मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र रावत वादा निभाओं, उतराखण्ड की जनांकांक्षाओं व अशोक शाह, रणजीत पंवार व सूरत राणा जैसे राज्य गठन के अग्रणी समर्पित आंदोलनकारियों की तो सुध लो
देवसिंह रावत
इस सर्द मौसम के तडके मेरा फोन घनघनाया, तो मेने सोचा क्या रघुवीर भाई का फोन आया होगा, वेसे कुछ महिनों से उनका फोन नहीं आ रहा है। किसका फोन होगा, फोन पर जो नाम दिख रहा था वह उतराखण्ड राज्य आंदोलनकारी अशोक लाल शाह का।मैने सोचा अचानक कई महिनों बाद अशोक का फोन क्यों आया? सब खैर होगी! इसी आशंका से मै आशंकित था। अशोक ने कहा भाई जी मैं देहरादून आया हॅू। मैने कहा कब आये? कोई काम है क्या?अशोक ने कहा भाई जी 55 साल का हो गया, गैरसैंण में काम धंधा नहीं हैे परिवार के लालन पालन के लिए मैं कुछ महिनों से देहरादून में ही हॅू।बेटी भी पढ़ रही है। मैने पूछा आप चाय की दुकान कर रहे थे गैरसैंण में? अशोक ने कहा भाई जी नहीं चला, अब 55 साल की उम्र में मुझे परिवार के गुजर बसर के लिए शहरों की खाक छाननी पड़ रही है। यह कहते हुए अशोक ने कहा भाई जी आप मेरे लिए कोई काम देख लो । मैने उनको राज्य आंदोलन के साथी राजेन्द्र शाह का फोन नम्बर दिया। मुझे आशा है राजेन्द्र शाह अवश्य उनको कहीं काम ढूंढने का काम करेंगे। अशोक की बात सुन कर मै सन्न रह गया?
यह हालत है उतराखण्ड के लिए अपना सर्वस्व निछावर करके दिन रात वर्षों तक राज्य गठन में आंदोलन में कुर्वान होने वालों का। यह दयनीय हालत केवल गैरसैंण निवासी अशोक लाल शाह की नहीं है। अपितु उतराखण्ड में दर्जनों ऐसे समर्पित आंदोलनकारी है जिन्होने राज्य गठन के लिए अपना काम धंधा व घरबार छोड़कर उतराखण्ड विरोधी राव मुलायम जैसे घोर हैवानी सरकारों के दमन को शह कर भी उतराखण्ड राज्य गठन आंदोलन में खुद को पूर्ण रूप से समर्पित कर दिया था।
टिहरी के जखोली क्षेत्र के वासी सूरत सिंह राणा, जो राज्य गठन के बाद अचानक पक्षाघात की बिमारी से अपने गांव में जैसे तैसे जीवन यापन कर रहे हैं। उनकी दयनीय हालत को देख कर मैने पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत से उनकी आर्थिक मदद की गुहार लगायी तो मै यह सुन कर स्तब्ध रह गया कि उतराखण्ड सरकार जो खेल तमाशों आदि पर लाखों लुटा रही थी उसने एक पीडित राज्य आंदोलनकारी के लिए छ-सात हजार रूपये की सहायता देकर हमारी गैरत को रौंदने का कुकृत्य किया। मुझे जब सूरत सिंह राणा ने यह बात बतायी तो मैने कहा सूरत भाई आपको यह रकम वापस कर देनी चाहिए थी, सूरत राणा ने कहा कि भाई माॅजी का देहांत हुआ था मेरे पास पैसे नहीं थे मजबूरी में मुझे यह स्वीकार करना पड़ा। कई महिनों से सूरत सिंह राणा ने बात नहीं हो पायी। किन हालतों में हैं, कई मित्रों से सम्पर्क किया। वे कई महिनों से फैसबुक पर भी सक्रिय नहीं है।
ऐसी ही हालत रूद्रप्रयाग जनपद के राज्य आंदोलनकारी रणजीत पंवार की है। कितना पुलिस का दमन व जेल की यातना सही थी रणजीत पंवार ने। इसका भान प्रदेश के सत्तासीन हुक्मरानों को क्या होगा। कंपकपाती सर्दी हो या झुलसाने वाली लू गर्मी हो, आंधी तूफान हो या भूख प्यास हो। वर्षों तक राज्य गठन को साकार करने के लिए अपना सब कुछ दाव पर लगा कर राज्य गठन के सपने को साकार करने में अंतिम समय तक जूटे रहे रणजीत पंवार। मुझे याद है कि जब राज्य आंदोलन के मध्य दौर में जब पुलिस प्रशासन ने जंतर मंतर पर रात्रि के निवास पर प्रतिबंद्ध लगाया तो मेरे राज्य आंदोलन के साथी रूद्र प्रयाग के रणजीत पंवार, अल्मोडा के नरेन्द्र भाकुनी व चमोली नंदप्रयाग के प्रताप रावत हर सांय दिन भर के धरने के बाद साधन व स्थान के अभाव में मीलों दूर विकासपुरी दिल्ली में रात्रि निवास के लिए जंतर मंतर से पैदल जाते। फिर सुबह विकास पुरी से जंतर मंतर मीलों दूर कई बार पैदल ही आते। यह रात्रि निवास की व्यवस्था राज्य आंदोलन के अग्रणी संगठन उतराखण्ड जनता संघर्ष मोर्चा के दिल्ली प्रदेश के पूर्व अध्यक्ष व्योमेन्द्र नयाल ने की थी। 16 अगस्त 2000 को राज्य गठन आंदोलन का सफल समापन की पूर्व रात्रि को पुलिस ने इन तीनों को राज्य स्थापना के धन्यवादी पोस्टर लगाने पर गिरफ्तार कर थाने में बंद कर दिया था, जिसे उतराखण्ड जनता संघर्ष मोर्चा के संयोजक व सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता अवतार रावत, खुशहाल सिंह बिष्ट व मैने जमानत देकर छुडाया था। राज्य गठन के बाद अपने गांव न जाने वाले नरेन्द्र भाकुनी का इंतकाल भी कई महिनों बाद जंतर मंतर पर हुआ। उनका अंतिम संस्कार भी उनके परिजनों के आने पर हम आंदोलनकारी साथियों ने ही किया। राज्य गठन के बाद रणजीत पंवार अपने गांव चले गये। वहां उन्होने खच्चर रख कर उनका संचालन किया। केदारनाथ त्रासदी के समय वे बालबाल बचे।
ऐसी ही हालत पौडी निवासी देवेन्द्र चमोली की भी हैे। पिछले कुछ माह पहले उनका भी फोन आया था, अपनी बेटी को परीक्षा दिलाने देहरादून आये थे। परिवार के लिए एकमात्र आजीविका अर्जित करने वाले देवेन्द्र चमोली भी वर्षों तक जंतर मंतर पर मेरे साथ राज्य गठन आंदोलन में पूर्णरूप से समर्पित रहे। तमाम बदहाली व पुलिस प्रशासन का दमन सह कर भी वे अन्य आंदोलनकारियों की तरह अपने परिवार व अपने जीवन को पूरी तरह से आंदोलन की भट्टी में झौक दिया था। मुझे याद है अपने परिजन की दर्दनाक मौत की खबर उनको उस समय मिली जब वे दिल्ली से उतरकाशी गये थे। राज्य गठन आंदोलन में वे गंभीर बिमारी से पीड़ित भी हो गये थे। राज्य गठन के बाद वे भी सरकार द्वारा राज्य गठन आंदोलनकारियों के कल्याण करने के ढपोर शंख पिटने पर अपना पूर्व रोजगार से वंचित हो कर गांव चले गये। परन्तु न तो सरकार ने उनका कल्याण करने का वादा निभाया। सरकार के वादा खिलाफी के कारण उन पर व उनके परिवार पर बदहाली का बज्रपात हुआ।
ऐसी ही हालत अल्मोड़ा के ताड़ीखेत विकासखण्ड के सोनी डाबर के निवासी भुवन बिष्ट की भी है। वे राज्य गठन आंदोलन के समय दिल्ली के केलरिज होटल में सेवारत थे, परन्तु अपने प्रदेश के मान सम्मान व राज्य गठन के जनांदोलन की ज्वार में अपनी नौकरी छोड़ कर राज्य गठन के लिए संसद की चैखट पर चल रहे देश के एकमात्र ऐतिहासिक व सफल राज्य गठन आंदोलन में कूद गये। भुवन बिष्ट के साथ अल्मोड़ा के सल्ट के मन्नु भी राज्य गठन आंदोलन जंतर मंतर में उतराखण्ड विरोधी राजनैतिक दलों के प्यादों के प्रहारों से रक्षा करने वाले दल के प्रमुख रहे। उनके साथ अल्मोड़ा के ही पूर्व बीएसएफ जवान हीरा बिष्ट का भी योगदान का स्मरण सुखद अनुभूति प्रदान करता है। भुवन बिष्ट, मन्नु व हीरा बिष्ट सभी राज्य गठन के बाद अपने घर चले गये। भुवन बिष्ट अपने गांव के प्रधान भी रहे। परन्तु उनकी आर्थिक स्थिति भी उचित नहीं है। राज्य गठन आंदोलन के दौरान राज्य गंठन के आंदोलन के साथी दिनेश बिष्ट के रानीखेत विधानसभा चुनाव दौरान मुझे डावर में कुछ दिन प्रवास करने का अवसर भी मिला था।
राज्य आंदोलन में वर्षों तक रात दिन समर्पित रहे इन्हीं सभी साथियों की बदहाली व राज्य आंदोलनकारियों के कल्याण का ढपोर शंख बजाने वाली 19 साल की सरकारों द्वारा की गयी शर्मनाक उपेक्षापूर्ण अपमान से उबारने के अपने दायित्व निभाते हुए मैने सदैव प्रदेश सरकार के मुखियाओं से इनकी सुध लेने की निरंतर गुहार लगायी। मेरा मानना था कि जिस प्रकार प्रकार से सरकार राज्य आंदोलनकारियों के कल्याण के दावे कर रही है तो एकाद बार कुछ दिनों के लिए बंद रहे आंदोलनकारियों की तर्ज पर ही वर्षों तक दिन रात समर्पित रह कर राज्य गठन को साकार करने वाले आंदोलनकारियों को वंचित करना एक प्रकार से अक्षम्य भूल है। हंमारे आंदोलनकारियों की इस पुरजोर मांग को स्वीकार कर पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने अपने शासनकाल में आंदोलनकारियों के कल्याणार्थ दिल्ली में इनके चिन्हिकरण करके सूचिबद्ध करने का काम प्रारम्भ किया।दिल्ली कार्यालय द्वारा 2017 में हुए विधानसभा चुनाव की अधिसूचना जारी होने से चंद दिनों पहले यह सूचि देहरादून स्थित उच्चाधिकारियों को भेजे जाने के कारण इन चयनित आंदोलनकारियों का चिन्हिकरण सूचि में अंकित नहीं हो पाया। जिसके बाद नयी सरकार के रूप में प्रदेश की सत्ता में आसीन हुई। त्रिवेन्द्र सरकार ने भी राजनैतिक चश्मे से इस मामले को देखने के कारण तीन वर्ष होने के बाद भी आंदोलनकारियों के इस दर्द को समझने की कोशिश तक नहीं की। जबकि राज्य आंदोलनकारियों के एक उच्चस्तरीय शिष्टमण्डल ने दिल्ली के चाणाक्यपुरी स्थित उतराखण्ड सदन में इस समस्या के समाधान के लिए 2017 में मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत से मिला। इस अवसर पर पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने वर्तमान मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र रावत से इस समस्या पर प्रकाश डालते हुए इसका समाधान करने का निवेदन भी किया। प्रदेश के ेतत्कालीन वित्तमंत्री स्व. प्रकाश पंत की उपस्थिति में एक घण्टे से अधिक समय तक सौहार्दपूर्ण माहौल में चली इस बैठक में मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र रावत ने आश्वासन दिया था कि राज्य गठन के लिए समर्पित रहे दिल्ली में चयनित किये गये आंदोलनकारियों को शीघ्र सूचिबद्ध कराके इनको आंदोलनकारियों के कल्याणकारी योजनाओं से लाभान्वित करेंगे।
परन्तु न जाने किन उतराखण्ड व आंदोलनकारी विरोधी ताकतों द्वारा गुमराह किये जाने के बाद प्रदेश सरकार ने इन चयनित आंदोलनकारियों को सूचिबद्ध करने के बजाय इन आंदोलनकारियों को सूचिबद्ध करने से उस आधार पर रोक दिया गया जिस आधार पर प्रदेश के सैकड़ों आंदोलनकारियों को सूचिबद्ध किया जा चूका है। सरकार की इस नादिरशाही प्रवृति ने जहां आंदोलनकारियों को अपमानित होना पड़ रहा है वहीं उनको बदहाली का दंश में झेलना पड़ रहा है। सरकार से इस आशय के लिए मैने अपने साथी मनमोहन शाह, अनिल पंत,खुशहाल सिंह बिष्ट व प्रताप शाही के साथ प्रदेश के मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र रावत से कई बार गुहार लगायी परन्तु क्या मजाल प्रदेश सरकार की कानों में जूं तक रेंगे।
मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि अपने आंदोलनकारी साथियों जिन्होने वर्षों तक उतराखण्ड राज्य गठन के लिए अपना सर्वस्व निछावर कर दिया था उनको कैसे एक अदद आंदोलनकारियों का पहचान पत्र अर्जित करा पाऊं। इन सत्तासीन हुक्मरानों व नौकरशाहों ने वह पीड़ा व दंश कहां सहा होगा जो राज्य गठन आंदोलनकारियों ने राज्य गठन के लिए सहा। आज जहां प्रदेश की सत्तासीनों को इन आंदोलनकारियों की न तो पीड़ा को दूर करने का समय है व नहीं उनको राज्य गठन की जनांकांक्षाओं(राजधानी गैरसैंण बनाने, मुजफ्फरनगर काण्ड-94 के गुनाहगारों को सजा देने, प्रदेश में भू कानून व जनसंख्या पर आधारित विधानसभाई क्षेत्रों के परिसीमन पर रोक लगाने आदि ) को साकार करने का समय है। राज्य गठन के 19 साल बाद उतराखण्ड की सरकारों ने जिस प्रकार से प्रदेश की जनांकांक्षाओं के साथ राज्य गठन आंदोलनकारियों का घोर अपमान निरंतर किया जा रहा है उससे उबरने के लिए उतराखण्ड की जनता व आंदोलनकारी आज देश के प्रधानमंत्री मोदी से गुहार लगा रहे है। प्रदेश की जनता को विश्वास है कि प्रधानमंत्री मोदी प्रदेश की राजधानी गैरसैंण सहित जनांकांक्षाओं व समर्पित राज्य आंदोलनकारियों की शर्मनाक उपेक्षा कर रही प्रदेश भाजपा की त्रिवेन्द्र सरकार को सदबुद्धि प्रदान करेंगे। प्रदेश की जनता ने जिस प्रकार से प्रधानमंत्री मोदी के अच्छे दिन लाने के वादे पर विश्वास कर सन् 2014, 2017 व 2019 के चुनावों में न केवल उतराखण्ड में अपितु पूरे देश में भारी बहुमत दे कर सत्तासीन किया। परन्तु अपने नाम से गांव प्रधान के पद तक न जीत पाने वाले सत्तामद में ंचूर इन प्रांतीय नेताओं की अलोकतांत्रिक कृत्यों से व्यथित भाजपा शासित प्रदेशों की जनता इनको सबक सिखाने के लिए ही बेताज कर रही है। इसलिए प्रधानमंत्री मोदी से उतराखण्ड की जनता गुहार लगा रही है कि समय रहते उतराखण्ड में गैरसैंण राजधानी सहित राज्य गठन की जनांकांक्षाओं को साकार करने के साथ उतराखण्ड राज्य गठन के समर्पित आंदोलनकारियों का सम्मान करने का दो टूक निर्देश प्रदेश की त्रिवेंन्द्र सरकार को दे। नहीं समय दूर नहीं जब ऐसी सत्तांध सरकार के कृत्यों से नाराज उतराखण्ड की जनता भी आगामी विधानसभा चुनाव में झारखण्ड की तरह सत्ताच्युत करने के लिए मजबूर होगी।
आशा है मोदी जी अपने वचन की रक्षा के लिए अपने दुराग्रह व सत्तामद में चूर मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र को राजधानी गैरसैंण सहित प्रदेश की जनांकांक्षाओं को साकार करने व राज्य आंदोलनकारियों से किये वादे को पूरा करने का दो टूक निर्देश दें। मुझे अफसोस है कि राज्य गठन के लिए जनांदोलन में जो ऐतिहासिक सफल आंदोलनरूपि तपस्या मेेंने संसद की चैखट जंतर मंतर पर अपने साथियों के साथ की थी, उसके दर्द को समझने में प्रदेश की 19 साल की तमाम सरकारें असफल रही। आज उन संघर्ष के साथियों व उतराखण्ड की बदहाली देखकर जहां इन धूर्त सत्तासीनों को काला बाबा की तरह अभिशाप देने के लिए बददुआ उठती है । वेसे यह सच भी है कि प्रदेश की बदहाली के इन गुनाहगारों को महाकाल ने पूरी तरह से बेनकाब करके सत्ताच्युत किया। परन्तु ये सब दीवारों में लिखी इबादत को पढ़ने में असफल रहे। वहीं हैरानी होती है कैसे लोकशाही में ऐसे जनविरोधी लोग सत्तासीन हो जाते है। काश त्रिवेन्द्र रावत अपने दुराग्रह व सत्तामद से उपर उठ कर अपने दायित्चों का निर्वहन करके मोदी जी के वादे को साकार करने का काम करते।