संतों की हत्या पर राष्ट्रीय आक्रोश स्वाभाविक
वरिष्ठ पत्रकारअवधेश कुमार
महाराष्ट्र के पालघर में दो निर्दोष, निरपराध संतों की भीड़ द्वारा पीट-पीट कर हत्या का दृश्य देखकर पूरे देश में आक्रोश व्याप्त है। सच यही है कि अगर लॉकडाउन नहीं होता तो अभी तक साधू-संत, उनके समर्थक और देश के आम लोग भारी संख्या में सड़कांें पर होते। इस तरह किसी निरपराध, निर्दोष संन्यासी की पीट-पीट कर हत्या कर दी जाए और देश में आक्रोश नहीं हो तो फिर यह मरा हुआ समाज ही कहलाएगा। महाराष्ट्र सरकार कह रही है कि उसने काफी संख्या में लोगों को गिरफ्तार किया है और भी गिरफ्तारियां होंगी तथा किसी भी दोषी को छोड़ा नहीं जाएगा। सच है कि इन पंक्तियों के लिखे जाने तक 100 से ज्यादा लोग गिरफ्तार हो चुके हैं। जिस तरह के वीडियो सामने आए हैं उन्हें देखकर तो विश्वास ही नहीं होता कि किसी कानून के राज में ऐसा भी हो सकता है। हालांकि हमने भीड़ की हिंसा के भयावह और दिल दहला देने वाले दृश्य पहले भी देखें और हर बात वेदना और क्षोभ पैदा हुआ है। उसका असर भी हुआ है। दोषी पकड़े गए हैं। उनको सजाए भी हुईं हैं। किंतु इस एक घटना ने फिर से कई प्रश्न उभार दिए हैं जिनका उत्तर हमें तलाशना ही होगा।
इस पूरे प्रकरण को देखने के बाद पुलिस की विफलता और उसकी ओर से कोताही साफ झलकती है। इसे कोई अस्वीकार नहीं कर सकता। 14 अप्रैल की रात नौ बजे के आसपास की घटना है। आखिर उस समय इतना विलंब नहीं हुआ था कि इसकी सूचना जिला, प्रमंडल और उससे उपर पहुंचाई न जा सके। अगर यह सूचना पहुंची तो जिला प्रशासन, जिला पुलिस प्रशासन तथा उसके उपर के अधिकारियों ने क्या किया यह प्रश्न पूरा देश पूछ रहा है। क्या मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे एवं गृह मंत्री देशमुख तक यह सूचना पहुंची ही नहीं? अगर पहुंची तो उनको भी स्पष्ट करना चाहिए कि तत्काल उन्होंने क्या कदम उठाए या क्या निर्देश दिए। ध्यान रखिए, पुलिस की दैनिक विज्ञप्ति में यह घटना 17 अप्रैल को भी शामिल नहीं था। क्यों? 18 तारीख को यह विज्ञप्ति में शामिल हुई और उसमें भी यह जितनी बड़ी घटना है उतनी बड़ी नहीं बताई गई। इसका अर्थ क्या है? क्या जिला प्रशासन इसे मामूली घटना मानकर इतिश्री करने की राह पर था? इसी रुप में उपर के अधिकारियों एवं राजनीतिक नेतृत्व को सूचित किया गया? लगता तो ऐसा ही है। सारे बयान वीडियो वायरल होने के बाद आ रहे हैं। इसका तो अर्थ हुआ कि वीडियो अगर वायरल नहीं होता तो इसे मामूली भीड़ की हिंसा या सामान्य दंगा आदि का स्वरुप देकर फाइलों में बंद कर दिया जाता।
पुलिस और प्रशासन के इस रवैये से गुस्सा ज्यादा पैदा होता है। पालघर के जिस क्षेत्र में यह घटना हुई वहां से चिंतित करने वाली खबरें बीच-बीच में आतीं रहीं हैं। वहां माओवादियों की गतिविधियों की भी सूचनाएं रहीं हैं। धर्मांतरण पर भी विवाद हुआ है। उस क्षेत्र में कम्युनिस्टों का प्रभाव भी है तभी तो स्थानीय विधानसभा से माकपा के उम्मीदवार लगातार विजयी होते रहे हैं। ध्यान रखने की बात है कि 14 अप्रैल को कोरोना पर काम के लिए गई डॉक्टरों और स्वास्थ्यकर्मियों की टीम पर भी भीड़ ने वहां हमला किया था। उस टीम में शामिल डॉक्टर का कहना है कि किसी तरह वे जान बचाने में सफल हो गए अन्यथा हमला पूरा जानलेवा था। निश्चित ही इसकी सूचना पुलिस एवं प्रशासन को थी। इसका जवाब तो उसे देना ही होगा कि इसके बाद उसने वहां सुरक्षा व्यवस्था पुख्ता करने के लिए क्या कदम उठाए?किंतु यहा राजनीतिक नेतृत्व का दायित्व था कि विस्तार से पता लगाए कि क्या और कैसे हुआ? उसके साथ त्वरित कदम उठाए एवं देश को आश्वस्त करे। महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा कोरोना संक्रमित हैं। कोरोना से मृतकों की संख्या में वह पहले स्थान पर है। ऐसे राज्य मे ंतो कोरोना मामलों का पता लगाने, उससे बचाव के लिए कोरंटाइन करने तथा उपचार में लगे डॉक्टरों और स्वास्थ्यकर्मियों की टीम की सुरक्षा की ज्यादा पुख्ता व्यवस्था होनी चाहिए। साफ है कि प्रशासन और पुलिस ने स्थिति की गंभीरता को भांपकर वहां सुरक्षा व्यवस्था नहीं की, अन्यथा ये दो निर्दोष संतोें और उनके चालक की जान नहीं जाती।
दुख इस बात का भी है कि कुछ स्वनामधन्य बुद्धिजीवी और पत्रकार यही सवाल उठा रहे हैं कि वो साधू लौकडाउन में निकले ही क्यों? यह तथ्य सामने है कि सूरत में जूना अखाड़ा के उनके एक साधू की मृत्यु हो गई थी जिनको समाधी देने जाना था। हालांकि रास्ते में इन्होंने पुलिस को अवश्य बताया होगा तभी तो उतना आगे निकल गए थे। हालांकि हम इस मीन-मेख में नहीं जाएंगे क्योंकि यह पहलू यहां किसी दृष्टि से प्रासंगिक नहीं हैं। वे दुख में अपने साथी साधू की अंतिम क्रिया के लिए जा रहे थे। किंतु यह तो नहीं हो सकता कि लौकडाउन में कोई कहीं जाए तो दूसरों को उन्हें पीट-पीट कर मार डालने का अधिकार मिल जाता है? सबसे महत्वपूर्ण बात कि प्रश्न यह क्यों नहीं उठ रहा कि आखिर उतनी संख्या में लौकडाउन तोड़कर लोग सड़कों पर क्यों थे? वे कैसे आ गए? असल लॉकडाउन तो वे लोग तोड़ रहे थे जो सड़कों पर थे। डॉक्टरों और स्वास्थ्यकर्मियों का बयान यह साबित करता है कि वहां भीड़ कई दिनों से एकत्रित हो रही थी। पुलिस की संख्या चाहे तीन हो लेकिन घटना के समय वह उपस्थित तो है। वह भीड़ को हटाने के लिए कुछ नहीं कर रही थी। प्रश्न तो उठेगा कि पुलिस ने भीड़ को भगाने का प्रयत्न क्यों नहीं किया? पूरे वीडियो में पुलिस न तो इन निरपराध साधुओं को बचाने का प्रयास करती है और न ही लोगों को सड़कों से हटने के लिए कहती है। महाराष्ट्र जैसे सबसे ज्यादा कोरोना संक्रमित प्रदेश मे ंतो लौकडाउन अन्य राज्यों से भी ज्यादा सख्त होना चाहिए।
साफ है कि वहां पहले से लौकडाउन की धज्ज्यिां अफवाहों के कारण उड़ाई जा रहीं थीं। अब आइए घटना पर। वन विभाग के नाके में दोनों साधू एवं चालक हैं। भीड़ की ऐसी अवस्था में सामान्य समझ की बात है कि जो लोग उनके निशाने पर हैं उनको पहले भवन से निकाला नहीं जाता। पहले भीड़ को शांत किया जाता है। पुलिस वाले ने साधुओं और चालक को बाहर क्यों निकाला? वह दृश्य किसी को भी हिला देता है कि 70 वर्ष के साधू कल्पवृक्षगिरि महाराज पुलिस के पास जान बचाने के लिए छिपते हैं और पुलिस वाला उनको भीड़ के बीच छोड़ देता है। उनको बचाने की कोशिश तक नहीं करता, एक बार फायर भी नहीं करता। अगर पुलिस कोशिश करती फिर विफल हो जाती तो उसे क्षमा किया जा सकता था। उसने कोशिश ही नहीं की। इसे आप क्या कहेंगे? इसकी तो गहराई से जांच होनी चाहिए कि उसने ऐसा क्यों किया? पुलिस वालों का निलंबन पर्याप्त नहीं है। उन पर तो मुकदमा दर्ज होना चाहिए था। पालघर के जिलाधिकारी और पुलिस अधीक्षक का यह कहना कि पुलिस ने कोशिश की लेकिन भीड़ ज्यादा होने से सफल नहीं हुई वास्तव में अपने बचाव में दिया गया बयान ही माना जाएगा। जो कुछ वीडियो में दिख रहा है उसे कौन झुठला सकता है? क्या वीडियो में किसी को कहीं भी पुलिस साधुओं का बचाव करते हुए या भीड़ को समझाते-चेतावनी देते हुई सुनाई देती है या दिखती है?
चूंकि पुलिस और प्रशासन अपना दोष स्वीकारने की जगह बचाव में लगा हुआ है इसलिए संदेह ज्यादा गहरा होता है। ये हत्यायें पहली नजर में त्वरित गुस्सा का परिणाम नहीं लगती। चोरी, बच्चा चोरी, डकैती आदि की बातें तो मनगढंत ही हैं। यह भी अब साफ हो रहा है कि उस क्षेत्र में काफी दिनों से कई प्रकार की अफवाहें फैलाई जा रहीं थी। लोगों को उकसाया जा रहा था। मोबाइल पर मेसेज आ रहे थे। जाहिर है, कुछ शक्तियां किसी न किसी तरह की हिंसा कराने की साजिश रच रहीं थीं। यह प्रशासन का दायित्व था कि उसका संज्ञान लेकर सुरक्षोपाय तथा लोगों का भ्रम दूर करने की कोशिश करता। ऐसे किसी प्रयास की कोई सूचना नहीं है। ऐसा लगता है कि जानबूझकर साजिश रची गई थी। संभव है साधुओं की हत्या से साजिश में लगे असामाजिक तत्व प्रदेश व देश में सांप्रदायिक हिंसा की स्थिति पैदा करना चाहते हों। लौकडाउन को ध्वस्त करने की कोशिश बार-बार सामने आ रहीं हैं। इसलिए इसकी गहराई से जांच हो एवं केवल सामने दिखने वाले चेहरे नहीं, वास्तविक दोषियों को कानून के कठघरे में खड़ा किया जाए। इसके लिए मकोका सबसे उपयुक्त कानून होगा। महाराष्ट्र सरकार को ध्यान रखना होगा कि नगा साधुआंे ने ही नहीं, अनेक अखाड़ों, संत-संगठनों, शंकराचार्य सहित काफी सम्मानित संतों ने लौकडाउन के बाद महाराष्ट्र कूच का ऐलान कर दिया है। स्थिति को संभालने के लिए जरुरी है कि दोषियों को पकड़ने के साथ पुलिस-प्रशासन के जिम्मेवार तत्वों पर भी कड़ी कार्रवाई हो।