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पूज्य पिताजी विजय सिंह रावत की पावन स्मृति को नमन्

-देवसिंह रावत-

।2।२२।।

जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर दूसरे नये वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही देही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नये शरीरो ंको प्राप्त होता है ।
आज मेरे पिताजी श्री विजय सिंह रावत का भी स्वर्गवास हो गया। 21 अगस्त की सुबह जैसे ही मैने अपने फोन पर नजर डाली तो गांव से भाई व भतीजे के कई फोन आये हुए थे। फोन तडके 3 से 5 बजे के बीच आये थे। मन में आशंका हुई। गांव में फोन किया तो वहां किसी ने उठाये नहीं। फिर देहरादून भतीजे को फोन किया तो पता चला कि पिताजी का सुबह 3 बजे निधन हो गया। पिताजी बुजुर्ग हो गये थे कुछ समय से अस्वस्थ भी थे। कुछ ही महिने पहले मै अपने गांव कोठुली(विकासखण्ड नारायणबगड-चमोली, उतराखण्ड) गया था। वे दिल्ली या देहरादून के अस्पताल जाने के लिए तैयार नहीं थे। हाॅ पिछले ही सप्ताह छोटा भाई त्रिलोक सिंह रावत उनको कर्णप्रयाग चिकित्सालय ले गये। आज तड़के ब्रह्म मुर्हत में उनका निधन हो गया। उनके निधन के साथ उनकी इस देह में कोठुली से लाहौर, लाहौर से दिल्ली, व दिल्ली से कोठुली की जीवन यात्रा का समापन हुआ। अपनी मातृभूमि कोठुली की माटी में ही देह रूपि पंचतत्वों को समाहित करने का शौभाग्य परमात्मा ने उनको प्रदान किया।
उनका अंतिम संस्कार भी हमारे गांव के श्मसानघाट तेलागाड़ में मेरे मंझेले भाई त्रिलोक सिंह रावत व बडे भतीजे सर्वेश्वर के द्वारा किया गया। बड़ा बेटा होने के बाबजूद मेरा उनके अंतिम संस्कार में पंहुचना आज संभव नहीं था। उतराखण्ड में हो रही प्रलयंकारी वारिश के कारण मोटर मार्ग कई स्थानों में अवरूद्ध है। रूड़की से बडे भाई जयवीर सिंह रावत का फोन आया कि रास्ते में कई जगह अवरोध खडे हैं।
पिता जी का पूरा जीवन आम पर्वतीय इंसान की तरह संघर्षमय ही रहा। बचपन में दादा जी के निधन से मेरी विधवा दादी अपने तीन बेटों व एक बेटी के साथ पशुओं व खेती का भारी विकट जिम्मेदारी बहुत ही संघर्ष से उठायी। मेरे दादा जी नड़ी सिंह रावत प्रथम व द्वितीय विश्वयुद्ध लडे जांबाज सैनिक थे। बचपन में मै खुद सुनता था कि गांव में मेरी दादी को पूरे गांव की बहुये सिपियाण ज्यू’ कह कर सम्मान से पुकारती थी। युवा अवस्था में दादा जी के निधन के कारण उनके गरीब व अनाथ परिवार की सुध लेने वाला कोई नहीं था। उन दिनों दादी जी की पैंशन भी नहीं लग पायी। ऐसी विकट स्थिति से उबारने के लिए मेरे बडे बोडा स्व माधो सिंह रावत जो उस समय लाहोर में कार्यरत थे। वे अपने परिवार की जिम्मेदारी संभालने के लिए अपने गांव लोट आये। छोटे बोडा इंद्र सिंह रावत भी बचपन से ही गांव से नौकरी के लिए लाहौर चले गये थे। पिताजी बाद में गये। मेरी पूफू बिरमा देवी की शादी रैस हुई। पिताजी रेल में सेवारत रहे। आजादी के बाद वे भी दिल्ली आये। अपने पूरे परिवार में मैं बडा बेटा होने के कारण माता पिता के साथ दादी व बोडा बोडी की आंखों का तारा रहा। बडे बोडा जी की कोई संतान नहीं थी तो इस कारण में उन्हीं के साथ रहता था। सांझा परिवार था। बाद में बंटवारा हुआ। छोटे बोडा जो दिल्ली में ही रेलवे में सेवारत थे वे अपना परिवार अपने साथ दिल्ली ले आये। मेरा बचपन बहुत ही अधिक लाड प्यार से गुजरा। घर में मेरे से पहले कोई खाना नहीं खाता, अधिक लाड प्यार से मै उदण्ड भी हो गया था। आम बच्चों की तरह अपने परिवार के कामों में हाथ बंटाने की जगह में गदेरों, जंगल व खेलने में ही मस्त रहता था। उन दिनों हमारे गांव व क्षेत्र में हाई स्कूल, सडक व बिजली के लिए संघर्ष चल रहा था। क्षेत्र में आठवीं तक का विद्यालय ही हमारे गांव में था, उससे आगे की पढ़ाई के लिए नंदप्रयाग, गोपेश्वर, कर्णप्रयाग या नारायण बगड़ जाना पड़ता। मैने निश्चय किया कि पिताजी के साथ दिल्ली में ही आगे की पढ़ाई के लिए जाया जाय। मैं दिल्ली रेलवे कालोनी किशन गंज आया। मेरी माॅं, मेरे दोनों छोटे भाई त्रिलोक व स्व प्रेम गांव में ही पढ़ रहे थे।
दिल्ली आने के बाद मेरे पिता जी का मेरे उपर गहरा प्रभाव पडा। उनको मेरे पर बडा नाज था। पढ़ने में तेज होने के साथ खेल कूद मे जुटा रहता। गांव में जहां में अव्यवस्थित जीवन जी रहा था। पर दिल्ली में आने के बाद पिताजी ने मुझे व्यवस्थित जीवन कैसे जीते है, इसका पाठ पढ़ाया। सुबह 5 बजे उठ कर नित्यकर्म से निवृत होने के बाद रेलवे कालोनी में हमारे घर के समाने बने पार्क में जा कर कसरत करना, दूध लाना, समय साढे सात व आठ बजे तक नाश्ता करना व समाचार पत्र पढ़ना। पिताजी मेरे लिए दिन का खाना भी बना कर अपनी नौकरी पर बडोदा हाउस चले जाते थे। मेरा वे बहुत ही ध्यान रखते थे। मेरे लिया गाय का दूध लगा रखा था, वे टयूशन पढ़ने को कहते परन्तु मेरे दिमाग में पता नहीं कहां से भरा था कि टयूशन गलत है। मैने टयूशन नहीं पड़ा। अपने सीमित वेतन में मेरी हर मांग को पूरा करते। पदम नगर विद्यालय में 9वीं से 12 की शिक्षा ग्रहण करने के साथ मुझे देश में व्याप्त कुव्यवस्था का बहुत ही  करीब से रूबरू हुआ। पूरी कक्षा, कालोनी  में मै तमाम प्रकार के व्यसनों से दूर रहने वाला अच्छे प्रतिभाशाली विद्यार्थियों में जाना जाता था।
पिताजी सहित पूरे परिवार को मुझसे काफी आशायें थी। परिवार चाहता था कि मै पढ़ाई के साथ नौकरी करके अपने परिवार का सहारा बनू। परन्तु बचपन से मुझे नौकरी करने से एक प्रकार की धृणा थी। दिल्ली पब्लिक पुस्तकालय से गीता, श्री रामकृष्ण परंहंस, मुंशी प्रेमचंद सहित अनैक क्रांतिकारियों, साहित्यकारों व धार्मिक पुस्तकों का गहन अध्ययन करने का कारण मैं कुव्यवस्था के खिलाफ संघर्ष की हुंकार भरने वाला श्रीकृष्ण का पथानुगामी बन गया। इसी बीच पिताजी मेरे से इस बात से नाराज थे कि मैं अपनी पंसद की शादी करना चाहता। परन्तु बाद में मेरी हटधर्मिता के चलते पिताजी ने मेरी शादी मेरे पसंद से ही करायी। मेरे देश में व्याप्त कुशासन व अंग्रेजी की गुलामी के खिलाफ मेने 21 अप्रैल 1989 को संसद की दर्शक दीर्घा से नारेबाजी की। इस दौरान मेरे घर व गांव में हुई पुलिस की आवाजाही से मेरे माता पिता बेहद नाखुश थे। इसके बाद पिताजी सेवा निवृत के बाद गांव चले गये। मैं यहां पर प्यारा उतराखण्ड समाचार पत्र का प्रकाशन करने लगा। इसी दौरान उतराखण्ड राज्य आंदोलन में मेरे पूर्णरूप से समर्पित होने व 1996 में चुनाव बहिष्कार के दौरान ही माता जी का देहांत हो गया। मैं उसके एक दिन बाद ही गांव पंहुचा। माता जी की तरह पिताजी के निधन के समय मैं उनके पास नहीं था। केवल बडे बोडा जी व दादी के निधन के समय ही मैं गांव में रह सका। दिल्ली में छोटा भाई प्रेम ने गोविन्द बल्लभ पंत चिकित्सालय में इलाज के दौंरान मेरी आंखों के आगे ही दम तोड़ा। बडी बोड़ी जसमा देवी के निधन के समय भी में दिल्ली में था। पिताजी के बचनों की रक्षा करने व दादी के साथ बोड़ा बोड़ी की आशाओं पर खरा उतरने के लिए मैं बोडा माधों सिंह रावत व बोडी जसमा देवी के साथ शादी के बाद भी उनकी अंतिम सांसों तक रहा। इससे माता पिता जी कुछ नाराजगी थी। जो कुछ ही समय बाद दूर हो गयी थी। पिताजी भी मेरे सामाजिक जीवन से नाराज होना स्वाभाविक हैं। हर माता पिता की इच्छा होती कि उनका बेटा दुनिया की तरह अच्छी नौकरी आदि कर आर्थिक व सामाजिक रूप से खुशहाल हो। परन्तु एक दशक से उनकी नाराजगी भी दूर हो गयी थी। जबसे मेरे बेटे रविलोचन ने अपना काम शुरू किया, बेटी की शादी हुई परिवार को संभाला। एक पिता के रूप में उनका सदैव आशीर्वाद मेरे साथ है। मेरे छोटे भाई व उसके परिवार ने पिताजी की पूरे मनोयोग से सेवा की।
जीवन की इस यात्रा का समापन अटल है। जो आया  है उसे  इस संसार से जाना ही होता है। मेरे लिए भगवान श्रीकृष्ण का अमर वचन ‘वासांसि जीर्णानि यथा विहाय,नवानि नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि……………………………..। देह को अपना धर्म है। पिताजी की पावन स्मृति को शतः शतः नमन्।

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