(भारत को अंग्रेजी व इंडिया की गुलामी से मुक्ति दिलाने की मांग को लेकर भारतीय भाषा आंदोलन के अध्यक्ष देवसिंह रावत के नेतृत्व में भारतीय भाषा आंदोलन ने 4 जून की तपती दोपहरी को जंतर मंतर से प्रधानमंत्री कार्यालय तक पद यात्रा कर दिया ज्ञापन)
प्रतिष्ठा में,
श्री नरेन्द्र मोदी जी 04 जून 2019
प्रधानमंत्री
भारत
विषय-(1) विश्व व भारत में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा हिंदी का विरोध करने के पीछे भारत को अंग्रेजी की आड में अंग्रेजों की गुलामी भारत में जारी रखने का खौपनाक षडयंत्र
(2) अंग्रेजी अनिवार्यता मुक्त व भारतीय भाषायुक्त राष्ट्रीय शिक्षा नीति लागू की जाय
(3)-जब संयुक्त राष्ट्र 6, यूरोपीय संघ-3, स्वीटजरलैण्ड -4, कनाडा-2 भाषाओं में संचालित हो सकता है तो भारत में तीन भाषाओं में संचालित करने में परेशानी क्यों, अंग्रेजी की गुलामी क्यों?
(क)‘शिक्षा,रोजगार व न्याय से अंग्रेजी की अनिवार्यता हटाने से ही उतरेगा फिरंगी मानसिकता के सिरों से अंग्रेजी का भूत
(ख) -अंग्रेजी की गुलामी से मुक्त कर भारतीय भाषाओं में शिक्षा,रोजगार,न्यायव शासन प्रदान करने से ही भारत बनेगा विश्वगुरू व महाशक्ति
(2)अंग्रेजों के जाने के 72 साल बाद भी भारत को अंग्रेजी -इंडिया की गुलामी से मुक्त करके भारतीय भाषायें लागू करने
की मांग को लेकर 74 माह से सतत् सत्याग्रह कर रहे भारतीय भाषा आंदोलन के अध्यक्ष देवसिंह रावत के नेतृत्व में 04 जून 2019 को संसद की चैखट,राष्ट्रीय धरना स्थल जंतर मंतर सेे प्रधानमंत्री कार्यालय तक पदयात्रा कर प्रधानमंत्री को ऐतिहासिक ज्ञापन
हमारी मांग है कि
(1) सर्वोच्च व उच्च न्यायालयों में अंग्रेजी के बजाय भारतीय भाषाओं में दिया जाय न्याय(2) अंग्रेजी अनिवार्यता मुक्त व भारतीय भाषाओं में भारतीय मूल्यों युक्त सरकार द्वारा पूरे राष्ट्र में एक समान निशुक्ल शिक्षा प्रदान की जाय (3)संघ लोकसेवा आयोग सहित देश प्रदेश में रोजगार की सभी परीक्षाएं अंग्रेजी के बजाय भारतीय भाषाओं में ली जाय। (4) शासन प्रशासन भी भारतीय भाषाओं में संचालित किया जाय। (5) देश के नाम पर लगे इंडिया के कलंक से मुक्ति दिला कर देश का नाम केवल भारत (इंडिया नहीं) ही रखा जाय।(5) राष्ट्रीय धरनास्थल जंतर मंतर पर सतत्(प्रातः11 बजे से सांय 4 बजे तक ) धरना प्रदर्शन की इजाजत दी जाय।
मान्यवर नरेन्द्र मोदी जी,
जय हिन्द! वंदे मातरम्। देश में व्याप्त अंग्रेजी की गुलामी से मुक्त करने के लिए 74 माह से सतत संघर्षरत भारतीय भाषा आंदोलन वर्तमान मोदी सरकार द्वारा नई शिक्षा नीति -2019 को भले ही अंग्रेजी की गुलामी से मुक्त करने का ठोस कदम नहीं मान रही है पर अंग्रेजी की गुलामी में 72 साल से जकडे हुए भारत को गुलामी की जंजीरों से मुक्त करने की दिशा में भारतीय भाषाओं को मजबूत करने का एक सकारात्मक प्रयास मान कर स्वागत करती है। इस नई शिक्षा नीति में प्राथमिक शिक्षा मातृ भाषा में देने के साथ भारतीय भाषाओं को भी बढावा देने का प्रस्ताव था। परन्तु जिस ढंग से तमिलनाडू की द्रुमुक व कांग्रेस आदि दलों ने अपने निहित स्वार्थ में अंधा हो कर हिंदी थोपने का आरोप लगाकर इसका पुरजोर विरोध करके जहां भारत को कमजोर करने का कृत्य किया वहीं अंग्रेजी की गुलामी को बनाये रखने का भारतघाती अक्षम्य कृत्य भी किया। इस प्रकार से भारतीय भाषाओं का विरोध करके इन दलों ने जाने अनजाने भारत को अंग्रेजी भाषा का गुलाम बनाये रखकर अंग्रेजों के भारत से चले जाने के 72 साल तक अंग्रेजों का ही राज या गुलामी बनाये रखने का काम किया। इस षडयंत्र को राष्ट्रमण्डल सचिवालय के द्वारा किया जा रहा है।
भारतीय हुक्मरानों की इस राष्ट्रघाती कुनीतियों के कारण भारतीय भाषा हिंदी आज भी संयुक्त राष्ट्र में अधिकारिक भाषा तक नहीं बन पायी। योग के लिए 177 देशों का समर्थन जुटाने वाला भारत, संयुक्त राष्ट्र में 129 देशों का समर्थन भी नहीं जुटाया जा सका। संघ वर्तमान में संयुक्त राष्ट्र संघ की छह (अरबी, चीनी, अंग्रेजी, फ्रेंच, रूसी और स्पेनिश )आधिकारिक भाषाएं हैं। परन्तु विश्व की जनसंख्या का 17.74 प्रतिशत यानी छटे हिस्से का प्रतिनिधित्व करने वाले भारत की भाषा को यहां स्थान तक नहीं।
अंग्रेजी की गुलामी में बेसुध भारतीयों का मृतप्राय स्वाभिमान कब जागृत होगा जब संयुक्त राष्ट्र छह भाषाओं में अपना शासन प्रशासन संचालित कर सकता है। 74 .14 करोड की जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करने वाला यूरोपीय संघ जिसकी 24 आधिकारिक भाषायें है वह भी तीन भाषाओं (फ्रंेच,अंग्रेजी व जर्मन ) में अपना प्रशासन संचालित बखुबी से संचालित करता है। वहीं 84 लाख जनसंख्या वाले स्विटजरलैंड भी चार भाषाओं जर्मन, फ्रेंच, इतालवी और रोमाँश हैं में अपना शासन संचालित करता है। कनाडा में फ्रंेच व अंग्रेजी में शासन संचालित करता है।
परन्तु दुर्भाग्य है कि भारत की संकीर्ण, राष्ट्रघाती, पदलोलुपु व अंग्रेजी की गुलामी के मोह में अंधे राजनेता भारत में तीन भाषा फार्मूला तक स्वीकार नहीं कर रहे हैं। जबकि यूनेस्को की सात भाषाओं में हिन्दी पहले से ही शामिल है।
भारत के अलावा इसे नेपाल, मॉरिशस, फिजी, सूरीनाम, यूगांडा, दक्षिण अफ्रीका, कैरिबियन देशों, ट्रिनिडाड एवं टोबेगो और कनाडा आदि में बोलने वालों की अच्छी-खासी संख्या है। इसके आलावा इंग्लैंड, अमेरिका, मध्य एशिया में भी इसे बोलने और समझने वाले अच्छे-खासे लोग हैं।
सबसे हैरानी की बात यह है कि 2011 की जनगणना के अनुसार जिस हिंदी को भारत में 69 प्रतिशत लोग बोल समझ सकते है ओर जिसको देश के 9 राज्यों -(उप्र, बिहार, छत्तीसगढ़, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तराखंड, और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली)की प्रमुख भाषा ह,ै वहीं महाराष्ट्र, गुजरात, अरूणाचल प्रदेश, आंध्र सहित अन्य प्रदेशों में इसे अंग्रेजी से बेहतर आसानी से समझा जाता है।उसका विरोध देश के चंद राजनैतिक दलों द्वारा किया जा रहा है। वहीं जिस अंग्रेजी को भारत में मात्र 0.02 प्रतिशत लोगों ने अपनी मातृभाषा बताया और जिसको बोलने समझने वाले देश में 12.9 प्रतिशत है उस आक्रांताओं की भाषा अंग्रेजी की गुलामी व पूरी व्यवस्था में थोपे जाने पर इन दलों का जुबान क्यों बंद हो जाती। तब इन्हें देश, प्रदेश व भाषाई अस्मिता का भान क्यों नहीं होता। इससे सिद्ध हो जाता है यह सब देश की पूरी व्यवस्था को अंग्रेजी की गुलामी बनाये रखकर भारत को अप्रत्यक्ष रूप से अंग्रेजों का गुलाम बनाये रखने का राष्ट्रघाती षडयंत्र है। तमिलनाडू प्रदेश के नेताओं को नहीं भूलना चाहिए कि देश अंग्रेजी भाषा से मजबूत नहीं होगा अपितु भारतीय भाषाओं को सिखने से ही मजबूत होगा। हिंदी को पूरे भारत में 69 प्रतिशत लोग जानते हैं। वहीं अन्य कोई भी भारतीय भाषाये अकेले दहाई प्रतिशत भी नहीं अर्जित करती। तमिल 5.89 व बंगाली 8.30 प्रतिशत भारतीयों की मातृभाषा है।
जबकि सच्चाई जग जाहिर है कि जिस भारतीय भाषा हिंदी का विरोध करने का नादानी कर भारत का अहित व अपमान किया जा रहा है उस हिंदी को वर्ष १९१८ में गांधी जी ने हिन्दी साहित्य सम्मेलन में जनमानस की भाषा कहते हुए हिन्दी भाषा को राष्ट्रभाषा बनाने को कहा था।
हिंदी विश्व की एक प्रमुख भाषा है एवं भारत की राजभाषा है। केंद्रीय स्तर पर भारत में दूसरी आधिकारिक भाषा अंग्रेजी है। भारत की राजभाषा हिंदी, सबसे अधिक बोली और समझी जाने वाली भाषा है।
दुनिया में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है हिन्दी । दुनिया के 80 करोड़ लोग समझते हैं हिन्दी।
विश्व आर्थिक मंच की गणना के अनुसार यह विश्व की दस शक्तिशाली भाषाओं में से एक है।
भारत की राजभाषा हिन्दी दुनिया में दूसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। बहु भाषी भारत के हिन्दी भाषी राज्यों की आबादी 46 करोड़ से अधिक है। 2011 की जनगणना के मुताबिक भारत की 1.2 अरब आबादी में से 41.03 फीसदी की मातृभाषा हिंदी है। 69 प्रतिशत लोग बोल व समझ सकते है। वहीं अंग्रेजी को मात्र 259678 लोगों ने मातृभाषा बतायी जो भारत की जनसंख्या का मात्र0.02 प्रतिशत है। वहीं बोलने व समझने वाले 12.9 प्रतिशत है। वहीं संस्कृत भाषा को 24,821 लोगों ने मातृ भाषा के रूप में रखा जो देश की जनसंख्या का 0.01प्रतिशत है। देश में कुल 1234931 लोग संस्कृत समझते है। कोई भी अन्य भारतीय भाषा दस प्रतिप्रति लोगों का मातृभाषा नहीं है। तमिल भाषा को 69026881 लोगों ने अपनी मातृभाषा घोषित किया जो 5.89 प्रतिशत और बोलने व समझने वालों की संख्या 7.7 प्रतिशत है। वहीं बंगाली को मातृ भाषा घोषित करने वालों की संख्या 97237669 जो 8.30 प्रतिशत है।
इसके बाबजूद भारत सहित पूरे विश्व में एक दशक से हिन्दी के प्रति विश्व के लोगों की रूचि खासी बढ़ी है। देश का दूसरे देशों के साथ बढ़ता व्यापार भी इसका एक कारण है।
हिन्दी के प्रति दुनिया की बढ़ती चाहत का एक नमूना यही है कि आज विश्व के लगभग डेढ़ सौ विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ी और पढ़ाई जा रही है। विभिन्न देशों के 91 विश्वविद्यालयों में ‘हिन्दी पीठ भी’ है। फिजी, मॉरिशस, गयाना, सूरीनाम, नेपाल और संयुक्त अरब अमीरात की जनता भी हिन्दी बोलती है। फरवरी २०१९ में अबू धाबी में हिन्दी को न्यायालय की तीसरी भाषा के रूप में मान्यता मिली। पूरे विश्व में हिंदी बोलने व समझने वालों की भरमार है । संयुक्त राज्य अमेरिका में ८,६३,०७७, मॉरीशस में ६,८५,१७०, दक्षिण अफ्रीका में ८,९०,२९२, यमन में २,३२,७६०,युगांडा में १,४७,०००, सिंगापुर में ५,०००, नेपाल में ८ लाख,जर्मनी में ३०,००० हैं।
न्यूजीलैंड में हिंदी चैथी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है। इसके अलावा भारत, पाकिस्तान और अन्य देशों में १४ करोड़ १० लाख लोगों द्वारा बोली जाने वाली उर्दू, हिंदी के समान है। इन तीनों देशा के करोडों लोग हिंदी और उर्दू दोनों को ही समझता है। भारत में हिंदी, विभिन्न भारतीय राज्यों की १४ आधिकारिक भाषाओं और क्षेत्र की बोलियों का उपयोग करने वाले लगभग १ अरब लोगों में से अधिकांश की दूसरी भाषा है।
सबसे हैरानी की बात यह है कि १४ सितम्बर १९४९ को संविधान सभा ने एक मत से यह निर्णय लिया कि हिन्दी ही भारत की राजभाषा होगी। इसी महत्वपूर्ण निर्णय के महत्व को प्रतिपादित करने तथा हिन्दी को हर क्षेत्र में प्रसारित करने के लिये राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के अनुरोध पर वर्ष १९५३ से पूरे भारत में १४ सितम्बर को प्रतिवर्ष हिन्दी-दिवस के रूप में भी मनाया जाता है।
हालांकि जब राजभाषा के रूप में इसे चुना गया और लागू किया गया तो गैर-हिन्दी भाषी राज्य के लोग इसका विरोध करने लगे और अंग्रेजी को भी राजभाषा का दर्जा देना पड़ा। इस कारण हिन्दी में भी अंग्रेजी भाषा का प्रभाव पड़ने लगा।
वहीं न्यायालय की दृष्टि से आज भी देश में अंग्रेजी की गुलामी बनी हुई है। संविधान के अनुच्छेद 348. उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों में और अधिनियमों, विधेयकों आदि के लिए प्रयोग की जाने वाली भाषा–
(1) इस भाग के पूर्वगामी उपबंधों में किसी बात के होते हुए भी, जब तक संसद् विधि द्वारा अन्यथा उपबंध न करे तब तक–
(क) उच्चतम न्यायालय और प्रत्येक उच्च न्यायालय में सभी कार्यवाहियां अंग्रेजी भाषा में होंगी।
1959 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू को हिंदी का विरोध कर रहे संसद सदस्यों को यह आश्वासन देना पड़ा कि उनके हितों के अनुरूप अंग्रेजी का प्रयोग बतौर राजभाषा के 26 जनवरी, 1965, के बाद भी कायम रहेगा । किंतु यह आश्वासन कदाचित् पर्याप्त नहीं माना गया और फलस्वरूप सातवें दशक के आरंभ में सुदूर दक्षिण में ‘हिंदी हटाओ’ का आंदोलन चल पड़ा । तब प्रतिक्रिया में हिंदीभाषी उत्तर भारत में भी ‘अंग्रेजी हटाओ’ का आंदोलन चला, किंतु वह पूरी तरह विफल रहा । हिंदी क्षेत्र के लोग अपनी भाषा के बजाय अंग्रेजी मोह में मूक रहे और दक्षिण भारत में हिंदीविरोध का आंदोलन तमिलनाडू आदि प्रदेशों में जनता को जोड़ने में सफल रहा। इस कारण हिंदी की स्थिति कमजोर करने वाले अधिनियम का कारण बना । उस आंदोलन के पूर्व संसद में राजभाषा अधिनियम, 1963 पारित किया गया था, जिसे बाद में उक्त आंदोलन के मद्देनजर संशोधित किया गया था (राजभाषा अधिनियम, 1963, यथासंशोधित, 1967।आदि संशोधनो के अनुसार अंग्रेजी का प्रयोग तब तक जारी रहेगा जब तक अंग्रेजी भाषा का प्रयोग समाप्त कर देने के लिए ऐसे सभी राज्यों के विधानमंडलों द्वारा, जिन्होंने हिंदी को अपनी राजभाषा के रूप में नहीं अपनाया है, संकल्प पारित नहीं कर दिए जाते और जब तक पूर्वोक्त संकल्पों पर विचार कर लेने के पश्चात् ऐसी समाप्ति के लिए संसद के हर सदन द्वारा संकल्प पारित नहीं किया जाता । भले ही संविधान सभा ने 14/9/1949 को हिंदी को संघ की राजभाषा स्वीकार करते हुए राजभाषा हिंदी के संबंध में प्रावधान किए।
संविधान के भाग 5 एवं 6 के क्रमशः अनुच्छेद 120 तथा 210 में तथा भाग 17 के अनुचछेद 343, 344, 345, 346, 347, 348, 349, 350 तथा 351 में राजभाषा हिंदी के संबंध में निम्न प्रावधान किये गए हैं।
भले ही संविधान की अनुसूची-8 में मान्यता दी गई है। ये भाषाएँ इस प्रकार हैं-
हिंदी, पंजाबी, उर्दू, कश्मीरी, संस्कृत, असमिया, ओड़िया, बांगला, गुजराती, मराठी, सिंधी, तमिल, तेलुगु, मलयालम, कन्नड़, मणिपुरी, कोंकणी, नेपाली, संथाली, मैथिली, बोड़ो ता डोगरी।
परन्तु 1 जून को इस नयी शिक्षा नीति को लागू करने के लिए जो मसौदा देश के प्रख्यात वैज्ञानिक के. कस्तूरीरंगन के नेतृत्व वाली समिति द्वारा सोंपी गयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2019 सौंपी गयी उसमें प्राथमिक शिक्षा प्रांतीय भाषा(भारतीय भाषा) में देने का सराहनीय सलाह दी गयी। परन्तु इस समिति ने जो त्रिभाषा फार्मूला को सुझाया है वह एक प्रकार से अंग्रेजी को बनाये रखने का एक प्रकार से भारत घाती कदम ही है। हालांकि इस तीन भाषा फार्मूला का भी तमिलनाडू के राजनैतिक दलों व कांग्रेस ने विरोध किया वह अपने आप में इस देश को अंग्रेजी का गुलाम बनाये रखने का एक खौपनाक षडयंत्र है। यह षडयंत्र अंग्रेजों के जाने से पहले ही मैकाले व उसके बाद ‘राष्ट्र मण्डल (काॅमनवेल्थ)सचिवालय द्वारा अपने प्यादों के द्वारा निरंतर संचालित किया जा रहा है। इसी षडयंत्र का एक प्रमुख हिस्सा है हिंदी के नाम पर भारतीय भाषाओं का विरोध अंग्रेजी का राज इस देश में एकछत्र बना कर भारत को गुलाम बनाये रखना। भारतीय हुक्मरानों को अंग्रेजों के जाने के 72 साल बाद भी यह भान नहीं रहा कि भारतीय शिक्षा में अंग्रेजी की अनिवार्यता मुक्त किये बिना न तो शिक्षा भारतीय होगी व नहीं देश में लोकशाही की स्थापना ही होगी। आशा है कि आपकी राष्टवादी सरकार विगत 72 सालों से अंग्रेजी व इंडिया की गुलामी की जंजीरों में जकडे भारत को इस कलंक से मुक्ति दिलाने के अपने प्रथम संवैधानिक दायित्व का निर्वहन करेंगे।
देश में 72 सालों से व्याप्त अंग्रेजी की गुलामी से मुक्त करने के मार्ग में जो राजनैतिक दल अपने निहित स्वार्थ के लिए हिंदी के नाम पर भारतीय भाषाओं का विरोध करने का जो षडयंत्र चल रहा है उसको विफल करने के लिए सरकार को निम्नलिखित महत्वपूर्ण कदम उठाने चाहिए-
(1)-संघ लोकसेवा आयोग सहित देश प्रदेश में रोजगार की सभी परीक्षाओं में से अंग्रेजी की अनिवार्यता हटाकर केवल भारतीय भाषाओं में ली जाय।
(2) सर्वोच्च व उच्च न्यायालयों में अंग्रेजी के बजाय भारतीय भाषाओं में दिया जाय न्याय।
(3) प्राथमिक से माध्यमिक शिक्षा केवल दो भाषा में प्रदान की जाय। नौनिहालों को शिक्षा, मातृभाषा यानी प्रांतीय भाषा व भारतीय भाषाओं में प्रदान की जाय। देश में अंग्रेजी सहित विदेशी भाषाओं के साथ प्राचीन भारतीय भाषाओं को ऐच्छिक विषय के रूप में
(4) शासन प्रशासन भी केवल भारतीय भाषाओं (अंग्रेजी नहीं) मेेंं चालित किया जाय।
मान्यवर उपरोक्त कदमों से कोई भी दल व व्यक्ति भारतीय भाषाओं का विरोध नहीं कर पायेगा। उदाहरण के लिए तमिलनाडू में न्याय व रोजगार जब तमिल में मिलेगा तो विरोध कोई भी दल नहीं कर पायेगा। जो करेगा उसको राष्ट्रद्रोह के तहत फांसी की सजा दी जाय। यहां पर विरोध केवल भारत की शिक्षा, रोजगार,न्याय व शासन के मठों पर काबिज अंग्रेजी के माफिया करते है, उन पर अंकुश लगाये बिना देश में लोकशाही स्थापित नहीं हो सकेगी। सरकार को इस षडयंत्र को तोड़ने के लिए अंग्रेजी की अनिवार्यता की फांस रोजगार, न्याय व शिक्षा से हटा देनी चाहिए।
मान्यवर आपको विदित ही होगा कि 15 अगस्त 1947 को अंग्रेजो से मुक्ति के बाबजूद भी देश के गुलाम मानसिकता के हुक्मरानों ने बेशर्मी से विगत 72 सालों से देश की लोकशाही, सम्मान व मानवाधिकारों को जमीदोज करके देश को अंग्रेजी व इंडिया का गुलाम बनाया हुआ है। दूसरी तरफ पूरे विश्व के चीन, रूस, जर्मन, फ्रांस, जापान, टर्की, इस््रााइल सहित सभी स्वतंत्र व स्वाभिमानी देश अपने देश की भाषा में अपनी व्यवस्था संचालित करके विकास का परचम पूरे विश्व में फंेहरा रहे हैं।परन्तु भारत में अंग्रेजों के जाने के 71 साल बाद भी बेशर्मी से फिरंगी भाषा में ही न केवल राजकाज व न्याय व्यवस्था संचालित की जा रही है अपितु शिक्षा(चिकित्सा, यांत्रिकी, सामान्य)ही नहीं रोजगार व सहित पूरी व्यवस्था अंग्रेजी को ही पद प्रतिष्ठा व सम्मान का प्रतीक बना कर भारत व भारतीय संस्कृति को अंग्रेजियत के प्रतीक इंडिया का गुलाम बनाया जा रहा है।भारतीय भाषा आंदोलन इसी गुलामी के कलंको से माॅ भारती को मुक्त कराने व भारतीय भाषाओं के साथ भारत से देश को महाशक्ति व विश्व गुरू बनाने के लिए 21 अप्रैल 2013 से सतत् सत्याग्रह कर रहे हैं। परन्तु दुर्भाग्य यह है कि देश की सरकारों ने अपनी राष्ट्रघाती भूल पर तुरंत सुधार करने का काम करने के बजाय देशभक्त आंदोलनकारियों का अलोकतांत्रिक दमन किया गया व आंदोलन को उजाडने का कृत्य किया गया। भारतीय भाषा आंदोलन का मानना है किसी भी स्वतंत्र देश की भाषाओं को रौंदकर विदेशी भाषा में बलात शिक्षा, रोजगार, न्याय व शासन देना किसी देशद्रोह से कम नहीं है। आशा है आपकी सरकार भारत को अंग्रेजी व इंडिया की गुलामी की कलंक से मुक्त करेंगे।
देवसिंह रावत (अध्यक्ष )
भारतीय भाषा आंदोलन