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भारतीय हुक्मरानों की नीरोवृति से पाकिस्तान ने बनाई कश्मीर समस्या विस्फोटक

वैज्ञानिक व सामाजिक चिंतक रामप्रसाद

कश्मीर की स्थिति, भारतीय हुक्मरानों की देश की सुरक्षा व आतंकी पाकिस्तान की भारत को तबाह करने के नापक षडयंत्रों के प्रति राष्ट्रघाति शतुमुर्गी प्रवृति के कारण आज  विस्फोटक होने के साथ देश की अखण्डता के लिए गंभीर खतरा बन गयी है। इसके बाबजूद भारत सरकार पाकिस्तान को दुश्मन देश घोषित करके उससे सभी सम्बंध तोड़ने के बजाय उसे बेशर्मी से सबसे मित्र राष्ट्र का दर्जा दिये हुए है। देश पर उत्पन्न सबसे खौपनाक खतरे पर इंटरनेटी दुनिया में गहन खोज  अध्ययन कर वयोवृद्ध वैज्ञानिक व सामाजिक चिंतक रामप्रसाद लेखबद्ध कर प्रस्तुत किया। वैज्ञानिक रामप्रसाद, तारीक फतह की तरह अपनी बेबाक बातों को रखने के लिए इंटरनेटी दुनिया में विख्यात हैं। प्रस्तुत है देशवासियों व हुक्मरानों को कश्मीर का विस्फोटक आईना दिखाने वाला उनका ज्वलंत लेख-

1947 को विभाजित भारत आजाद हुआ। उस दौर में भारतीय रियासतों के विलय का कार्य चल रहा था, जबकि पाकिस्तान में कबाइलियों को एकजुट किया जा रहा था। इधर जूनागढ़, कश्मीर, हैदराबाद और त्रावणकोर की रियासतें विलय मेंदेर लगा रही थीं तो कुछ स्वतंत्र राज्य चाहती थीं। इसके चलते इन राज्यों में अस्थिरता फैली थी।

जूनागढ़ और हैदराबाद की समस्या से कहीं अधिक जटिल कश्मीर का विलय करने की समस्या थी। कश्मीर में मुसलमान बहुसंख्यक थे लेकिन पंडितों की तादाद भी कम नहीं थी। कश्मीर की सीमा पाकिस्तान से लगने के कारण समस्याजटिल थी अतः जिन्ना ने कश्मीर पर कब्जा करने की एक योजना पर तुरंत काम करना शुरू कर दिया। हालांकि भारत और पाकिस्तान का बंटवारा हो चुका था जिसमें क्षेत्रों का निर्धारण भी हो चुका था फिर भी जिन्ना ने परिस्थिति का लाभउठाते हुए 22 अक्टूबर 1947 को कबाइली लुटेरों के भेष में पाकिस्तानी सेना को कश्मीर में भेज दिया। वर्तमान के पाक अधिकृत कश्मीर में खून की नदियां बहा दी गईं। इस खूनी खेल को देखकर कश्मीर के शासक राजा हरिसिंह भयभीतहोकर जम्मू लौट आए। वहां उन्होंने भारत से सैनिक सहायता की मांग की, लेकिन सहायता पहुंचने में बहुत देर हो चुकी थी। नेहरू की जिन्ना से दोस्ती थी। वे यह नहीं सोच सकते थे कि जिन्ना ऐसा कुछ कर बैठेंगे। लेकिन जिन्ना ने ऐसाकर दिया।

भारत विभाजन के समय तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की ढुलमुल नीति और अदूरदर्शिता के कारण कश्मीर का मामला अनसुलझा रह गया। यदि पूरा कश्मीर पाकिस्तान में होता या पूरा कश्मीर भारत में होता तो शायदपरिस्थितियां कुछ और होतीं। लेकिन ऐसा हो नहीं सकता था, क्योंकि कश्मीर पर राजा हरिसिंह का राज था और उन्होंने बहुत देर के बाद निर्णय लिया कि कश्मीर का भारत में विलय किया जाए। देर से किए गए इस निर्णय के चलतेपाकिस्तान ने गिलगित और बाल्टिस्तान में कबायली भेजकर लगभग आधे कश्मीर पर कब्जा कर लिया।

भारतीय सेना पाकिस्तानी सेना के छक्के छुड़ाते हुए, उनके द्वारा कब्जा किए गए कश्मीरी क्षेत्र को पुनः प्राप्त करते हुए तेजी से आगे बढ़ रही थी कि बीच में ही 31 दिसंबर 1947 को नेहरूजी ने यूएनओ से अपील की कि वह पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिमी लुटेरों को भारत पर आक्रमण करने से रोके। फलस्वरूप 1 जनवरी 1949 को भारत-पाकिस्तान के मध्य युद्ध-विराम की घोषणा कराई गई। इससे पहले 1948 में पाकिस्तान ने कबाइलियों के वेश में अपनी सेना को भारतीयकश्मीर में घुसाकर समूची घाटी कब्जाने का प्रयास किया, जो असफल रहा।

इस प्रकार हुई भारत और पाकिस्तान के टकराव से सम्बंधित है जिसकी शुरुआत इस प्रकार हुई है

नेहरूजी के यूएनओ में चले जाने के कारण युद्धविराम हो गया और भारतीय सेना के हाथ बंध गए जिससे पाकिस्तान द्वारा कब्जा किए गए शेष क्षेत्र को भारतीय सेना प्राप्त करने में फिर कभी सफल न हो सकी। आज कश्मीर में आधे क्षेत्र म ेंनियंत्रण रेखा है तो कुछ क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय सीमा। अंतरराष्ट्रीय सीमा से लगातार फायरिंग और घुसपैठ होती रहती है।

इसके बाद पाकिस्तान ने अपने सैन्य बल से 1965 में कश्मीर पर कब्जा करने का प्रयास किया जिसके चलते उसे मुंह की खानी पड़ी। इस युद्ध में पाकिस्तान की हार हुई। हार से तिलमिलाए पाकिस्तान ने भारत के प्रति पूरे देश में नफरत फैलाने का कार्य किया और पाकिस्तान की समूची राजनीति ही कश्मीर पर आधारित हो गई यानी कि सत्ता चाहिए तो कश्मीर को कब्जाने की बात करो।

इसका परिणाम यह हुआ कि 1971 में उसने फिर से कश्मीर को कब्जाने का प्रयास किया। तब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इसका डटकर मुकाबला किया और अंतत: पाकिस्तान की सेना के 1 लाख सैनिकों ने भारत की सेना के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया और बांग्लादेश नामक एक स्वतंत्र देश का जन्म हुआ। इंदिरा गांधी ने यहां एक बड़ी भूल की। यदि वे चाहतीं तो यहां कश्मीर की समस्या हमेशा-हमेशा के लिए सुलझ जाती, लेकिन वे जुल्फिकार अली भुट्टो के बहकावे में आ गईं और 1 लाख सैनिकों को छोड़ दिया गया।

इस युद्ध के बाद पाकिस्तान को समझ में आ गई कि कश्मीर हथियाने के लिए आमने-सामने की लड़ाई में भारत को हरा पाना मुश्किल ही होगा। 1971 में शर्मनाक हार के बाद काबुल स्थित पाकिस्तान मिलिट्री अकादमी में सैनिकों को इसहार का बदला लेने की शपथ दिलाई गई और अगले युद्ध की तैयारी को अंजाम दिया जाने लगा लेकिन अफगानिस्तान में हालात बिगड़ने लगे।

1971 से 1988 तक पाकिस्तान की सेना और कट्टरपंथी अफगानिस्तान में उलझे रहे। यहां पाकिस्तान की सेना ने खुद को गुरिल्ला युद्ध में मजबूत बनाया और युद्ध के विकल्पों के रूप में नए-नए तरीके सीखे। यही तरीके अब भारत पर आजमाए जाने लगे।

समस्या इस प्रकार हुई है विस्फोटक

पहले उसने भारतीय पंजाब में आतंकवाद शुरू करने के लिए पाकिस्तानी पंजाब में सिखों को खालिस्तान का सपना दिखाया और हथियारबद्ध सिखों का एक संगठन खड़ा करने में मदद की। पाकिस्तान के इस खेल में भारत सरकार उलझती गई। स्वर्ण मंदिर में हुए दुर्भाग्यपूर्ण ऑपरेशन ब्ल्यू स्टार और उसके बदले की कार्रवाई के रूप में 31 अक्टूबर 1984 को श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद भारत की राजनीति बदल गई।

एक शक्तिशाली नेता की जगह एक अनुभव और विचारहीन नेता राजीव गांधी ने जब देश की बागडोर संभाली तो उनके आलोचक कहने लगे थे कि उनके पास कोई योजना नहीं और कोई नीति भी नहीं है। 1984 के दंगों के दौरान उन्होंने जो कहा, उसे कई लोगों ने खारिज कर दिया। उन्होंने कश्मीर की तरफ से पूरी तरह से ध्यान हटाकर पंजाब और श्रीलंका में लगा दिया। इंदिरा गांधी के बाद भारत की राह बदल गई।

पंजाब में आतंकवाद के इस नए खेल के चलते पाकिस्तान की नजर एक बार फिर मुस्लिम बहुल भारतीय कश्मीर की ओर टिक गई। उसने पाक अधिकृत कश्मीर में लोगों को आतंक के लिए तैयार करना शुरू किया। अफगानिस्तान का अनुभव यहां काम आने लगा था। तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल जिया-उल-हक ने 1988 में भारत के विरुद्ध ऑपरेशन टोपाक नाम से वॉर विद लो इंटेंसिटी की योजना बनाई। इस योजना के तहत भारतीय कश्मीर के लोगों के मन में अलगाववाद और भारत के प्रति नफरत के बीज बोने थे और फिर उन्हीं के हाथों में हथियार थमाने थे।

कई बार मुंह की खाने के बाद पाकिस्तान ने अपने से ज्यादा शक्तिशाली शत्रु के विरुद्ध 90 के दशक में एक नए तरह के युद्ध के बारे में सोचना शुरू किया और अंततः उसने उसे ‘वॉर ऑफ लो इंटेंसिटी’ का नाम दिया। दरअसल, यह गुरिल्ला युद्ध का ही विकसित रूप है।

भारतीय राजनेताओं को सब कुछ मालूम था लेकिन फिर भी वे चुप थे, क्योंकि उन्हें भारत से ज्यादा वोट की चिंता थी, गठजोड़ की चिंता थी, सत्ता में बने रहने की चिंता था। भारतीय राजनेताओं के इस ढुलमुल रवैये के चलते कश्मीर में ऑपरेशन टोपाक बगैर किसी परेशानी के चलता रहा और भारतीय राजनेता शुतुरमुर्ग बनकर सत्ता का सुख लेते रहे। कश्मीर और पूर्वोत्तर को छोड़कर भारतीय राजनेता सब जगह ध्यान देते रहे। ‘ऑपरेशन टोपाक’ पहले से दूसरे और दूसरे से तीसरे चरण में पहुंच गया। अब उनका इरादा सिर्फ कश्मीर को ही अशांत रखना नहीं रहा, वे जम्मू और लद्दाख में भी सक्रिय होने लगे।

पाकिस्तानी सेना और आईएसआई ने मिलकर कश्मीर में दंगे कराए और उसके बाद आतंकवाद का सिलसिला चल पड़ा। पहले चरण में मस्जिदों की तादाद बढ़ाना, दूसरे में कश्मीर से गैरमुस्लिमों और शियाओं को भगाना और तीसरे चरणमें बगावत के लिए जनता को तैयार करना। अब इसका चैथा और अंतिम चरण चल रहा है। अब सरेआम पाकिस्तानी झंडे लहराए जाते हैं और सरेआम भारत की खिलाफत की जाती है, क्योंकि कश्मीर घाटी में अब गैर मुस्लिम नहीं बचे और न ही शियाओं का कोई वजूद है।

कश्मीर में आतंकवाद के चलते करीब 7 लाख से अधिक कश्मीरी पंडित विस्थापित हो गए और वे जम्मू सहित देश के अन्य हिस्सों में जाकर रहने लगे। इस दौरान हजारों कश्मीरी पंडितों को मौत के घाट उतार दिया गया। हालांकि अभी भी कश्मीर घाटी में लगभग 3 हजार कश्मीरी पंडित रहते हैं लेकिन अब वे घर से कम ही बाहर निकल पाते हैं।

राम प्रसाद

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