनावों से जूझ रही है। शीतयुद्ध के बाद का बहुपक्षवाद अनेक कठिनाइयों से घिरा हुआ है। वैश्विक परिदृश्य कठिन होता जा रहा है हालांकि भारत इस वैश्विक परिवेश में भी समृद्धि की नए अवसरों को तलाश रहा है।
भारत को आर्थिक, वैज्ञानिक, औद्योगिक, तकनीकी और मानव संसाधन की अपनी पूरी क्षमता का भरसक उपयोग करने की आवश्यकता है। केवल समृद्ध और विकसित भारत ही नई उभरती वैश्विक व्यवस्था को सकारात्मक रूप से प्रभावित करने में अपनी भूमिका निभा सकता है।
वर्तमान कोविड -19 महामारी ने अंतर्निहित असमानताओं को उजागर किया है और समाज के कुछ वर्गों की कमजोरियों को और बढ़ाया है।
हमें सबकी समानता और सबके लिए समान अवसर सुनिश्चित करने और भारत को एक ही सूत्र में बुनने की आवश्यकता है। एक विभाजित और अन्यायपूर्ण समाज सभी भारतीयों को उनकी क्षमता के अनुरूप पूर्ण विकास के लिए अवसर नहीं देगा।
स्वतंत्रता संग्राम का मुख्य उद्देश्य स्वराज था, जिसकी रूपरेखा महात्मा गांधी द्वारा परिभाषित की गई थी। वह तभी संभव हो सकेगा जब संविधान के विभिन्न अंगों के प्रभावी और प्रामाणिक कार्यान्वयन से सुराज सुनिश्चित किया जाएगा। सच्चे लोकतान्त्रिक प्रशासन और लोगों को सुविधाएं और सेवाएं उपलब्ध कराने के लिए ग्राम और जिला स्तर पर प्रशासन को प्रभावी बनाने की आवश्यकता है।
भारत छोड़ो आंदोलन ने औपनिवेशिक शासकों को तो देश से निकाल दिया, लेकिन स्वतंत्रता आन्दोलन के आदर्शों और उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए हमें सभी कमियों को दूर करते हुए अपने व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन को शुद्ध करने की आवश्यकता है। हम जल्द ही अपने देश की आजादी के 75 साल पूरे होने का जश्न मनाने जा रहे हैं, आइए हम सभी भारत छोड़ो आंदोलन और स्वतंत्रता आन्दोलन की भावना का स्मरण करें और उससे प्रेरणा लें।
इस अवसर पर आइए संकल्प लें कि महात्मा गांधी और देश के महान नायकों के सपनों का नया भारत बनायेंगे, उसके लिए मार्ग में अवरोध बनी गरीबी, अशिक्षा, असमानता, लैंगिक भेदभाव, भष्टाचार जैसी सामाजिक कुवृत्तियों को उखाड़ फेंकेंगे। हम एक ऐसा नया भारत बनाएं जिसमे हर नागरिक के पास उसकी आकांक्षाएं पूरी करने के लिए उसकी क्षमताभर पर्याप्त अवसर हों।
एक ऐसा राष्ट्र बनाएं जो एकता, समावेशी समानता के हमारे सनातन सांस्कृतिक सांस्कारिक मूल्यों पर आधारित हो। राष्ट्रीयता की हमारी साझा भावना इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए हमारे साझा प्रयासों को प्रेरित करेगी, उनका मार्गदर्शन करेगी। मातृ भाषा और मातृभूमि के लिए हमारा समर्पण, हमारी आस्था हमारी व्यक्तिगत और सम्मिलित क्षमताओं और शक्तियों को दिशा देंगी।
कोई भी सभ्यता केवल तभी आगे बढ़ सकती है यदि वह अपने अतीत से सही सबक सीखती है और भविष्य के निर्माण के लिए अपने में सही सुधार लाती है। आज हमें यही सबक सीखने की जरूरत है।
इस अवसर पर, मैं उन सभी को श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं जिन्होंने अपने जीवन का बलिदान दिया ताकि हम स्वतंत्र देश में स्वच्छंद होकर सांस ले सकें।