देवसिंह रावत
इस धरती में इंसान एक दूसरे की पहचान उसके गुणों से नहीं अपितु उसकी जाति, संप्रदाय, लिंग, क्षेत्र, दलीय व परिवार के रूप में करता है।जबकि इस रूप में होने पर उसका कोई योगदान नहीं होता है। कोई अपने को ब्राह्मण, क्षत्रिय,वैश्य, शुद्र, शिया, सुनी, अहमदिया, हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, दाउदी वोरा, एशियाई, यूरोपिय, अमेरिकन,अफ्रीकी,स्त्री पुरूष, उभयलिंग,गोरे, काले, कश्मीरी, हिंदी, तमिल, उतराखण्डी, पूर्वांचली, बिहारी, मराठी, बंगाली आदि के नाम पुकारते या समझते है। यही तो अज्ञानता है। ये सत्य नहीं अपितु माना गया है। जो होता नहीं उसे माना जाता है।कुछ जानकार मुझे क्षत्रिय मानते हैं, कुछ उतराखण्डी मानते है। यही अज्ञानता है।
हकीकत न तो मैं क्षत्रिय हॅू व न कोई ब्राह्मण, शुद्र, वैश्य, हिंदू, मुस्लमान, ईसाई, स्त्री व पुरूष है। इस सृष्टि में चर, अचर, जड़ चेतन सहित सभी अनुपम कृर्ति है। न तो यह सृष्टि केवल मनुष्य के लिए बनी है। इस सकल सृष्टि में केवल परमेश्वर के अलावा दूसरा कुछ भी नहीं है। सबमें वही है। न कोई श्रेष्ट है व नहीं कोई हेय है। सबमें परमेश्वर यानी वासुदेव सर्वम्। इस मूल तत्व को तत्वज्ञान का अमृतपान केवल प्रभु की अपार कृपा से ही होती है। जब यह वासुदेव सर्वम् दृष्टि जीव की हो जाती है तो वह मान अपमान, जय पराजय व सुख दुख के बंधनों से मुक्त हो कर सर्वभूतहिते रता में रत रहता है। यह ज्ञान लौकिक संसार के किताबी ज्ञान से नहीं प्राप्त हो सकता। इसके लिए प्रभु की अपार कृपा जरूरी है। इसी कृपा से मन निर्मल होता है। स्व व पर से उपर उठकर इस दिव्य तत्व का अमृतपान कर पाता है। यह केवल शब्दों के मकड़जाल से नहीं अपितु हंसबुद्धि युक्त होने से इस का अमृतपानी बनता है। जड़ हो या जीवात्मा सबमें परमेश्वर है। रही बात जिस मूल तत्व को आप या लौकिक संसार वर्ण समझ कर जीवात्मा इंसानों को जाति के आधार पर वर्गीकृत कर रहे है। वह अज्ञानता है। कोई भी वर्ण जाति नहीं अपितु गुण है। में जीवात्मा मनुष्य की बात करते हुए कह रहा हॅू कि हर व्यक्ति में ब्राह्मण रूपि बुद्धि, क्षत्रिय रूपि अन्याय का विरोध करने का साहस,शुद्र रूपि सर्वभूतहित रता भाव वाली सेवा व परिवार रूपि रथ चलाने के लिए वैश्य रूपि व्यवसायिकता का होना जरूरी है।जीव, जंतु, जड़ स्थावर सहित किसी को भी इस सृष्टि मे जाति, क्षेत्र, नस्ल, लिंग, भाषा, देह रंग आदि की दृष्टि से हेय व कमतर और खुद को श्रेष्ठ समझना एक अपराध व अज्ञानता है। जो अविवेकी जीव का परमेश्वर के प्रति एक बड़ा अपराध ही है।
भारत में हजारों सालों तक इसी दिव्य वर्णों युक्त समाज रहा। हाॅ बीच में निहित स्वार्थी तत्वों के वर्चस्व के कारण समाज में गुण रूपि वर्ण को जाति रूपि वर्ण समझ कर देश, समाज व व्यक्ति पतन के गर्त में धकेल दिया गया। देश में लोग अज्ञानता के कारण जातिभेद के दंश से पीड़ित है अपितु क्षेत्रवाद, संप्रदायवाद, लिंग भेद व परिवारवाद से बहुत पीड़ित है। इससे उबरने के लिए भारतीय समाज में समय समय पर तत्वज्ञानियों ने निरंतर प्रयत्न किया। अब धीरे धीरे समाज इससे उबर रहा है। इस अज्ञानता के दंश से पीड़ित देश को उबारने के लिए कानून के साथ सत तत्व का अमृतपान करना जरूरी है।
परन्तु आज जातिवाद को अगर कोई सबसे अधिक बढ़ावा दे रहे है देश के राजनैतिक दल। इन दलों में संगठन व सरकार के गठन में भी संघर्ष, प्रतिभा व समर्पण को वरियता देने के बजाय जाति, संप्रदाय,लिंग व परिवार को ही बढावा देकर इस कलंक को बनाये रखते है।
तत्वज्ञानी जानते हैं कि परमेश्वर की इस सृष्टि, सभी चर अचर, स्थावर सकल ब्रह्माण्ड के लिए है। इसलिए यह सोचना केवल मनुष्य के लिए यह भी अज्ञानता ही है। कोई भी जीव, जंतु, चर अचर अपनी इच्छा से न तो अपने स्वरूप में जन्म लेता है। केवल संयोग वश या नियंता की इच्छा से वह मनुष्य, जंतु आदि के साकार रूप में प्रकट होता है। इसके साथ वह इस दुनिया में जितना भी जीता है वह सब उस नियंता की कृपा से ही जीता है और उसी की इच्छा से इस स्वरूप को त्यागता है। इसी तत्व का बोध होने से जीव समझ जाता है कि जाति, क्षेत्र, संप्रदाय, लिंग व परिवार कुछ नहीं सबकुछ परमेश्वर ही है। वर्षों पहले इस सच को कविता के रूप में प्यारा उतराखण्ड में भी प्रकाशित किया था………..न मैं देव हॅू न देह हॅू………….मैं केवल श्रीकृष्ण कृपा हॅॅू।