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कब होगा भारतीय न्यायपालिका सहित देश में लोकशाही का सूर्योदय ?

बिना मांगे अरविंद केजरीवाल को सर्वोच्च न्यायालय से जमानत मिलने से प्रमुखता से उठा 77 साल से सुलग रहा गंभीर सवाल

देवसिंह रावत  

11 मई 2024 को जैसे ही सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली सरकार शराब नीति में हुई अनिमियता, धन शोधन यानि अवैध रूप से अर्जित आय व धन को छिपाना वाले  प्रवर्तन निदेशालय द्वारा दर्ज वाद में 21 मार्च 2024 से बंद हुये दिल्ली के मुख्यमंत्री व आम आदमी पार्टी के अध्यक्ष अरविंद केजरीवाल को प्रवर्तन निदेशालय के पुरजोर विरोध के बाबजूद लोकसभा चुनाव 2024 में चुनाव प्रचार के लिये 1 जून तक जमानत पर रिहा करने का निर्णय दिया इससे एक देशव्यापी बहस छिड गयी कि क्या सर्वोच्च न्यायालय को भ्रष्टाचार के संगीन आरोपों में जेल में बंद किसी आरोपी को मात्र चुनाव प्रचार के लिये जमानत देना न्याय संगत हैं? जबकि जमानत की मांग तक अरविंद केजरीवाल ने नहीं की थी। सर्वोच्च न्यायालय में केजरीवाल को गिरफ्तार करने पर कानूनी वैद्यता का वाद चल रहा था।जो जमानत देने जैसे मोड़ पर  पूरे देश के सम्मुख  आया।इस प्रकरण पर सबसे बडा सवाल यह उठ रहा है कि देश की देश की न्याय पालिका को अंग्रेजी गुलामी व परिवारवाद के प्रतीक कालेजियम से कब मुक्त मिलेगी। जिससे देश की न्याय पालिका  बडे पंहुच वाले लोगों के बजाय देश के आम जनमानस के लिये भी न्याय करने के अपने प्रथम दायित्व का निर्वहन करे। इस महत्वपूर्ण सवाल के प्रति 1947 से अंग्रेजों की दासता से मुक्त होने के बाद आज 77 सालों तक न देश की न्यायपालिका का अपना दायित्व बोध हुआ तथा न ही यह सवाल मात्र सत्ता की बंदरबांट करने के लिये जिद्दोजहद करने वाले राजनैतिक दलों को। यही नहीं फिरंगी गुलामी के मोह में मदहोश हुये देश के तथाकथित बुद्धिजीवियों ने इस पर एक पल भी सोचने का काम किया। पूरी व्यवस्था इस इस शर्मनाक हालत को अपनी नियति मानकर किसी तरह अपना जीवन बसर करने में जुझ रही आम जनमानस से इस मामले में सोचने की आश करना भी एक प्रकार से नाइंसाफी है।
इसी राष्ट्रघाति प्रवृति के कारण अंग्रेजों से मुक्त होने के 77 साल बाद भी विश्व का सबसे बडी लोकशाही होने का दंभ भरने वाले भारत  अपनी भारतीय भाषाओं व अपने नाम भारत के बजाय शिक्षा, रोजगार, न्याय व शासन सभी अंग्रेजी व इंडिया की गुलामी ढोने के लिये अभिशापित है। इसी कारण न्यायपालिका सहित पूरी व्यवस्था आम भारतीय जनमानस के बजाय चंद बडी पंहुच वाले चंद इंडियनों की सेवा में रत रह कर अपने दायित्वों का इतिश्री समझता है। केजरीवाल जमानत प्रकरण ने देश की व्यवस्था पूरी तरह से बेनकाब कर दी। मुजफ्फरनगर कांड -94 हो या दिल्ली नजफगढ़ की दामिनि  जैसे प्रकरणों में, जिस प्रकार से आम आदमी को देश की न्यायपालिका के दर पर वर्षो इंतजारी के बाद भी न्याय नहीं मिलता, वहीं केजरीवाल जैसे संगीन आरोपों में गिरफ्तार बडी पंहुच वाले लोगों को न्यायपालिका बिना मांगे चुनाव प्रचार के लिये भी जमानत देने का काम करती है। सवाल मात्र इस जमानत का नहीं, नहीं केजरीवाल या मोदी आदि बडी पंहुच वाले लोगों का। हुक्मरानों व न्यायालय के दर पर वर्षो तक न्याय की गुहार लगाने वाले दिल्ली परिवहन निगम का कर्मचारी तुलसीराम मौर्य न्याय न मिलने पर निराश हो कर वर्षो से दर दर भटक कर रिक्शा, रेड्डी चलाकर, सब्जी इत्यादि बेच कर किसी प्रकार अपने परिवार का जीवन बसर किया ।किसी अन्य निर्दोष व्यक्ति को उसकी तरह जुल्म न सहने पडे व देश विश्व के कल्याण के लिये हर साल मई माह में भगवान बदरीनाथ धाम से देश की  राजधानी दिल्ली स्थित गांधी समाधी राजघाट तक करीब डेढ सप्ताह तक निरंतर सद्भावना पदयात्रा करते है।
वहीं दूसरी तरफ नजफगढ़ की दामिनी प्रकरण में जिस प्रकार से जांच अदालतों व दिल्ली उच्च न्यायालय ने दिल्ली नजफगढ़ की दामिनी की आरोपियों को उनके जगन्य अपराध के लिए फांसी की सजा दी थी। त्वरित अदालत में चला  मानवता को शर्मशार  करने वाला मामला सन 2015 में सर्वोच्च न्यायालय के पास गया। इस जघन्य कांड पर 7 साल तक सर्वोच्च न्यायालय ने किसी प्रकार का निर्णय नहीं लिया।  सन 2022 में इस मामले में सुनवाई करते हुए इस जघन्य कांड के सभी दोषियों को सजा मुक्त कर रिहा कर दिया। सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय ने केवल नजफगढ़ दामिनी के गरीब व लाचार परिजनों को गहरा आघात लगा। अपितु देश में न्याय पर विश्वास करने वाले करोड़ों लोगों की आशाओं पर वज्रपात सा किया। इस फैसले के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में पुनर्विचार याचिका को भी
तुलसी राम जैसे ही असंख्य लोग न्याय न मिलने से या शासन द्वारा फरियाद न सुने जाने से निराश, व्यथित व बदहाली का जीवन जीने के लिये अभिशापित हैं। वहीं संगीन आरोपों में घिरे थैलीशाह व बडी पंहुच वाले केजरीवाल जैसे लोगों को न्यायालय बिना मांगे भी जमानत दे कर न्याय की आशा में वर्षों से दर दर भटक रहे आम जनमानस के जख्मों पर  नमक छिडकने का काम कर रहा है। व्यवस्था व न्यायपालिका के इस दौहरे कृत्यों से देश का आम जनमानस व्यथित व उद्वेलित हो कर अपनी बेबसी पर आहें भरने को मजबूर हैं।
यहां सवाल केवल एक अरविंद केजरीवाल का नहीं है। अपितु न्यायपालिका के दर पर ऐसे प्रकरण सबको न्याय के दावे को ही बेनकाब कर रहे है।न्याय पालिका देश के संविधान व आम जनमानस की आशाओं व अपेक्षाओं के अनुसार सबके लिये न्याय क्यों नहीं कर पा रहा है? यह यक्ष प्रश्न भी नहीं हे। इसपर सरसरी नजर डालने से बुनियादी विकृति साफ नजर आ रही  है । यह बुनियादी विकृति है भारतीय व्यवस्था की तरह ही देश की न्यायपालिका का लोकतांत्रिक करण न करने की हिमालयी भूल। यहां इस बात का उल्लेख करना नितांत जरूरी है कि भले ही 1947 में अंग्रेज भारत से चले गये और देश ने खुद को आजाद भी घोषित कर दिया। सत्ता अंग्रेजों के हाथों से भले ही भारतीयों के हाथों में आ गयी परन्तु न्याय पालिका सहित पूरी व्यवस्था में गुलामी के दिनों की तरह ही अंग्रेजों की ही भाषा अंग्रेजी व अंग्रेजों द्वारा थोपे गये इंडिया नाम से आज 77साल तक बदतर शासित होता रहा है। होना तो चहिये था कि अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त होने के 77 साल बाद भी न्यायपालिका सहित पूरी व्यवस्था अंग्रेजी के स्थान पर भारतीय भाषाओं व देश के अपने नाम भारत के नाम से भारतीय मूल्यों व परंपराओं के अनुसार संचालित होना चाहिये। जहां तक न्यायपालिका का सवाल है भारत की दो दर्जन के लगभग समृद्ध भारतीय भाषाएं  होने के बाबजूद सर्वोच्च न्यायालय में भारतीय भाषाओं के बजाय अंग्रेजी में ही न्याय कार्य होता है। यहां इस बात का भी तनिक सा भी परवाह नहीं किया जाता है कि वादी व प्रतिवादी की भाषा के साथ देश की भाषा अंग्रेजी नहीं है। अंग्रेजी गुलामी के साथ न्याय पालिका में परिवारवाद व भाई भतीजावाद व्याप्त होने के कारण यह आम जनमानस व लोकशाही से कोसों दूर हो गयी है। इसी कारण देश की आम जनता न्याय की फरियाद करने से न्यायालय का दर खटखटाने के बजाय भगवान से न्याय की गुहार लगाना पसंद करती है। क्या चंद मठाधीशों के स्वार्थ व सनक के लिये न्यायपालिका सहित देश की पूरी व्यवस्था को देश की जनता के भाषाओं से वंचित कर विदेशी आक्रांता की भाषा का बलात गुलाम बनाया जाना कहां से न्यायोचित, देशहित व लोकशाही का प्रतीक है। इस कलंक को देश से अविलम्ब मुक्त करना चाहिये।
न्यायपालिका में आम जनता का विश्वास व आम जनता को न्याय दिलाने के लिये सभी सरकारों ने प्रयाश किये। परन्तु यहां न्याय पालिका में सुधार के मूल स्तम्भ यानि न्यायाधीशों की नियुक्ति कैसे हो इस पर सभी परंपरागत ‘वरिष्ठ न्यायाधीशों का समुह जिसे कॉलेजियम के नाम से न्यायपालिका में जाना जाता है, उसमें किसी प्रकार का सुधार नहीं किया गया। वर्तमान मोदी सरकार ने देश की प्रशासनिक सेवा सहित अन्य महत्वपूर्ण सेवाओं में देश की बेहतरीन प्रतिभाओं को अवसर देने के लिये संवैधानिक परंपराओं के अनुसार न्यायिक सुधार हेतु जो महत्वपूर्ण पहल की उस पर देश में चल रही कॉलेजियम पद्धति के ध्वजवाहक सर्वोच्च न्यायालय ने कुंद कर दिया। देश के न्यायिक सुधार की जरूरत को नितांत बताने वाले बुद्धिजीवियों का मानना है कि कॉलेजियम पद्धति से देश की न्यायपालिका में तीन चार सौ परिवारों का शिकंजे में जकडा हुआ है। यहां पर इन्हीं के परिजन सर्वोच्च न्यायालय व उच्च न्यायालयों में न्यायाधीश बनते है। इन्हीं का देश की न्यायपालिका में एक प्रकार से बर्चस्व होता है। इस कारण देश के आम प्रतिभावान कालेजियम की इस लक्ष्मण रेखा के कारण देश में न्यायिक सेवा नहीं कर पाते है। इसमें आमूलचूल सुधार के लिये जहां देश में भारतीय भाषाओं में न्याय देने का लोकशाही का पहला काम तक आज 77 साल तक नहीं हो पाया। जिसके कारण न्यायपालिका में लोकशाही का सूर्योदय तक नहीं हो पाया। आखिर जब प्रशासनिक सेवा, रक्षा, चिकित्सा, आर्थिक व यांत्रिकी सेवा आदि के लिये खुली परीक्षा का आयोजन किया जा सकता है तो देश की न्यायपालिका में भी सर्वश्रेष्ठ प्रतिभायें अर्जित करने से कॉलेजियम की लक्ष्मण रेखा से ेबाधित कर यहां पर चंद परिवारों के परिजनों के लिये अघोषित आरक्षित क्यों किया गया। देश के नीति नियंताओं को इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि देश की न्याय सहित पूरी व्यवस्था देश के नागरिकों के हितों व देश के सम्मान के लिये संचालित किये जाते है। ंपरन्तु चंद मठाधीशों के हितों के लिये देश की कार्यपालिका, न्यायपालिका व विधायिका क्यों बंधक बनाये रखा जाय। आखिर लोकशाही के प्राण जनता के द्वारा, जनता के लिये की निहित होते हैं।ऐसे में जनता के हितों को चंद मठाधीशों के संकीर्ण स्वार्थो के लिये रौंदना कहां न्यायोचित है। जिस देश को जनता की भाषा व देश के अपने नाम, संस्कृति मूल्यों व इतिहास से वंचित कर उसी विदेशी आक्रांताओं की भाषा व उसके द्वारा थोपे नाम को आत्मसात करना एक प्रकार से घोर अत्चाचार  व गुलामी के साथ देश से द्रोह है। क्योंकि इस आक्रांताओं ने देश को दो शताब्दी तक लाखों देशभक्तों को कत्लेआम करके, देश की अरबों खरबों की अकूत संपति को लूट कर बलात गुलाम बनाया। उनसे मुक्ति के बाद भी देश को अपनी भाषा नाम व भाषा से वंचित कर उन्हीं आक्रांतोओं की भाषा व नाम को देश संचालित करना इस देश को  लोकतंत्र का गला घोंटना व देशद्रोह ही है। भारतीय भाषा आंदोलन ने इससे मुक्ति के लिये संसद से सडक तक दशकों से निरंतर संघर्ष कर रहा है। सैकडों दिन राष्ट्रीय धरना स्थल से प्रधानमंत्री कार्यालय तक पदयात्रा कर हर कार्य दिवस में ज्ञापन सौंपा। परन्तु दो दशकों से चले इस आंदोलन की देशहित की मांग को सुनने के बजाय सरकारों ने पुलिसिया दमन कर आंदोलनकारियों को उत्पीडन किया। जब सरकार ने देश में फरियाद करने की सतत आंदोलन संचालित करने पर पुलिसिया रोक लगाई तब से भारतीय भाषा आंदोलन प्रतिदिन प्रधानमंत्री को इंटरनेटी माध्यमों से यह ज्ञापन देकर उनको अपने प्रथम देश के प्रति दायित्व का बोध करता है।इसके बाबजूद गुलामी के मोह में जकडा देश का सभी प्रमुख संस्थान व हुक्मरान देश में लोकशाही का सूर्योदय करने के लिये तैयार नहीं है।

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