उत्तराखंड दुनिया विश्व रिकॉर्ड

गूगल ने डूडल से लहराया 19 शताब्दी के महापण्डित नैनसिंह रावत का विश्व में परचम

महा पण्डित नैनसिंह रावत ने मध्य एशिया के दुर्गम क्षेत्र तिब्बत को अपने पैरों से नाप कर पहली बार सटीक नक्शा दुनिया के मानचित्र स्थान दिलाया

देवसिंह रावत

21 अक्तूबर 1830 को उत्तराखण्ड के पिथौरागढ़ जिले के मुनस्यारी तहसील स्थित मिलम गांव में जन्में नैनसिंह रावत की सर्वेक्षण में विश्वस्तरीय असाधारण योगदान में 187 वीं जयंती पर गूगल ने डूडल बना कर पूरी दुनिया में कीर्ति पताका फहरायी।
मध्य एशिया के दुर्गम क्षेत्र तिब्बत को अपने पैरों से नाप कर पहली बार सटीक नक्शा दुनिया के मानचित्र में मानक स्थान दिलाने वाले इस महान अन्वेषक, सर्वेक्षक और मानचित्रकार नैन सिंह रावत को पूरी दुनिया महा पण्डित नैनसिंह रावत के नाम से जानती है।
9वीं शताब्दी में अंग्रेज भारत का नक्शा तैयार कर चुके थे.। परन्तु दुर्गम तिब्बत उनके मार्ग को अवरोधक था। तिब्बत में बाहरी दुनिया के लोगों का सम्पर्क ना के बराबर था। अंग्रेजों के इस काम को सरल किया नैनसिंह रावत ने ।
उत्तराखंड में जोहर की घाटी में एक शौका जनजाति गांव के नैनसिंह रावत ने जिन्होने अपने पिता के साथ कई बार तिब्बत यात्रा कर चुके थे। वहां के रीति रिवाजों से विज्ञ थे। बोध भिक्षु के रूप वे ल्हासा, काठमांडू और तवांग गये। अपना मिशन उन्होने साकार कर दुनिया के नक्शे में तिब्बत की मानक उपस्थिति दर्ज कराने का काम किया।
१९वीं शताब्दी के उन सर्वेक्षक पण्डितों में से एक थे जिनको अंग्रेजों के लिये हिमालय के क्षेत्रों की खोजबीन की। लाटा बुढ्ढा के नाम से जाने जाने वाले उनके पिता का नाम अमर सिंह था। नैन सिंह उत्तराखण्ड के कुमायूँ मण्डल के पिथौरागढ़ क्षेत्र के थे। उन्होने नेपाल से होते हुए तिब्बत तक के व्यापारिक मार्ग का मानचित्रण किया। उन्होने ही सबसे पहले ल्हासा की स्थिति तथा ऊँचाई ज्ञात की और तिब्बत से बहने वाली मुख्य नदी त्सांगपो के बहुत बड़े भाग का मानचित्रण भी किया।
अपने कदमों से मध्य एशिया को नापकर इस क्षेत्र का मानचित्र तैयार कर दिया था। मानचित्र बनाने के लिए उन्होने इसका मापन करने का सटीक मानक रखा। वे 33 इंच का एक कदम रखते। उनके हाथों में मनकों की एक माला होती थी। एक माला में 108 मनके होते हैं लेकिन वह अपने पास 100 मनके वाली माला रखते थे। वह 100 कदम चलने पर एक मनका गिरा देते और 2000 कदम चलने के बाद वह उसे एक मील मानते थे। इस तरह से 10,000 कदम पूरे होने पर सभी मनके गिरा दिए जाते। यहां पर पांच मील की दूरी पूरी हो जाती थी।

नैन सिंह और उनके भाई 1863 में जीएसटी से जुड़े और उन्होंने विशेष तौर पर नैन सिंह 1875 तक तिब्बत की खोज में लगे रहे। नैनसिंह रावत को मासिक वेतन 20 रूपये मिलता। दोनों रावत बंधुओं को ग्रेट ट्रिगोनोमैट्रिकल सर्वे के देहरादून स्थित कार्यालय में दो साल तक प्रशिक्षण भी दिया गया था। पंडित नैन सिंह ने काठमांडो से लेकर ल्हासा और मानसरोवर झील का नक्शा तैयार किया। इसके बाद वह सतलुज और सिंध नदी के उदगम स्थलों तक गये। उन्होंने 1870 में डगलस फोर्सिथ के पहले यरकंड यानि काशगर मिशन और बाद में 1873 में इसी तरह के दूसरे मिशन में हिस्सा लिया था।
अपनी जिंदगी का अधिकतर समय खोज और मानचित्र तैयार करने में बिताने वाले नैनसिंह रावत की प्रारंम्भिक शिक्षा गांव में हुई। घर की आर्थिक हालत ठीक न होने के कारण अपने पिता के साथ भारत और तिब्बत के बीच चलने वाले पारंपरिक व्यापार से जुड़ गये। अपने पिता के साथ तिब्बत के कई स्थानों पर जाने और उन्हें समझने का मौका मिला। उन्होंने तिब्बती भाषा सीखी जिससे आगे उन्हें काफी मदद मिली। हिन्दी और तिब्बती के अलावा उन्हें फारसी और अंग्रेजी का भी अच्छा ज्ञान था। अपनी यात्राओं की डायरियां भी तैयार की थी।
नैन सिंह ने लेह से ल्हासा तक तिब्बत के उत्तरी भाग का मानचित्र तैयार करने की जिम्मेदारी सौंपी। लेह से ल्हासा का मानचित्र। यह उनके जीवन की अंतिम यात्रा रही। नैनसिंह ने लेह से लेकर उदयगिरी तक 1405 मील की यात्रा की थी। द ज्योग्राफिकल मैगजीन में 1876 में पहली बार उनका कार्यों पर लेख प्रकाशित हुआ था।
रायल ज्योग्राफिकल सोसायटी ने उन्हें स्वर्ण पदक देकर सम्मानित किया था। पेरिस के भूगोलवेत्ताओं की सोसायटी ने उन्हें स्वर्णजड़ित घड़ी प्रदान की। उन्हें रूहेलखंड में एक गांव जागीर के रूप में और साथ में 1000 रूपये दिये गये ।
उनके 187वीं जयंती पर गूगल ने उनके महान योगदान के लिए उन पर डूडल बना कर उनका परचम पूरे विश्व में लहरा कर उनको शतः शतः नमन् किया।

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