123 साल पहले (11 सितम्बर 1893)अमेरिका के शिकागों में आयोजित धर्म संसद में
अमेरिका के बहनों और भाइयों
आपने जिस सौहार्द और स्नेह के साथ हम लोगों का स्वागत किया है उसके प्रति अभार प्रकट करने के निमिट खडे होते समय मेरा हृदय अवर्णनीय हर्ष से पूर्ण हो रहा है। संसार में सन्यासियों की सबसे प्राचीन परंपरा की ओर से मैं आपको धन्यवाद देता हॅॅू। धर्मो की माता की और से धन्यवाद देता हॅू और सभी संप्रदायों एवं मतों के कोटि-कोटि हिन्दुओं की ओर से भी धन्यवाद देता हॅू।
मैं इस मंच पर से बोलने वाल उन कतिपय वक्ताओं के प्रति भी धन्यवाद ज्ञापित करतो हॅू जिन्होने आपको यह बतलाया कि सुदूर देशों के ये लोग सहिष्णुता के भाव विविध देशों में प्रचारित करने के गौरव का दावा कर सकते है।
मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हॅू जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृत दोनों की ही शिक्षा दी है। हम लोग सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते, वरन समस्त धर्मों को सच्चा मानकर स्वीकार करते हैं।
मुझे ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान है जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मो और देशों के उत्पीडितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया है। मुझे यह बतलाते हुए गर्व होता है कि हमने अपने वक्ष में उन यहुदियों के विशुद्धत्तम अवशिष्ट को स्वाथन दिया था जिन्होने दक्षिण भारत आकर उसी वर्ष शरण ली थी जिस वर्ष उनका पवित्र मंदिर रोमन जाति के अत्याचारों से धूल में मिला दिया गया था।
ऐसे धर्म का अनुयायी होने में मै गर्व का अनुभव करता हॅू जिसने महान जरशुट्र जाति के अवशिष्ट अंश को शरण दी और जिनका पालन वह अब तक कर रहा है।
भाईयों, मैं आप लोगों को एक स्तात्र की कुछ पंक्तियां सुनाता हॅू जिसकी आवृति में बचपन से कर रहा हॅू और जिसकी आवृति प्रतिदिन लाखों मनुष्य करते है।
रूचीनां वैवित्रयादृजुकुटिलनानापथजुषाम। नृणामेंको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव।
अर्थात् जैसे विभिन्न नदियां भिन्न-भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती है। उसी प्रकार हे प्रभो! भिन्न-भिन्न रूचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े -मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जाने वाले लोग अंत में तुझमें ही आकर मिल जाते है। यह सभा जो अभी तक आयोजित सर्वश्रेष्ठ पवित्र सम्मेलनों में से एक है। स्वतः ही गीता के इस अद्भुत उपदेश का प्रतिपादन एवं जगत के प्रति उसकी घोषणा करती है।
।। ये यथा मा प्रपद्यंते तांस्तथैव भजाम्यहम। मम वत्मार्नुर्वतते मनुष्याः पार्थ सर्वश।।
अर्थात् जो कोई मेरी और आता है- चाहे किसी प्रकार से हो, मैं उसको प्राप्त होता हॅू। लोग भिन्न मार्ग द्वारा प्रयत्न करते हुए अंत में मेरी ही ओर आते हैं।
सांप्रदायिकता, हठधर्मिता और उनकी वीभत्स वंशधर धर्मांधता इस सुंदर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज्य कर चुकी है। वे पृथ्वी को हिंसा से भरती रही है। व उनको बार बार मानवता के रक्त से नहलाती रही है। सभ्यताओं को ध्वस्त करती हुई पूरे के पूरे देशों को निराशा के गर्त में डालती रही है।
यदि ये वीभत्स दानवी शक्तियां न होती तो मानव समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता। पर अब उनका समय आ गया है और मैं आंतरिक रूप से आशा करता हॅू कि आज सुबह इस सभा के सम्मान में जो घंटा ध्वनि हुई है वह समस्त धर्मांधता का, तलवार या लेखनी के द्वारा होने वाले सभी उत्पीड़नों को तथा एक ही लक्ष्य की और अग्रसर होने वाले मानवों की पारस्परिक कटुता का मृत्यु निनाद सिद्ध हो।
स्वामी विवेकानंद