झारखण्ड में मजबूत राजनैतिक दल झारखण्ड मुक्ति मोर्चा बना कर शिबू सोरेन ने रचा इतिहास, वहीं उतराखण्ड में बर्चस्व की जंग में उलझ कर उक्रांद हुई गुमनाम
देवसिंह रावत
24 दिसम्बर को जहां एक तरफ उतराखण्ड राज्य के साथ अथक संघर्ष के साथ बने झारखण्ड राज्य में राज्य गठन की मुख्य राजनैतिक दल झारखण्ड मुक्ति मोर्चा प्रदेश की विधानसभा चुनाव में अपने गठबंधन के साथ सत्तारूढ़ भाजपा को धूल चटा कर फिर सत्तासीन होने का जश्न मना रही है। वहीं दूसरी तरफ झारखण्ड के साथ ही गठित हुए उतराखण्ड में उतराखण्ड राज्य गठन के प्रमुख पुरोधा इंद्रमणि बडोनी की जयंती पर आंदोलनकारी उनकी पावन स्मृति को नमन कर प्रदेश गठन के बाबजूद 19 साल की सरकारों द्वारा राज्य गठन की जनांकांक्षाओं का निर्ममता से रौदे जाने पर ठगे महसूस कर रही है। इंद्रमणि बडोनी के नेतृत्व में राज्य गठन का ऐतिहासिक आंदोलन करने वाली उक्रांद राज्य गठन के बाद हाशिये में गुमनामी का दशं झेल रही है। हाॅ दो बार उसको कांग्रेस व भाजपा की सत्ता की पालकी का कहार बनने का अवसर भी मिला।बडोनी जी भले ही राज्य गठन होने से पहले इस देह को छोड़ चूके थे, परन्तु उनके बाद उनके दल के नेता प्रदेश की जनांकांक्षाओं व उक्रांद के वादों को साकार करने में विफल रहे।झारखण्ड में शिबू सोरेन व उनके बेटे ने झामुमो को इतना मजबूत बनाया कि राष्ट्रीय दल झारखण्ड के हक हकूकों को नजरांदाज करने का साहस नहीं कर पायी। वहीं हिमाचल में परमार के बाद वीरभद्र ने इतनी मजबूती प्रदान की कि प्रदेश खुशहाल बना हुआ है।
झारखंड मुक्ति मोर्चा की इस जीत मेें इसके संस्थापक शिबू सोरेन का अथक प्रयास ही है। गुरुजी के नाम से विख्यात शिबू सोरेन,झारखंड राज्य गठन संघर्ष में सबसे शीर्ष नेता रहे । इस चुनाव में विजय होने के बाद हेमंत सोरेन ने अपने पिताजी और झारखंड मुक्ति मोर्चा के संस्थापक शिबू सोरेन से आशीर्वाद लिया। झारखंड के साथ बने उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ में झारखंडी ऐसा सौभाग्यशाली राज्य है, जहां उसके संघर्ष के नायकों ने प्रदेश की सत्ता को भी दिशा देने का काम किया। उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ में राज्य गठन के आंदोलनकारी हाशिये में रहे । छत्तीसगढ़ में राज्य गठन के लिए भले ही कोई बड़ा आंदोलन ना हुआ हो लेकिन उत्तराखंड राज्य गठन के लिए सबसे अग्रणी भूमिका निभाने वाले उत्तराखंड क्रांति दल और अन्य आंदोलनकारी हमेशा ही हाशिये में रहे। इसके लिए और कोई नहीं अपितु उत्तराखंड राज्य गठन की मुख्य पार्टी उत्तराखंड क्रांति दल व अन्य आन्दोलनकारी संगठन ही जिम्मेदार रहे ।जिन्होने ने संगठन पर विशेष ध्यान नहीं दिया।उतराखण्ड व झारखण्ड दोनों राज्यों में राष्ट्रीय दलों के साथ अनैक प्रांतीय दलों का वजूद है। परन्तु अपने संकीर्ण स्वार्थों में लिप्त रहने के कारण उक्रांद न तो संगठन मजबूत बना पाया व नहीं झामुमो की तरह गठबंधन ही कर पाया। यही नहीं ये तमाम राज्य गठन की उन ताकतों को भी अपने साथ करने में असफल रहा जो इनके साथ आना चाहते थे। झारखण्ड में जहां आदिवासी नेतृत्व को सभी दल स्वीकार करते है। परन्तु उतराखण्ड में क्षेत्रवाद, जातिवाद व निहित स्वार्थ में डूबे नेता प्रदेश की हकीकत को भी स्वीकार नहीं करते। दशकों से संगठन पर कुण्डली मारे नेताओं के शिकंजे में जकडे रहने के कारण प्रदेश में मजबूत विकल्प उभर नहीं नहीं आया।
उत्तराखंड क्रांति दल में खासकर इसके नेताओं में वर्चस्व की जंग से सदा पीडित रहा। निर्णायक समय में आपसी संघर्ष में है। इसलिए उत्तराखंड की जनता ने भी इसे हाशिये में धकेल दिया ।अगर उत्तराखंड राज्य गठन शीर्ष राजनीतिक दल उत्तराखंड क्रांति दल को प्रदेश की राजनीति में अपना वजूद स्थापित करना है, तो उसे शिबू सोरेन कि झारखंड मुक्ति मोर्चा से प्रेरणा लेनी चाहिए ।हालांकि उत्तराखंड और झारखंड के नेताओं में जमीन आसमान का फर्क है ।उत्तराखंड की तमाम पार्टियां, जो सत्तासीन रही,उन्हें उत्तराखंड के हक हकूको और उत्तराखंड की जन आकांक्षाओं का प्रति रती भर भी भान नहीं है ।
झारखण्ड में जहां ंभाजपा की हार का एक मुख्य कारण वहां गैर आदिवासी मुख्यमंत्री के रूप में रघुवर दास को मुख्यमंत्री बनाना भी रहा। आदिवासी बाहुल्य झारखण्ड में भाजपा द्वारा बलात गैर आदिवासी मुख्यमंत्री रघुवर दास को थोपना ठीक उसी प्रकार का आत्मघाती फैसला था जिस प्रकार भाजपा ने उतराखण्ड का पहला मुख्यमंत्री गैर उतराखण्ड मूल के नित्यानंद स्वामी को बना दिया था।उतर प्रदेश की जनता की तरह झारखण्ड की जनता खुद को इस कृत्य से अपमानित महसूस कर रही थी। स्वामी की तरह रघुवर दास ने भी स्थानीय जनांकांक्षाओं की घोर उपेक्षा की। झारखण्ड में उतराखण्ड से बेहतर यह रहा कि वहां भाजपा हो या स्थानीय दल दोनों ने झारखण्डी भावना का सम्मान किया। परन्तु उतराखण्ड का दुर्भाग्य यह रहा कि झारखण्ड की तरह यहां एक भी ऐसा मुख्यमंत्री नहीं रहा जिसने जनांकांक्षाओं को वरियता दी हो। खासकर राजधानी गैरसैंण, मुजफ्फरनगर काण्ड व जनसंख्या पर आधारित विधानसभाई क्षेत्रों के परिसीमन आदि मुदृदों पर उतराखण्ड की तमाम सरकार व दल झारखण्ड से कोसों दूर रहे।
उत्तराखंड में केवल सत्तासीन लोगों को प्रदेश की सत्ता की बंदरबांट करने की ही एकमात्र प्राथमिकता है। वहीं झारखंड में भारतीय जनता पार्टी की प्रथम सरकार ने हीं भारतीय जनता पार्टी के आला नेतृत्व द्वारा थोपे गए वनांचल नाम को न केवल नकारा अपितु अपना सम्मानजनक नाम झारखंड को भी स्वीकारा। इसके साथ झारखंड की राजनीतिक पार्टियों ने जिस प्रकार से जनसंख्या पर आधारित विधानसभा परिसीमन को रोकने का काम किया। मूल निवास का अर्जित किया। वहीं उत्तराखंड की पहली भाजपा सरकार ने अपने दल के आकाओं द्वारा उतराखण्ड का नाम जमीदोज कर छदम नाम उतरांचल को बेशर्मी से स्वीकारा। ना प्रदेश में मूल निवास व स्थाई निवास का कानून तक जनांकांक्षाओं के अनुरूप लागू कर पाये। सभी दल राज्य गठन की जनांकांक्षाओं को साकार व सम्मान करने में विफल रहे और ये नेता दलीय बंधुआ मजदूर बन कर इस दिशा में सोचने का काम भी नहीं किया। यही नहीं उत्तराखंड में राजधानी गैरसैण बनाने में विफल रहे। यही नहीं प्रदेश की एकमात्र निर्मित की गयी विधानसभा, जिसमें शीतकालीन व बजट सत्र सहित तमाम महत्वपूर्ण सत्र आयोजित हो चूके है। इसके बाबजूद प्रदेश की स्थाई राजधानी गैरसैंण घोषित करने की जनता व आंदोलनकारियों की पुरजोर मांग व आंदोलन को बेशर्मी से नकार रहे है। ये राजधानी गैरसैंण को घोषित नहीं कर पा रहे है। इसके साथ राव मुलायम की सरकारों को उतराखण्डियों के मान मर्दन करने के लिए किये गये मुजफ्फरनगर कांड के गुनाहगारों को सजा देने में भी तमाम दल विफल रहे ।राज्य गठन की मूल अवधारणा का एक प्रमुख कार्य, हिमाचल की तरह उत्तराखंड में भी भूमि कानून को लागू करने के लिए तमाम राजनीतिक दल विफल रहे। उत्तराखंड की राजनीति में सबसे बड़ा कमजोरी रही कि यहां के राजनीतिक दलों को प्रदेश के हितों के बजाय केवल सत्ता की बंदरबाट और दलीय हितों की है चिंता हमेशा रही। इसीलिए उत्तराखंड पतन के गर्त में गिरा है और हिमाचल जहां परमार से लेकर वीरभद्र तक ने सही दिशा देने का काम किया ।आज हिमाचल देश का सबसे अधिक खुशहाल राज्य है वहीं उत्तराखंड अपने आप में जन आकांक्षाओं को रौंदने वाला देश का सबसे आत्म्मघाती राज्य है।