समय व न्याय के अनुसार सामाजिक प्रथाओं व मान्यताओं में सतत् सुधार करने से ही कालजयी रहा हिंदू धर्म
पत्थरों के युद्ध में खून की नदियां बहाने वाले माॅ बाराही धाम देवीधुरा कीबग्वाल मेले में अब बरसाने लगे हैं फल फूल
चम्पावत (प्याउ)। रक्षा बंधन के पावन पर्व पर 26 अगस्त को देश के सीमांत प्रांत उतराखण्ड के चम्पावत जनपद में कभी खून की नदियां बहाने वाली माॅ बाराही धाम देवीधूरा की बग्वाल मेले में अब फल फूलों की बग्वाल के इस मेले में उपस्थित करीब 22 हजार श्रद्धालुओं ने खुले दिल से स्वागत कर माॅ बाराही के गगनभेदी जयकारा लगाये। इसके मनीषियों ने इस परंपरा में सुधार करने के लिए क्षेत्र के उन प्रबुद्ध लोगों को भी बधाई दी जिन्होने इस रक्त रंजित पत्थरों के युद्ध की बग्वाल को फूलों की बग्वाल में तब्दील करने का सराहनीय व माॅ बाराही के सम्मान की रक्षा करने का काम किया।
गौरतलब है कि सदियों से रक्षा बंधन के दिन चम्पावत में माॅ बाराही के पावन धाम देवीधूरा में दो समुहों (सात थोकों और चार खामों )के योद्धाओं के बीच पत्थरों का रक्त रंजित युद्ध होता था। चार खामों में चमियाल, गहड़वाल ,बालिख व लमगडिया है। धीरे धीरे कानून व लोगों में बढ़ी जागरूकता के कारण यहां के प्रबुद्ध लोगों ने इस रक्त रंजित पाषण युद्ध के स्थान पर फूलों का युद्ध करने की पहल की। इसमें कुछ सालों से निरंतर सफलता मिल रही है। अब हर साल देवीधूरा की बग्वाल में पत्थरों के युद्ध के स्थान पर फूलों के युद्ध ने ले ली है। हाॅं प्रतीकात्मक कुछ लोग पत्थरों का प्रयोग कर हल्के रक्त रंजित होने को शुभ मानते हैं। यहां पर जब एक मानव के रक्त के समान रक्त इस धरती पर गिर जाता है तब इस युद्ध की समाप्त किया जाता है। इसी कारण आज भी इस देवीधूरा बग्वाल में अब केवल चार पांच दर्जन लोग ही घायल होते हैं। सामाजिक मान्यताओं व प्रथाओं का सदियों से अनुसरण कर रहा समाज में यह बदलाव स्वागत योग्य व शुभ संकेत है।
इस साल रक्षा बंधन के दिन यहां बारिश और कोहरे के बीच सम्पन्न हुए मेले में इस बार भी पत्थरों के बजाय फल-फूलों का युद्ध 10 मिनट ही चला। हाॅ प्रतीकात्मक रूप से कुछ पत्थर भी फेंके गये। इसमें ही पांच दर्जन योद्धा घायल हो गये। जबकि पहले कई गुना अधिक लोग गंभीर रूप से घायल हो जाते थे।
रक्षा बंधन के दिन प्रातःकाल ही बाराही धाम में विशेष पूजा के बाद मुख्य अतिथि केन्द्रीय राज्य मंत्री अजय टम्टा और उतराखण्ड प्रदेष के राज्य मंत्री धन सिंह रावत सहित हजारों श्रद्धालुओं से खचाखच भरे माॅ बाराही धाम के परिसर में 7 थोकों और 4 खामों के बग्वाली योद्धाओं ने अपनी अलग अलग रंग की पगडियों के साथ मां बाराही देवी के जयकारे लगाते हुए मंदिर की परिक्रमा की।
इसके बाद देवीधूरा की प्रसिद्ध बग्वाल के युद्ध का प्रारम्भ चमियाल खाम और अंत में गहड़वाल खाम का जत्था पहुंचा। इनके बग्वाली वीरों के आमने-सामने पहुंचते ही पुजारियों ने शंख और घण्टा बजा कर इस युद्ध के प्रारम्भ का ऐलान किया वेसे ही इदोनों खामों में फल-फूलों के साथ पत्थर भी चल पड़े। जब पुजारी को आभास हुआ कि एक मानव के बराबर रक्तपात हो गया है तो वह चंवर और मां बाराही के छत्र के साथ मैदान में पहुचे और शंख ध्वनि कर बग्वाल बन्द करने का ऐलान किया। इस बग्वाल में कई दर्शक भी घायल होते रहते हैं। इसके बाद घायलों का इलाज कण्डाली लगाकर व प्राथमिक इलाज भी किया जाता है।
इस मेले में पत्थरों के रक्त रंजित युद्ध के स्थान पर फल व फूलों के बरसाने पर त्वरित टिप्पणी करते हुए विश्व संस्कृति के मर्मज्ञों ने कहा कि हिंदू धर्म अनादिकाल से ही गंगा की तरह सतत् निर्मल करने की प्रक्रिया चलती रहती है। यह अन्य धर्मों के अनुसार पूर्व घोषित मान्यताओं व प्रथाओं के बंधन में सदा नहीं बंधा रहता है। यह हमेशा अपने लोगों में व्याप्त कुरितियों को दूर करने के लिए सामाजिक कुरितियों व समय की कसोटी पर खरी न उतरने वाली प्रथाओं व मान्यताओं में सुधार करता है। इसीलिए यह सनातन धर्म कहलाया। हिंदू धर्म में जड़ चेतन में परमेश्वर स्वरूप मान कर सबका सम्मान करना सिखाता है परन्तु कालांतर में समाज में जब कुछ कुरितियां या कुप्रथायें या गलत मान्यतायें अज्ञानता के कारण समाज से जुड जाती है तो हिंदू धर्म ने हमेशा उनको त्याग कर सतपथ को ही आत्मसात किया। छुआछुत, बलिप्रथा, बाल विवाह, अंध विश्वास व शोषण जैसे कुरितियों के खिलाफ हमेशा चिंतन मंथन करके इनको त्यागने का काम किया। हिंदू धर्म हमेशा सत्, न्याय व सबके हित में समर्पित रहने की सीख देता है। इसी को आत्मसात करने की सीख देता है। इसीलिए अन्य धर्मों की तरह यह यह चंद मान्यताओं व किसी एक देवता पर आधारित नहीं है। यह सत् पर ही आघारित है। आशा है कि धीरे धीरे यहा ंपर एक देवीधूरा बग्वाल में एक भी पत्थर नहीं फेंका जायेगा।
इसी तरह का परिवर्तन विश्व संस्कृति की उदगम स्थली उतराखण्ड में माॅं भगवती के प्रसिद्ध पूजा अर्चना, अठवाड रूपि मेलों में होने वाली हजारों सैकडों की निर्मम पषुबलि को लोगों ने बंद कर वहां पर पूरी तरह से सात्विक पूजा अर्चना होती है। इनमें माॅं चंद्रबदनी, कालिका मेला, चोपता चैंरी आदि स्थानों ंके सिद्ध मंदिर प्रमुख हैं। इसके साथ बकरा ट्राफी, मूर्गा ट्राफी नाम से कुप्रचलित खेल प्रतियोगिताओं पर भी जागरूक लोगों के विरोध से सर उठाते जमीदोज कर दिया गया। ऐसा ही सुधार जन्म दिन, शादी व अन्य समारोहों में बकरा व शराब की पार्टी की कुप्रथा को काफी हद तक लोगों ने खुद ही अंकुश लगा दिया है। यही मशाण, देवता आदि पूजा में भी लोग बलि प्रथा के बजाय सात्विक पूजा को प्राथमिता दे रहे हैै।
ऐसी ही खबरें पूरे देश विदेश में हिंदू धर्म के श्रद्धालु कर रहे है। हिंदू धर्म अपनी खान, पान, रहन सहन व पूजा आदि सभी जीवन चक्र में निरंतर सुधार करता रहता है। इसीलिए यह जीवंत बना रहता है। जबकि अन्य धर्मों में मान्यताओं व प्रथाओं को आज भी अक्षरषः अंध अनुशरण किया जा रहा है। शायद हिंदू धर्म की इस विलक्षणता को देख कर मोलाना इकबाल ने क