उत्तराखंड

हरदा की म्यर गौं पोस्ट से मचा उत्तराखण्ड कांग्रेस में घमासान

 हरदा पर किशोर के प्रहार से उजागर हुआ कांग्रेस में बर्चस्व की जंग
पूर्व मुख्यमंत्री हरदा की पोस्ट से  बेनकाब हुई उत्तराखण्ड में  विकास के सरकारी दावे

उत्तराखण्ड के हुक्मरानों को दिशा और देश दुनिया में रहने वाले उत्तराखण्डियों को रैबार देती हरदा की पोस्ट
गैरसैंण में राजधानी बनाने से ही आबाद होगें गांव व साकार  होंगी राज्य गठन की  जनांकांक्षायें

देवसिंह रावत

पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने 23 नवम्बर को अपनी फेसबुक में म्यर गौ नामक जो  पोस्ट क्या लिखी, उससे  न केवल उत्तराखण्ड की राजनीति में हडकंप मचा दिया है अपितु देश विदेश में रहने वाले लाखों उत्तराखण्डियों को भी झकझोर कर रख दिया है। इस चिट्टी से खुद हरीश  रावत सहित सभी सरकारें कटघरे में खडी है। इससे उत्तराखण्ड कांग्रेस में तो महाभारत ही मच गया। कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्याय ने तो आव देखा न ताव एक ऐसी पोस्ट सांझी कर दी जिसमें हरीश रावत को धृतराष्ट्र बताया गया।  

किशोर उपाध्याय, जिनको प्रदेश की राजनीति में हरीश रावत का सिपाहे सलार समझा जाता था, जिनको हरीश रावत ने अपने विरोधी विजय बहुगुणा पर अंकुश लगाने के लिए प्रदेश का अध्यक्ष बनाया था। किशोर व हरीश रावत के बीच ऐसा श्री संवाद पहली बार नहीं हो रहा है। हरीश  रावत जब मुख्यमंत्री थे उस समय भी ऐसा ही तीखे संवाद का नजारा था। चुनावी द्धार पर खडी कांग्रेस के तारन हार समझे जाने वाले हरीश  रावत पर जितने प्रहार किशोर उपाध्याय ने किये उतने भाजपा ने भी नहीं किये। वह तो हरीश  रावत थे जो किशोर को कांग्रेस में बनाये रखे। अगर ऐसी स्थिति में किशोर रहते तो वे हरीश रावत को भी कबका बाहर का दरवाजा दिखा देते।
हरीश  रावत पर किशार के सोशल मीडिया में किये गये प्रहार से प्रदेश के कांग्रेसी सकते में है। हरीश ही नहीं प्रदेश के कांग्रेस के अनैक क्षत्रप नहीं चाहते कि प्रदेश में हरीश रावत फिर कांग्रेसी राजनीति के धु्रव बने। क्योंकि कांग्रेस की हार के बाद  इन नेताओं को लगा कि हरीश रावत अब इतिहास हो गये। कांग्रेस के वर्तमान व भविष्य प्रदेश में अब वे ही है। परन्तु वे भूल गये भले हरीश रावत की उम्रदराज हो गये हों परन्तु हरीश रावत की पकड़ व सक्रियता प्रदेश में न केवल कांग्रेसी अपितु प्रदेश के तमाम राजनैताओं से अधिक है। जनता की नब्ज जानने में उनको महारथ हासिल है।  परन्तु कांग्रेसी दिग्गजों को कांग्रेस की राजनीति पुन्न हरीश रावत के आसपास घुमते देख कर असहज महसूस हुआ। कई तो मौन रहे परन्तु कई बौखला गये।  जनता उनकी बौखलाहट का अर्थ समझती है। जनता प्रदेश के हर नेता की कर्मपत्री की भी जानकार है। हरीश रावत भी लोगों की आशाओं व अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरे हों पर हरीश रावत का कार्यकाल पूर्ववर्ती सभी हुक्मरानों से बेहतर रहा।
राजनैतिक  विरोधी लाख विरोध करें । पर इस सच्चाई जग जाहिर है कि आज के दिन उत्तराखण्ड की सक्रिय राजनीति में हरीश रावत जैसा कद काठी व उत्तराखण्ड की नब्ज को जानने वाला नेता व दल नहीं है। उक्रांद प्रदेश गठन का भले ध्वजवाहक रहा हो परन्तु वह जनांकांक्षाओं को साकार करने की जंग लड़ने के बजाय इसके क्षत्रप इन 17 सालों में अपने अहं की जंग लड कर प्रदेश की जनता को निराश करने के साथ अपने दल को ही कमजोर करते रहे।  भले ही हरदा अपने कार्यकाल में गैरसैंण, मुजफ्फरनगर काण्ड, हिमाचल की तरह  भू कानून   व प्रदेश के विकास पर दीमक बन चूके नेता, नौकरशाह, माफियाओं व दलालों पर अंकुश नहीं लगा पाये। प्रदेश के हक हकूकों की रक्षा तक नहीं कर पाये। हाॅ सांस्कृतिक विरासत की तरफ जनता का ध्यान आकृष्ठ करने की पहल तो की।  प्राकृतिक आपदा से ध्वस्थ केदारनाथ  धाम क्षेत्र को पुन्नः जोड़ने में सराहनीय कार्य किये। परन्तु प्रदेश में  विनाषकारी आपदाओं के कारण बडे बांध, सरकार की दिशा व दशा को सुधारने के लिए वे ठोस नीति नहीं बना पाये। प्रदेश तो रहा दूर वे अपने आसपास  भी  साफ छवि  की टीम  भी नहीं बना पाये। सही लोगों को किनारा और दूर रखने योग्य लोगों को महत्वपूर्ण पदों पर आसीन करते रहे।  गैरसैंण पर अच्छी पहल की पर  मुकाम पर नहीं पंहुचा पाये।  हरीश रावत भले ही प्रदेश की राजनीति में अब तक के सबसे बडे राजनैतिक  चक्रव्यूह में फंसने के बाबजूद अपनी सरकार को बचाने में सफल रहे परन्तु प्रदेश की जनांकांक्षाओं को साकार करने में असफल रहे। समीक्षा प्रदेश के हित को व वर्तमान स्थिति को देख कर की जानी चाहिए। अंध विरोध व अंध समर्थन से न प्रदेश का भला होगा व नहीं मूल्यों की रक्षा। क्योंकि हमारा मानना है बेहतर विकल्प की तलाश निरंतर होनी चाहिए पर धनधोर अंधेरे में सूर्य की रोशनी के इंतजार में जुगुनुओं की रोशनी को किसी भी सूरत में नहीं दुत्कारना चाहिए।  
यह रैबार हरदा का राजनैतिक दाव हो या प्रायश्चित।  यह तो वे ही जाने परन्तु उनके इस दिल को छू लेने वाले लेख ने उत्तराखण्ड में विकास के नाम पर उत्तराखण्ड को उजाड़ने में लगी सरकारों  के लिए एक सबक है और सरकारों द्वारा शिक्षा, चिकित्सा, रोजगार की सुविधायें उपलब्ध न किये जाने के कारण देश विदेश में मजबूरी में  पलायन का दंश झेल रहे लाखों उत्तराखण्डियों के लिए  मातृभूमि उत्तराखण्ड का एक दिल को छूने वाला  रैवार भी है।
उत्तराखण्ड का दुर्भाग्य यह है कि यहा की राजनीति में भाजपा व कांग्रेस जैसे दिल्ली के आकाओं से संचालित प्यादों का बर्चस्व रहा। इन दलों में प्रायः ऐसे नेता रहते है जिनको न तो प्रदेश के हितों की चिंता है व नहीं सम्मान की। इसी कारण उत्तराखण्ड विकास के नाम पर बर्बाद हो रहा है।
हरदा का विरोध करने वाले कांग्रेस व भाजपा के नेताओं की कर्मपत्री भी जनता नानती है। राजनैतिक दलों का विरोध केवल बंदरबांट या बर्चस्व का है। हरदा के इस पत्र को भले विरोधी ढौंग, राजनैतिक हथकण्डा या जनता की आंखों में धूल झोंकने का एक दाव मान रहे हो। परन्तु जनता को यह पत्र अब भी  प्रायश्चित या चिंतन लग रहा है। क्योंकि प्रदेश में हरीश रावत ही एक मात्र ऐसा नेता है जो अपनी भूल का स्वीकार कर उसमें सुधार करने के लिए  जनभावनाओं को साकार करने के लिए पूरी ताकत से झोंक देते है। ऐसा कई बार हुआ। खासकर उत्तराखण्ड  राज्य गठन आंदोलन का भारी विरोध के कारण जनता से मिली भारी फटकार के बाद हरीश रावत ने अपनी पार्टी को उत्तराखण्ड राज्य गठन के लिए सहमत करने के बाद, वे राज्य गठन के लिए पूरे दल बल के साथ सडकों पर उतरे। राज्य को अपना नाम उत्तराखण्ड दिलाने के लिए डटे रहे। निरंतर हार के बाद भी अन्य नेताओं की तरह हताश हो कर घर में नहीं बेठे रहे। सदैव जनहित के मुद्दों को स्वर देते दिखे। भले ही वह अपनी राजनैतिक जमीन व वजूद की रक्षा में किये गये हों परन्तु प्रदेश के अन्य नेताओं में तो अपने राजनैतिक स्वार्थो के लिए भी जनमुद्दों को उठाने की सुध तक नहीं है। इसलिए आशा है कि अगर समय मिले तो हो सकता है वे अपनी भूलों को भविष्य में सुधार करे। परन्तु इतना तय है उनका यह संदेश प्रदेश के हुक्मरानों के लिए पथप्रदर्शक का काम कर सकता है। लोगों को अपनी जड़ों को जोड़ने की राह तो दिखा सकता है। उनकी चिट्ठी पढ़ कर मेरे एक जानकर व पूर्व नौकरशाह मित्र दशकों से खण्डर बन चूके गांव के मकान की सुध लेने अपने गांव आज ही चले गये है।
इस बात से उनके विरोधी भी नकार नहीं सकते है कि प्रदेश की विकास की राह गांव खलिहान को रोशन करके ही आगे बढ़नी चाहिए।  वे गांव खलिहान आबाद होने चाहिए जिनकी खुशहाली के लिए उत्तराखण्ड राज्य गठन किया गया। राव व मुलायम का दमन साहा गया। अब उत्तराखण्ड के गांवों व घाटियों की खुशहाली की एक मात्र राह गैरसैण्ं है । प्रदेश की खुशहाली की गैरसैंण राह पर चलने के लिए अब तक के भाजपा व कांग्रेस के हुक्मरान चलने से कतराते रहे। वर्तमान सरकार तो दिशाहीन है गैरसैंण के नाम से भयभीत है । प्रदेश की जनांकांक्षाओं की रहा गैरसैंण पर चलने के लिए केवल इसलिए कतरा रहे हैं कि गैरसैंण में इनको देहरादून की तरह पंचतारा सुविधायें व ऐशोआराम नहीं मिलेगा।

पाठक अब खुद पढ़े हरीश रावत का मार्मिक संदेश – म्यर गौं

म्यर गौं (मेरा गांव)

राज्य के मुख्यमंत्री ने अभी-2 कहा है कि, स्वैच्छिक चकबंदी उनके पैतृक गांव से प्रारम्भ होगी। काश मैं भी ऐसा कर पाऊं। आज गांव में अपनी मकान की छत पर बैठा, बार-2 यह सवाल अपने-आपसे कर रहा हॅूं, क्या मैं स्वैच्छिक चकबंदी को अपने गाॅव व अड़ोस-पड़ोस में सम्भव बना पाऊंगा। जबकि स्वैच्छिक चकबंदी का कानून कांग्रेस सरकार ने ही पास करवाया है।
घर की छत पर बैठे-2 मेरी नजर अपने गांव के ऊपर लेटे हुये बड़े पत्थर पर पड़ी। जिस पर न जाने कितनी बार मैंने बचपन में घुस-घुसस्टी (फिसल पट्टी) खेली थी। मुझे अपने बड़े चाचा भी याद आ रहे हैं। हमारा आंगन बड़ा था। हम सब बच्चे वहीं खेलते थे। चाचा जी को घरेलु काम नहीं करने देते थे। वे अपनी जेब से एक मिश्री या गुड़ की डली निकालते थे और कहते थे जो ऊपर वाले पत्थर को तीन बार सबसे पहले छुयेगा, उसे यह मिश्री मिलेगी। हर बार मैं पहला आता था और मिश्री पाता था। बचपन की उस दौड़ ने ही मुझे प्रतियोगात्मक बनाया। राजनैतिक जीवन में जीत से हार ज्यादा भोगी, पर कभी मन को नहीं हारने दिया। गांवों में पसरते सन्नाटे को तोड़ने के लिये मैंने मुख्यमंत्री रहते सैकड़ों पहलें प्रारम्भ की, प्रायः सभी धरती पर उतरी भी, पर इच्छित गति नहीं पकड़ पाई। शायद मुझे मुख्यमंत्री के रूप में काम करने का जो समय मिला वह कम पड़ गया। सोचता हॅू क्या इस हार के बाद अब गांव में पसरे सन्नाटे को तोड़ने के लिये मैं कुछ कर पाऊंगा। हार नहीं मानी है, पर उम्र अब मेरे पक्ष में नहीं है।
आज लगता है बहुत भोला, पर अलमस्त सा मेरा गांव कहीं खो गया है। मैं इतनी ऊंचाई तक पहुंचा, पर क्या मैं अपने गांव को, उसका खोया हुआ अपनापन फिर वापस कर पाऊंगा। कितना अच्छा था मेरे गांव का बचपन, अपना-पराया, छोटा-बड़ा कुछ नहीं था। सब साथ खेलते थे। जिसका खेत बड़ा होता था, वहीं हमारी गीरी (गावों की होकी) शुरू हो जाती थी। मेरी माँ जंगल से लकड़ी के साथ मजबूत लकड़ी (बहुधा घिंघारू) की हाॅकी बनाकर लाती थी और कपड़े की बाल (गेंद) फटे-पुराने कपड़ों की सी कर हर रोज देती थी। कभी-2 चाचियां भी गेंद देती थी। हम गेंद से गेंद-बल्ला भी खेलते थे। लगान के क्रिकेट की तर्ज पर रन बनाते थे। जब खेत खाली नहीं होते थे, हमारे थड़े (आंगन) में गुल्ली-डंडा खेलते थे और खूब डांट भी खाते थे। अड्डू व अंठी एवं गुच्छी, बाघ-बकरी भी खेलते थे। गुच्छी को पिताजी जुआ बताकर मेरी पिटाई करते थे। जब तक मैं और मेरी टीम चोरी करती रही, गांव व आस-पास के गांवों में खूब ककड़ी, माल्टा, संतरा, नीबू, सेब, खुमानी, चुआरू, दाड़िम, नासपाती होते रहे। हम जिसके खेत या पेड़ से चोरी करते थे उसके बेटे या बेटी को एक टुकड़ा जरूर खिलाते थे। जब उसकी माँ अपने चैथरे में खड़े होकर गाली देती थी, तो हम ताली बजाकर उसके लड़के से कहते थे, अब तू भी हमारे साथ मर जायेगा। तेरी माँ ने गाली दी है। खूब मजा लेते थे। नई-2 शरारतें करते थे, कहां गया वह अल्हड़ गांव। यदि आज ऐसी शरारत कोई करे, तो कोर्ट कचहरी तक का मामला पहुँच जायेगा। उस समय इन सब बाल शरारतों में एक अपनापन था, जो अब खो गया है। गांव में जो लोग हमें गाली देकर पिताजी से पिटवाते थे, हम जंगल में उसकी गाय-बकरियों को और दूर तक हांक देते थे और मजा लेते थे। जब मैंने सन 1980 में लोकसभा चुनाव लड़ा तो, हमारे अड़ोस-पड़ोस गांव जहां से मैंने जूनियर हाईस्कूल व हाईस्कूल किया। मेरी पहचान बताते वक्त कहते थे, यह वही हरीश है जिसने हमारे सेब, माल्टे चोरे थे।
अब जब मैं अपने गांव व उसके आस-पास देखता हॅू तो सेब, माल्टे, ककड़ी, गाय-बकरी सब गायब हैं। अब खेलने वाले बच्चे भी गायब हैं, अब गांवों में चोरी करने वाला अल्हड़ बचपन नहीं है। इसलिये फल आदि भी गायब हो गये हैं। प्रकृति भी बदल गई है या रूठ गई है।
पिछले पच्चीस वर्षों में धीरे-2 गांव से गांव वालों का रिश्ता टूटता-छूटता चला गया। पहले हम गांव के काफल व ठण्डा पानी भूले, फिर धीरे-2 जागर लगाना भी बन्द हो गई। गांव की धरती का सत् छूठ गया। हमारा बहुत बड़ा परिवार था, हमारे खेत व जानवर, सारे परिवार के लिये सबकुछ देते थे। मेरे नाना बहुत अच्छे किसान थे, उनके पैदा की गई गडेरी व पिनालू के गुटके और ढिनाली के नाम पर घी के हड़पिया को मैं कभी नहीं भूल सकता। नैनीहाल के लाल माल्टे भी नहीं भूल सकता, मेरी नानी मेरे लिये कुछ सबसे छिपाकर रखती थी। मैं गांव में शरारत कर नैनीहाल जो लगा हुआ गांव है, वहाँ भाग जाता था और नानी से बहुत सारी शिकायतें करता था और नानी मुझे गुड़ घी देती थी। मेरे नाना खेत में काम करते-2 मरे। मुझे खुशी है, मेरे नैनीहाल में आज भी खेती हो रही है, वहां गांव जागृत लगता है। वहाॅ के लोगों के चेहरे पर ताजगी नजर आती है। वहाँ आज भी आम की डाली में घुघुती घुर्र-घुर्र कर अपने परदेशियों को बुलाती है। आज भी उस गांव में चेतोला मनाने बेटी आती है, क्योंकि चेतोला देने वाला मायेके में कोई है।
मैं छत में बैठा-2 सोच रहा हॅू, कैसे अपने परिवार व गांव के भाई-बन्धुवों (अब परदेशियों) को गांव से जोडूं, कभी-2 तो आवें । भूमियां पूजने आवें, देवी के नौ रात्रों में आवें, खेत व आंगन तक आ रहे चीड़ से गांव को बचाने के लिये आवें। खेती न सही कुछ सांग-सब्जी पैदा करें। खुद न करें दूसरे को तो खेत सौंप कर कुछ पैदा करवायें। हमारे एक कोटाल (दर्जी) थे लाल दा, उनके बूबू को मेरी बूढ़ी अम्मा के मायके वालों ने शादी के वक्त उनके साथ भेजा था। तीसरी पीढ़ी में ललदा थे। वे जब भी हमारे घर आते थे, बैठते दरवाजे पर थे। परन्तु घर के हर बच्चे को उन्हें प्रणाम कहना पड़ता था। यदि कोई भूल गया तो, पिताजी की डांट खानी पड़ती थी। पिताजी अपने हाथ से उनके बैठने के लिये चटाई बिछाते थे। बड़ा सम्मान करते थे उनका। वे हमारे घर से हर फसल पर कुछ नाली आनाज ले जाते थे और पिताजी व चाचाओं के लिये टोपी लाते थे। जब कुछ समझने लायक बना तो रामनगर इण्टर पढ़ने गया। वहां मैंने देखा, कि ललदा का मकान हमसे बड़ा है, खेत है, बगीचा है और बहुत अनाज होता है। बाजार में दर्जी की दुकान है। जब वे फिर फसल के मौके पर हमारे घर आये, तब तक मेरे पिताजी का स्वर्गवास हो गया था। जब माँ उन्हें कुछ मडुआ देने लायी, तो मैंने माँ से कहा ईजा ये तो बहुत बड़े आदमी हैं, उनके लिये इस अनाज का क्या महत्व। मुझे ललदा के शब्द आज भी याद हैं ‘‘पधानज्यू मैं व मेरा परिवार इसी अन्न के सत्व से यहां तक पहुंचे हैं, जिस दिन मैं व मेरा परिवार इसको छोड़ देंगे तो मिट्टी में मिल जायेंगे’’। आज ललदा नहीं हैं, मगर गांव में घर-घर बिजली है, पानी है, शौचालय है, जूनियर हाईस्कूल है, सड़क है, पंचायत घर है, मंदिर भी अच्छे बन गये हैं। गांव में मकान भी अच्छे बन गये हैं, सब कुछ है परन्तु ललदा की तरह गांव की मिट्टी के अन्न के सत्व को पहचानने वाले नहीं हैं। इसलिये मेरा मन डर रहा है, कि क्या मैं अपने गांव का पुराना स्वरूप कुछ हद तक लौटा पाऊंगा। दुःख यह है कि यह केवल मेरे गाॅव की कहानी नहीं है। गाॅव-2 की यही व्यथा है, हमें अपना गाॅव प्यारा है, बोली भाषा प्यारी है, संस्कृति प्यारी है, खान-पान प्यारा है, मगर दूर-2 से। हमें #देहरादून, #दिल्ली, #चण्डीगढ़, #हल्द्वानी में बहुत याद आती है, अपने प्यारो गाॅव की। मगर महीने में दो रोज हम अपने कुड़े (मकान) में नहीं बिताते हैं, जहाॅ हम पैदा हुये, जहाॅ से हमारा वंश प्रारम्भ हुआ। वहीं आंगन में झोड़े व झुमेलो नहीं गाते हैं। टूटते हुये अपने बाप दादाओं की निशानी, मकान की हम मरम्मत नहीं कराते हैं। हमें दर्द बहुत है, मगर आराम के साथ। एक बात हम सबको याद रखनी चाहिये यदि हमें आगे बढ़ना है, तो मेरे ललदा की तरह गाॅव के सत्व (अनाज) को याद रखना पड़ेगा, उस धरती से जुड़ाव रखना पड़ेगा, तभी हम आगे बढ़ पायेंगे और अपनी वंश परम्परा की पहचान को बनाये रख पायेंगे।
(हरीश रावत)

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