देशों को अपने एचडीआई स्तर के आधार पर कार्बन गहनता में कमी लाने की कार्यनीति अपनाने की जरूरत: पूर्व अध्यक्ष, परमाणु ऊर्जा आयोग
नई दिल्ली से पसूकाभास
1998 के पोखरण परमाणु परीक्षण की वर्षगांठ पर मनाए जाने वाले राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी दिवस के अवसर पर, परमाणु ऊर्जा आयोग के पूर्व अध्यक्ष और राजीव गांधी विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी आयोग के अध्यक्ष, पद्म विभूषण डॉ. अनिल काकोडकर ने जलवायु संकट के संदर्भ में ऊर्जा की जरूरतों से निपटने के बारे में भारत की जनता के लिए अपना संदेश दिया है।
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नेहरू विज्ञान केंद्र, मुंबई द्वारा आयोजित ऑनलाइन लॉकडाउन व्याख्यान में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत की प्रगति की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा, ‘22 साल पहले हुए परमाणु परीक्षण की याद में राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी दिवस मनाया जाता है, जिन्होंने हमें राष्ट्रीय सुरक्षा प्रदान की थी’। उन्होंने कहा कि उसके बाद शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए परमाणु वाणिज्य को बढ़ावा देने के लिए भारत ने विभिन्न देशों के साथ कई अंतर्राष्ट्रीय समझौते किए हैं। उन्होंने कहा कि इसका उद्देश्य परमाणु ऊर्जा के माध्यम से ऊर्जा सुरक्षा को सुरक्षित करना था।
अपनी प्रस्तुति के दौरान उन्होंने मानव विकास सूचकांक (एचडीआई) और समूचे विश्व में प्रति व्यक्ति ऊर्जा खपत के बीच सहसंबंधों के बारे में बताया। आंकड़ों के अनुसार, जहां एक ओर उच्च एचडीआई वाले देश, उच्च गुणवत्ता वाला जीवन बिताते हैं, वहां ऊर्जा की प्रति व्यक्ति खपत उच्चतम होती है।
हालांकि जलवायु संबंधी मामलों के बढ़ने के साथ ही भारत जैसे विकासशील देश को एक ऐसी चुनौती का सामना करना पड़ता है, जहां वह ऊर्जा सुरक्षा और जलवायु सुरक्षा जैसे मामलों के बीच उलझकर रह जाता है। उन्होंने कहा “आज जरूरत इस बात की है मानव जीवन की गुणवत्ता बढ़ाने के साथ ही साथ जलवायु संकट पर नियंत्रण रखने के बीच संतुलन कायम किया जाए।”
दुनिया भर में जलवायु परिवर्तन के बारे में अध्ययन करने वाले शोधकर्ता इस बारे में विचार कर रहे हैं कि पर्यावरण के लिए गंभीर खतरा बन चुकी कार्बनडाई ऑक्साइड के उत्सर्जन को कैसे रोका जाए। जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल की रिपोर्ट में कहा गया है, “2,100 में 1.5 डिग्री वृद्धि से नीचे रहने के लिए 2030 तक ग्रीन हाउस गैस (जीएचजी) के उत्सर्जन में 45 प्रतिशत की कटौती कर 2010 के स्तर से नीचे लाने और 2050 तक स्पष्ट रूप से शून्य तक लाने की आवश्यकता होगी”; जिसका अर्थ है कि हमारे पास दुनिया भर के अनेक देशों की विकास आकांक्षाओं को सुनिश्चित करते हुए कार्बन डाईऑक्साइड के उत्सर्जन में गहन कटौती करने में केवल 10 साल का समय ही बचा है।
इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए विश्व को उपलब्ध/ त्वरित गति से लागू की जाने योग्य प्रौद्योगिकियों का लाभ का उठाते हुए कदम उठाने होंगे। इसी मौके पर परमाणु ऊर्जा की आवश्यकता उत्पन्न होती है, जो ‘शून्य उत्सर्जन’ का लक्ष्य सुगमता से हासिल कर सकती है। परमाणु ऊर्जा के योगदान से डिकार्बनाइजिंग या कार्बन की गहनता में अपार कमी लाने संबंधी लागत में कमी लाई जा सकती है। डिकार्बनाइजिंग का आशय कार्बन की गहनता में कमी लाना है अर्थात प्रति इकाई उत्पादित बिजली में उत्सर्जन में कमी लाना है। (अक्सर प्रति किलोवॉट-हॉवर कार्बनडाई ऑक्साइड ग्राम के दी जाती है)
उद्योगों/वाणिज्यिक क्षेत्रों की ओर से बिजली की मांग अधिक होने के कारण देश में ऊर्जा उत्पादन का डिकार्बोनाइजेशनया कार्बन की गहनता में कमी लाना आवश्यक है। कम कार्बन वाले ऊर्जा स्रोत -विशेषकर सौर, हाइड्रो और परमाणु के साथ बायोमास जैसी नवीकरणीय ऊर्जा की हिस्सेदारी को बढ़ाकर शून्य उत्सर्जन के लक्ष्य को काफी हद तक प्राप्त करने में अपार योगदान दे सकते हैं।
कार्रवाई की आवश्यकता:
अनेक देशों द्वारा ऊर्जा दक्षता के क्षेत्र में सक्रिय प्रयास किए जाने के बावजूद कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्सर्जन पिछले वर्षों की तुलना में अभी तक अधिक बना हुआ है। इससे पता चलता है कि इस पर काबू पाने के लिए हमें बेहतर योजनाएं बनाने की जरूरत है।
कार्बनडाई ऑक्साइड के उत्सर्जन को नियंत्रित करने के लिए, विभिन्न देशों द्वारा अपने एचडीआई के आधार पर खपत की रणनीति के विभिन्न स्तरों पर गौर किया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, उच्च मानव विकास सूचकांक वाले देशों को अपनी ऊर्जा की खपत में कमी लानी चाहिए, क्योंकि यह संभवत: उनके एचडीआई को ज्यादा प्रभावित नहीं कर सकता है। इसके अतिरिक्त उन्हें अपने बिजली उत्पादन में कार्बन की गहनता में कमी लानी चाहिए। इसके अलावा मध्यम एचडीआई वाले देशों को गैर-जीवाश्म बिजली की खपत पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, जबकि कम एचडीआई वाले देशों को अपने नागरिकों को स्वच्छ ऊर्जा के सस्ते स्रोत प्रदान करने में सक्षम होना चाहिए। इस तरह प्रत्येक देश कार्बनडाई ऑक्साइड के कम / शून्य उत्सर्जन की दिशा में सक्रिय योगदान दे सकता है।
जापान एक ऐसा देश है जिसने परमाणु ऊर्जा की नकारात्मकता का आघात झेला है- हिरोशिमा और नागासाकी पर हुए क्रूरतम परमाणु बम हमलों ने परमाणु ऊर्जा के संबंध में दुनिया भर की संवेदनशीलता को बढ़ा दिया। लेकिन इसके बावजूद इस देश ने 2030 तक कार्बन डाई ऑक्साइड में कमी लाने के लिए अपनी कुल ऊर्जा खपत का 20 प्रतिशत से 22 प्रतिशत परमाणु ऊर्जा से सृजित करने वाली ऊर्जा योजना का मसौदा तैयार किया है। जर्मनी और जापान जैसे देश पहले से ही क्रमशः 2020 और 2030 तक जीएचजी उत्सर्जन में कटौती करने की योजना बना रहे हैं, जिन्होंने नवीकरणीय ऊर्जा के उत्पादन पर बड़ी राशि का आवंटन किया है।
भारत जैसे देश के लिए, ऊर्जा की खपत में कार्बन की गहनता में कमी लाने के लिए, हमें नवीकरणीय ऊर्जा में 30 गुना वृद्धि, परमाणु ऊर्जा में 30 गुना वृद्धि और तापीय ऊर्जा को दोगुना करने की आवश्यकता है जिससे 70 प्रतिशत ऊर्जा कार्बन मुक्त होगी।
भारतीय परमाणु ऊर्जा एक नज़र में:
देश की ऊर्जा संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए, वर्तमान में 49180 एमडब्ल्यूई की क्षमता के साथ 66 इकाइयां (परिचालित, योजनाधीन, निर्माणाधीन और स्वीकृत परियोजनाओं सहित) हैं।
परमाणु अपशिष्ट :
इस समय सबसे बड़ी चिंता इस बात को लेकर है कि ऊर्जा उत्पादन के दौरान उत्पन्न होने वाले परमाणु अपशिष्ट का प्रबंधन कैसे किया जाए। डॉ. काकोडकर ने बताया कि भारत ‘परमाणु पुनर्चक्रण प्रौद्योगिकी’ की नीति को अपनाता है – जिसके तहत ऊर्जा उत्पादन के लिए एक बार उपयोग किए जा चुके- यूरेनियम, प्लूटोनियम आदि जैसे परमाणु ईंधन को वाणिज्यिक उद्योगों द्वारा संसाधन सामग्री के रूप में पुन: उपयोग करने के लिए पुनर्चक्रित किया जाता है। हमारे यहां 99% से अधिक परमाणु अपशिष्ट का पुन: उपयोग किया जाता है क्योंकि भारत में अपशिष्ट प्रबंधन कार्यक्रम पुनर्चक्रण को प्राथमिकता देता है