अवधेश कुमार
इस त्रासदी का वर्णन करने के लिए शब्द तलाशना मुश्किल है। उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में जहरीली शराब ने जैसा कहर बरपाया है उससे दिल तो दहला ही है, हर विवेकशील व्यक्ति के अंदर गुस्सा पैदा हो रहा है। आखिर यह कैसा समाज है, कैसी शासन व्यवस्था है जहां जीवन को हर क्षण जोखिम में डालने का धंधा खुलेआम चल रहा है। अगर आप उस क्षेत्र के नहीं हैं तो कल्पना करिए कि तीन जिलांे में जहरीली शराब पीने से 100 से ज्यादा लोग असमय मौत के मुंह में समा जाएं, उतनी ही संख्या में बीमार अस्पतालों में जीवन और मौत से जूझ रहें तो तस्वीर कैसी होगी! एक गांव में दो दर्जन लाशें एक के बाद एक पहुंचे तो कैसा कोहराम मचता होगा। जिस परिवार के सभी वयस्कों की एक साथ मृत्यु हो जाए उसके शेष सदस्यों की दशा कैसी होगी! अगर कोई प्राकृतिक आपदा आ जाए और उसमें लोग हताहत हों तो हमें मन मारकर अपनी विवशता स्वीकार करनी पड़ती है, क्योंकि उसमें हम कुछ कर नहीं सकते। किंतु यह तो आमंत्रित मौतें है। यह भी नहीं है कि जहरीली शराब से पहली बार लोग काल के गाल में समा रहे हों। कोई ऐसा वर्ष नहीं गुजरता है जिसमें कहीं न कहीं जहरीली शराब से मृत्यु की घटनाएं सामने नहीं आतीं। अगर दो-चार मौतें हों तो वो अखबारों के स्थानीय पन्नों पर सिमट जातीं हैं और हमको पता नही ंचलता या वो खबर में आती ही नहीं, अन्यथा कहीं न कहीं ऐसी घटना होती रहती हैं। हर सामने आने वाली घटना के बाद कार्रवाइयां होतीं हैं और फिर कुछ अंतराल के बाद कहीं न कहीं जहरीली शराब अपना कहर बरपा देता है। प्रश्न है कि ऐसा क्यों होता है?
जो सूचना मिल रही है उसमें एक घटना तो सामाजिक कुरीति से जुड़ा है। उत्तराखंड के हरिद्वार के बालुपुर गांव में एक मृत्युभोज में शराब परोसी गई थी जो दुर्योग से जहरीली निकली। यह कैसी रीति है? आखिर मृत्युभोज में शराब परोसने की प्रथा का क्या औचित्य है? श्राद्धकर्म के पीछे मृतक की आत्मा की मुक्ति या उसे बेहतर पुनर्जन्म की भावना होती है। कुप्रथायें ऐसे ही बिना विचारे चलती रहती है। हालांकि उत्तराखंड या पहाड़ के कई इलाकों में यह प्रथा आज की तो है नहीं। अगर शराब जहरीली नहीं होती तो वह इतनी बड़ी मानवीय त्रासदी का कारण नहीं बनता। तो मूल कारण जहरीली शराब है। उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में तो कोई मृत्युभोज नहीं था, उत्तराखंड के रुड़की में ही ऐसा कार्यक्रम नहीं था। अभी तक की सूचना के अनुसार उत्तर प्रदेश में छापों में करीब 10 हजार लीटर अवैध शराब और 50 हजार किग्रा लहन बरामद हो चुका है। उत्तराखंड में 1100 लीटर से ज्यादा शराब और 28 हजार किग्रा लहन जब्त किया जा चुका है। उत्तर प्रदेश में 300 मामले दर्ज किए गए हैं और 175 से ज्यादा लोगों को गिरफ्तार किया जा चुका है। इसी तरह उत्तराखंड मंें करीब 50 मामले दर्ज किए गए। सहारनपुर और कुशीनगर के पुलिस कप्तानों को हटा दिया है तथा अनेक आबकारी अधिकारियों-कर्मचारियों का निलंबन हो रहा है।
उत्तर प्रदेश सरकार ने अवैध शराब भट्ठियों और दूकानों का अंत करने तथा माफियाओं के जाल को ध्वस्त करने के लिए 15 दिनों का अभियान चलाया है। जांच के लिए एसआईटी गठित हो चुकी है। अगर इससे अवैध शराब का व्यापार खत्म हो जाए तो जरुर शाबाशी दी जाएगी। किंतु ऐसा होगा इसे लेकर संदेह की गुंजाइश ज्यादा है। कारण, हर ऐसी घटना के बाद यही माहौल बनता है। आखिर सरकारें या हम नागरिक भी त्रासदियों के बाद ही क्यों जगते हैं? उत्तर प्रदेश के ही कुशीनगर जिले में वर्तमान घटना वाले सप्ताह में जहरीली शराब पीने से 11 लोगों की मौत की खबर आई थी। वहां कार्रवाई भी हुई। किंतु सरकार और प्रशासन शायद यह मानकर राज्यव्यापी अभियान चलाने पर विचार नहीं किया कि अवैध शराब का कारोबार एक जिले तक ही सीमित है। वहां के पुलिस प्रशासन ने इसका ठिकरा बिहार पर फोड़ दिया। सीमावर्ती जिला होने के कारण यह कहना आसान है, जबकि बिहार में शराबबंदी लागू है। वहां चोरी से शराब मिलते हैं, पर भट्ठी लगाकर शराब बना पाना आसान नहीं है। सच यह है कि बिहार में ज्यादा शराब पड़ोस के राज्यो ंसे जा रहा है। अगर कुशीनगर की घटना के साथ ही सरकार और प्रशासन ने राज्यव्यापी अभियान चला दिया होता तो इतने लोगों की जिन्दगियां बच जातीं।
हालांकि उत्तर प्रदेश सरकार ने आबकारी अधिनियम 1910 में संशोधन करके उसे कड़ा बनाया था। लेकिन उस समय आबकारी मंत्री का बयान था कि पड़ोसी राज्यों खासतौर पर हरियाणा से अवैध शराब की तस्करी और स्थानीय स्तर पर बनने वाली अवैध शराब की वजह से प्रदेश के आबकारी राजस्व में भारी गिरावट आई है। इसके अलावा ऐसी अवैध जहरीली शराब पीने से जनहानि की घटनाएं भी हुई हैं। वस्तुतः शराब से राजस्व पाने की भूख हर राज्य में शरबाखोरी को प्रोत्साहित करता है। शराब पीने पर कोई पाबंदी नहीं। इसमें संपन्न लोगों के लिए अनेक किस्म के महंगे शराब उपलब्ध हैं जबकि गरीब और निम्न मध्यमवर्ग देसी शराब पर निर्भर है। पूरे देश की यही दशा है। इन घटनाओं के बाद जो रिपोर्टें आ रहीं हैं उनसे साफ है कि जगह-जगह वैध-अवैध भट्ठियां चल रहीं हैं। वे किस तरह शराब बनाते हैं इनकी निगरानी करने वाला कोई नहीं है। कच्ची शराब बनाने के लिए पुराना गुड़ और शीरे के साथ महुआ आदि का प्रयोग तो आम बात है। लेकिन इन्हें इतना सड़ा दिया जाता है कि इनमें दुर्गंध आने लगता है और तब माना जाता है कि इससे ज्यादा नशीली शराब तैयार होगी। यह परंपरागत तरीका रहा है। हाल के वर्षों में यूरिया, आयोडेक्स, ऑक्सिटॉसिन से लेकर शराब को ज्यादा नशीली बनाने के लिए चूहे मारने वाली दवा और यहां तक कि सांप और छिपकली तक मिलाने के मामले भी पकड़ में आ चुके हैं। डीजल, मोबिल ऑयल, रंग रोगन के खाली बैरल और पुरानी हांडियों (बर्तन) का इस्तेमाल के साथ भैंस का दूध निकालने के लिए इस्तेमाल होने वाले ऑक्सिटॉसिन के इंजेक्शन को भी मिलाया जाता है। इन सबके मिश्रण से बने शराब से यदि तत्काल मौत न भी हो तो लीवर, गुर्दे, फेफड़े, आंत आदि को क्षति पहुंचाकर मनुष्य को धीरे-धीरे किसी काम का नहीं रहने देता। गुड़ और शीरे में ऑक्सिटॉसिन मिलाने से मिथाइल एल्कॉहॉल बन जाता है। ज्यादा मिथाइल एल्कॉहॉल से शरीर के अनेक हिस्से काम करना बंद कर देते हैं,ब्रेन डेड हो जाता है।
प्रश्न है कि भारत का ऐसा शायद ही कोई राज्य हो जहां से देसी शराबों में इस तरह के जहरीले सामग्रियों के मिश्रण के सबूत नहीं मिले हों। यहां उन सबकी फेहरिस्त गिनाना संभव नहीं। सब कुछ देश के सामने है। प्रश्न है कि बावजूद यदि ऐसा हो रहा है तो फिर इसके लिए किसे दोषी कहा जाएगा? कौन अपराधी है? बिना प्रशासन के मिलीभगत के इतने बड़े पैमाने पर यह संभव ही नहीं। जिनको भट्ठी का लाइसेंस मिलता है वो भी किन सामग्रियों का उपयोग करते हैं इसका ध्यान रखना आबकारी विभाग का दायित्व है। आबकारी विभाग सख्त हो तो जहरीली सामग्री मिलाने का साहस कोई कर ही नहीं सकता। और अवैध भट्ठियां कैसे चलतीं हैं यह बताने की आवश्यकता ही नही। आदिवासी इलाकांे में तो खैर छोटे स्तरों पर शराब बनाने का प्रचलन सदियों से हैं और उनमें से बहुतेरे को पता भी नहीं कि वे गैरकानूनी काम करते हैं। पर सामान्य इलाकों में तो सब कुछ जानसमझकर होता है। अगर सरकारें सख्त तथा इसके प्रति सचेष्ट रहें और प्रशासन को समय-समय पर उसका दायित्व याद दिलाता रहे तो ऐसी घटनाएं हो ही नहीं सकती। ऐसा लगता ही नहीं कि देश या राज्य सरकारों की प्राथमिकता में देसी शराबों में जहरीली सामग्रियों के उपयोग तथा अवैध शराब को रोकना शामिल है। आप घटना के बाद लाख कार्रवाइयां कर दीजिए उससे मृतक तो वापस आने से रहे। छोटा मुआवजा घोषित करने से जिम्मेवारी खत्म नहीं हो जाती। किंतु इसके साथ हम समाज के अंग के रुप में स्वयं को भी जिम्मेवारी से मुक्त नहीं कर सकते। आखिर समाज ऐसे तत्वों के खिलाफ संगठित होकर आवाज क्यों नहीं उठाता? अनेक प्रदेशों में महिलाओं ने शराब के खिलाफ आंदोलन किया है, पर उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती बन जाती है,क्योंकि पूरे समाज का साथ उन्हें नहीं मिलता। सबसे बढ़कर विचार करने वाली बात यह भी है कि क्या भारत देश नशामुक्ति के खिलाफ दृढ़ होकर खड़ा नहीं हो सकता। गांधी जी ने आजादी के एक बड़े लक्ष्य के रुप मंें नशामुक्ति को रखा था। आज पूरे देश का ढांचा ऐसा हो गया है कि कोई एक राज्य नशे पर रोक लगाने का कदम उठाता है तो उसे कहीं से सहयोग नहीं मिलता और वह विफल हो जाता है। मुख्य खलनायक तो नशे के लिए कुछ सामग्रियों को कानूनी रुप से मान्य कर देना है। विरोध करने पर राजस्व का तर्क दिया जाता है। किंतु नशे के कारण जो बीमारियां होतीं हैं, अपराध होते हैं, सामाजिक अशांति होती है उन पर होने वाले खर्च की तुलना करने का साहस सरकारे करें तो राजस्व का सच सामने आ जाएगा।