उत्तर प्रदेश

भगवान श्रीराम ने बतायी सच्चे मित्र व कपटी मित्र की पहचान

(रामचरित्र मानस में तुलसी दास जी ने सरल शब्दों में उल्लेख किया आदर्श मित्र व कपटी  मित्र की पहचान )

कहने को आज इंटरनेटी दुनिया में लोग मित्रता दिवस मना रहे है। लोग सामान्य परिचय तक नहीं होता है एक दूसरे का मित्र होने का दंभ भरते है। परन्तु जिंदगी की इस राह में दो कदम भी मित्रता का धर्म निभाना तक नहीं जानते। मित्र होने के नाम पर अपने मित्र की जडें काटने में लगे रहते। दंभी, पथभ्रष्ट व अन्यायी होने पर भी मित्र को सदराह पर चलने का आगाह तक नहीं करते। सही राह पर चलने वाले मित्र की राहों में अवरोध खड़ा करने, बुराई करने व धृणा फेलाने का काम ही करते। ऐसे मित्र के नाम पर धूर्त लोग ु मित्रता का अर्थ तक नहीं जानते। अधिकांश अवसरवादी व दूश्मन से बदतर साबित होते है। बहुत कम ऐसे होते हैं जो मित्रता की डगर पर एक दो कदम भी ईमानदारी से चलते है। ऐसे सच्चे मित्रों को नमन् ।
मित्र किसे कहते है इसके बारे में भगवान राम द्वारा बताये गये सच्चे मित्र की पहचान बहुत ही सरल शब्दों में रामचरित्र मानस में उल्लेख किया। जो आप सबके लिए प्रस्तुत है-

 

जे न मित्र दुख होहिं दुखारी। तिन्हहि बिलोकत पातक भारी
निज दुख गिरि सम रज करि जाना। मित्रक दुख रज मेरु समाना

जो लोग मित्र के दुःख से दुःखी नहीं होते, उन्हें देखने से ही बड़ा पाप लगता है। अपने पर्वत के समान दुःख को धूल के समान और मित्र के धूल के समान दुःख को सुमेरु (बड़े भारी पर्वत) के समान जाने॥1॥

जिन्ह कें असि मति सहज न आई। ते सठ कत हठि करत मिताई॥
कुपथ निवारि सुपंथ चलावा। गुन प्रगटै अवगुनन्हि दुरावा॥

जिन्हें स्वभाव से ही ऐसी बुद्धि प्राप्त नहीं है, वे मूर्ख हठ करके क्यों किसी से मित्रता करते हैं? मित्र का धर्म है कि वह मित्र को बुरे मार्ग से रोककर अच्छे मार्ग पर चलावे। उसके गुण प्रकट करे और अवगुणों को छिपावे॥2॥

देत लेत मन संक न धरई। बल अनुमान सदा हित करई॥
बिपति काल कर सतगुन नेहा। श्रुति कह संत मित्र गुन एहा॥3॥

देने-लेने में मन में शंका न रखे। अपने बल के अनुसार सदा हित ही करता रहे। विपत्ति के समय तो सदा सौगुना स्नेह करे। वेद कहते हैं कि संत (श्रेष्ठ) मित्र के गुण (लक्षण) ये हैं॥3॥

आगें कह मृदु बचन बनाई। पाछें अनहित मन कुटिलाई॥
जाकर ‍िचत अहि गति सम भाई। अस कुमित्र परिहरेहिं भलाई॥4॥

जो सामने तो बना-बनाकर कोमल वचन कहता है और पीठ-पीछे बुराई करता है तथा मन में कुटिलता रखता है- हे भाई! (इस तरह) जिसका मन साँप की चाल के समान टेढ़ा है, ऐसे कुमित्र को तो त्यागने में ही भलाई है॥4॥

सेवक सठ नृप कृपन कुनारी। कपटी मित्र सूल सम चारी॥
सखा सोच त्यागहु बल मोरें। सब बिधि घटब काज मैं तोरें॥

मूर्ख सेवक, कंजूस राजा, कुलटा स्त्री और कपटी मित्र- ये चारों शूल के समान पीड़ा देने वाले हैं। हे सखा! मेरे बल पर अब तुम चिंता छोड़ दो। मैं सब प्रकार से तुम्हारे काम आऊँगा (तुम्हारी सहायता करूँगा)॥5॥

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